पिछली बार दिप्रिंट हिन्दी के अपने इस स्तंभ में मैंने लिखा था कि बिहार विधानसभा के चुनाव को लेकर मेरे मन में क्यों उत्साह की कोई लहर नहीं उठ रही. मेरे लिखे पर पहली प्रतिक्रिया दिप्रिंट की ओपिनियन एडिटर रमा लक्ष्मी की आई. उन्होंने मुझे चिट्ठी में लिखा: एक सेफेलॉजिस्ट के रूप में आपके लिए ये सब लिखना बहुत तकलीफदेह रहा होगा. ये बहुत कुछ वैसा ही है जैसे कोई अपने परिवार से जुदा हो जाये. लेकिन पिछले लेख में मैंने जो तर्क दिये थे उन पर बहुतों ने गौर न किया. मेरी जान-पहचान के बहुत से लोग बिहार के चुनाव को लेकर बड़े उत्साहित थे.
अपने पिछले लेख में मैंने दरअसल तीन मुख्य बातें कही थीं. एक तो ये कि बिहार उत्तर भारत की राजनीति की धुरी नहीं रहा. दूसरी बात ये कि चुनावों के एतबार से राज्य अब मुकाबले का वैसा अखाड़ा नहीं रहे जिनके सहारे देश के मन-मानस का पता लगाया जा सके. और, तीसरी बात ये लिखी थी कि चुनाव खुद भी देश की राजनीति के लिए अब वैसे अहम न रहे. चुनाव बीतने के साथ ये बात पुरानी हुई तो और अब वक्त पिछले लेख के तर्कों से गुजरते हुए अपने सोचे-लिखे की नोंक-पलक को दुरुस्त करने का है.
उत्तर भारत की राजनीति की धुरी नहीं रहा बिहार
उत्तर भारत के बाकी जगहों पर जो कुछ चल रहा है, उसकी कोई झलक बिहार के चुनाव से मिलती है क्या? न, बिहार के चुनाव से उत्तर भारत के बाकी जगहों में हो रही चीजों का कुछ खास अता-पता नहीं मिलता. इस सिलसिले की एक अहम बात तो यही कि शेष हिन्दी पट्टी की तुलना में बिहार में दलीय प्रणाली कहीं ज्यादा बिखरी-उलझी है. हिन्दी पट्टी के बाकी के राज्यों में चुनावी मुकाबला मुख्य रूप से दो दलों या तीन दलों के बीच होता है लेकिन बिहार में इस बार के चुनावी मुकाबले का आलम ये है कि सबसे ज्यादा सीट जीतने वाली पार्टी आरजेडी को बस 23.11 प्रतिशत वोट मिले हैं.
दूसरी बात ये कि बिहार में राजनीतिक होड़ का चक्का ग्रामीण बनाम शहरी की धुरी पर नहीं घूम रहा. चुनाव के नतीजे राज्य के भीतर मौजूद राजनीतिक क्षेत्रों की अहमियत रेखांकित कर रहे हैं: भोजपुर और मगध महागठबंधन के पीछे चले तो सीमांचल और मिथिला ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का साथ दिया. लेकिन, इन राजनीतिक क्षेत्रों के चुनावी बर्ताव से ऐसी कोई रूपरेखा नहीं उभरती जिसके आधार पर हम हिन्दी पट्टी के किसी दूसरे राज्य के चुनावी बर्ताव के बारे में अनुमान लगा सकें.
इस सिलसिले की तीसरी और आखिरी बात ये कि ओबीसी के जिस समीकरण ने बिहार को मंडल-राजनीति की धुरी बनाया था, उसने अब एक अनूठा मोड़ ले लिया है. ओबीसी समूह की जातियों के दायरे में कुर्मी समुदाय की अनूठी स्थिति, दलित समुदाय के बीच गोलबंदी का अभाव और अत्यंत पिछड़ी जाति (ईबीसी) का उभार के कारण बिहार की राजनीति का जातीय समाजशास्त्र हिन्दी पट्टी के शेष राज्यों से बड़े अलग तर्ज का है.
लेकिन राजनीति के जातीय समाजशास्त्र के ऐसे अटपटेपन के बावजूद इनसे एक सामान्य निष्कर्ष निकाला जा सकता है. बिहार का चुनाव इस बात की गवाही देता है कि हिन्दुत्व की राजनीति की बरतरी की काट करने के एतबार से पुरानी राजनीतिक रणनीतियां कत्तई कारगर नहीं रहीं. बिहार का चुनाव उस नये मॉडल की तरफ भी इशारा करता है जिसके सहारे मंडल की राजनीति के इस उत्तरवर्ती समय में अगड़ी जातियों का प्रभुत्व बदस्तूर कायम है. ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) ने बंगाल से लगते बिहार के मुसलमान बहुल इलाके में कामयाबी हासिल की जो बिहार के चुनाव में मौजूद मुस्लिम-विशेषी रुझान का संकेत है. मुसलमानों को धर्म के नाम पर अपनी तरफ गोलबंद करने का एक बना-बनाया सेकुलरी ढर्रा चला आ रहा था, लेकिन अब ये ढर्रा ढ़ीला पड़ चुका है. मुसलमान इस तर्ज के सेकुलरी ढर्रे से एकदम ही उकता चुके हैं.
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कोई राष्ट्रीय जनादेश नहीं
क्या बिहार विधानसभा के चुनाव से देश के राजनीतिक तापमान का कुछ पता चलता है? बहुत कम, न के बराबर ! वजह ये है कि अब राजनीतिक अखाड़े के रूप में राज्यों की राजनीति प्रमुख नहीं रही. एनडीए ने 2019 के चुनाव में बिहार में एक को छोड़ बाकी सारी ही सीटें झटक ली थीं और उसने 53.25 प्रतिशत का वोट शेयर हासिल किया था. एनडीए बेशक बिहार में चुनाव जीत गया है लेकिन उसका वोट शेयर गिरकर 37.98 प्रतिशत पर चला आया है यानि महागठबंधन के वोट शेयर से बस कुछ प्रतिशतांक ऊपर. यों समझिए कि एनडीए हार की कगार पर आकर चुनाव जीता है. तो क्या बिहार के चुनाव में एनडीए के ऐसे हश्र से ये मानें कि नरेन्द्र मोदी की सरकार लोगों के चित्त से उतार पर है?
मुझे पता है, अगर महागठबंधन बहुमत के आंकड़े को पार कर गया होता तो मेरे ज्यादातर दोस्त झटपट यही निष्कर्ष निकालते. लेकिन, इस निष्कर्ष की हिमायत में सबूत खोजने निकलो तो निराशा हाथ लगेगी. बिहार के चुनाव ने इस बात को पुष्ट किया है कि मोदी की लोकप्रियता बरकरार है. लेकिन, ये चुनाव यह भी बताता है कि मोदी ही लोकप्रियता में अब प्रचंडता का वह वेग न रहा कि वे चुनाव को एकदम ही एकतरफा तरीके से अपनी तरफ झुका लें. एनडीए ने बेशक बहुमत का आंकड़ा पार किया है लेकिन ये मोदी की बदौलत नहीं हुआ. राम मंदिर, धारा 370 या फिर सुशांत सिंह राजपूत सरीखे मुद्दे चुनाव में कहीं नहीं थे. सच्चाई ये है कि राज्यों की राजनीति राष्ट्रीय स्तर की राजनीति से एकदम अलग हो चली है. टेलीविजनी पर्दे के एंकर तो आज भी अपनी आदत से मजबूर हर राज्य के चुनाव परिणाम के भीतर राष्ट्रीय राजनीति के रुझान ढूंढ़ने लगते हैं लेकिन जहां तक मतदाता का सवाल है, उसने राष्ट्रीय राजनीति और राज्य की राजनीति के बीच फर्क करके अलग-अलग स्तर पर अपनी पसंद जाहिर करने का चलन अपना लिया है.
चुनाव राजनीति का आईना नहीं रहे
इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि अभी के वक्त में चुनाव किस हद तक राजनीति की रीत-नीत बता पा रहे हैं? भारत में चुनाव लोकतंत्र का महापर्व कहलाते आये हैं. चुनावों को राष्ट्रीय राजनीतिक जीवन का सबसे घटनापूर्ण दायरा माना जाता रहा. लोगों की मनोदशा जाननी हो, सार्वजनिक नीतियों का निर्माण करना हो, सामाजिक समीकरण साधने हों और राष्ट्र की समवेत यात्रा में नये सिरे और नयी राह तलाशनी हो तो ये सारी चीजों का अता-पता चुनावों से चल जाया करता था. भारत के चुनावों की तुलना मैं अक्सर एक बड़े और भीड़ भरे पुल से करते आया हूं. इस पुल पर लोगों का हुजूम बहुत ज्यादा है क्योंकि लोकतंत्र की बाकी संस्थाओं को लोगों की अपेक्षाओं का जो बोझ उठाना है, वह बोझ भी यहां चुनाव के कंधे पर ही टिका होता है. भारत में लोकतंत्र को जिंदा रखने के चंद कारगर साधनों में नाम शुमार था चुनाव का.
लेकिन अब मामला ऐसा न रहा. अभी का वक्त चुनावी अधिनायकवाद का है, चुनाव की रीत-नीत में निर्णायक बदलाव आया है. न्यायपालिका समेत अन्य संस्थागत संवैधानिक प्राधिकरण मोदी युग की मांग के अनुरूप अपने को ढालने में लगे हैं. संसद सरीखी संस्था अब एक औपचारिकता मात्र बनकर रह गई है. मुख्यधारा की मीडिया पिछलग्गू होने का धर्म निर्वाह करने में लगी है और अभी के वक्त में ये चलन और भी ज्यादा जोर पकड़ता दिख रहा है क्योंकि कोविड मुखी अर्थव्यवस्था में सबही सरकार के सामने ग्रहीता के भाव से खड़े हैं और एकमात्र दाता सरकार बनी हुई है.
विरोध-प्रदर्शन चाहे जिस ढर्रे का हो, अब बहुत महंगा हो चला है. इसके प्रमाण चाहिए तो याद कीजिए कि सीएए-विरोधी उभार को किस तरह राष्ट्रदोही साबित करने के अनुष्ठान रचे गये और ये भी याद कीजिए कि जो चंद लोग स्वतंत्र पत्रकारिता का धर्म निभा रहे हैं उनका क्या हश्र हो रहा है. माहौल ऐसा है कि साहस का खूब धनी कोई विरला ही पत्रकारिता के मैदान में उतरने का जोखिम उठाएगा.
ऐसे में राजनीतिक मुकाबले का एकमात्र वैध अखाड़ा बचा है चुनाव. और, मोदी सरकार स्थिति को इस टेक पर चलता रहने देने में खुश है, भले ही सत्ताधारी पार्टी को गाहे-बगाहे चुनावों में झटका लगे लेकिन चुनाव जब तक राजनीति के वास्तविक और बड़े मुद्दों से कटे हैं, तब तक चुनावों के जारी टेक पर चलते रहने से मोदी सरकार को एतराज नहीं.
खोखले होते चुनाव
चंद कदम पीछे लौटिए और बिहार के चुनाव पर फिर से गौर कीजिए. कोरोनावायरस से पैदा हालात की बदइंतजामी, हद दर्जे का सख्त लॉकडाऊन, अर्थव्यवस्था में परले दर्जे की गिरावट और 1962 के बाद के समय में हमारी जमीन छीनने की चीन की सबसे बड़ी हिमाकत के बाद के वक्त में हुआ ये पहला चुनाव था. बिहार ने इन तीनों का ही गहरा आघात झेला. झुंड के झुंड बिहार के आप्रवासी मजदूर घर वापसी को मजबूर हुए. सूबा बेरोजगारी का बड़ा संकट झेल रहा है. चीन से लगती सीमा पर सैनिकों की जो भिड़ंत हुई उससे बचा जा सकता था लेकिन जब भिड़ंत हो गई तो उसका बड़ा नुकसान भी बिहार ने उठाया. क्या आपको हाल में संपन्न हुए बिहार के चुनाव में इन मुद्दों की कोई अनुगूंज सुनायी दी? श्रम कानूनों और कृषि से संबंधित कानूनों में बड़े बदलाव के बाद के वक्त में हुआ ये पहला चुनाव था. लेकिन, क्या आपको इन मुद्दों पर चुनावी-चर्चा में कहीं बहस होती सुनायी दी? गरीबी, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव जैसे मसले बुनियादी संरचना के मसले हैं और इन गहरे मसलों को लोकतांत्रिक चुनाव में ठीक से आवाज देना, कारगर ढंग से उठा पाना मुमकिन नहीं होता. लेकिन, अब हम एक ऐसे दौर में है जहां कुछ मुद्दे एकदम ही आंखों के आगे हैं, रोज ही अपनी चुभन से अपना अहसास करा रहे हैं लेकिन ऐसे मुद्दे भी चुनावों में नहीं उठ पा रहे.
जो एक बार चुनाव राजनीतिक मायने से खाली हो जायें, करोड़ों लोगों की जिंदगी पर असर डालने वाले मसलों से उनका नाता-रिश्ता टूट जाये तो फिर ऐसे में चुनाव बस एक कर्मकांड मे तब्दील होकर रह जाते हैं. आप इस कर्मकांड के सहारे ये भ्रम पाले रह सकते हैं कि हां, देश में लोकतंत्र चल तो रहा है. हम घंटों इस एक बात पर बतियाते रह सकते हैं कि कैसे नीतीश कुमार का कद इस चुनाव में छोटा कर दिया गया, कांग्रेस को 70 सीटों पर लड़ने का मौका देना ठीक था या नहीं या ये कि जीतनराम मांझी और मुकेश साहनी को महागठबंधन से छिटकाना कहीं घातक तो सिद्ध नहीं हुआ… और, इसके तुरंत बाद हमारे मन में ये जानने की खुजली मचेगी कि आईपीएल के फाइनल में क्या हुआ…
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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