नई दिल्ली: राजनीति का यह आम दौर होता तो एक राज्य (असम) में अपनी सत्ता बचाए रखने वाली और जिस केंद्रशासित प्रदेश (पुडुचेरी) में अपना एक भी निर्वाचित विधायक न रहा हो वहां अपनी सरकार बनाने जा रही पार्टी जम कर जश्न मनाती. लेकिन रविवार को जो चुनाव नतीजे आए उनके बाद भाजपा खेमे में मानो मातम ही छा गया.
वैसे भी, केरल और तमिलनाडु में वह कोई चमत्कार कर डालने की उम्मीद नहीं कर रही थी. लेकिन पश्चिम बंगाल को तो वह बेहद महत्वपूर्ण मान रही थी, भले ही 2016 में इस राज्य की 294 विधानसभा सीटों में से मात्र तीन सीटें हासिल करने वाली पार्टी के लिए इसे जीत पाना कितना भी महत्वाकांक्षी क्यों न लग रहा हो.
2013 से ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के काफी हद तक सफल अभियान पर निकले नरेंद्र मोदी और अमित शाह आठ साल बाद क्षेत्रीय दलों का सफाया करके ‘भाजपामय भारत’ का लक्ष्य हासिल करने की राह पर चल पड़े, तो पश्चिम बंगाल इस राह में मील का सबसे बड़ा पत्थर साबित होने वाला था. यही वजह है कि रविवार को उन्हें जो शिकस्त मिली वह इन आठ वर्षों की सबसे बड़ी है. इसने साबित कर दिया कि मोदी की लोकप्रियता और शाह की कथित बहुचर्चित ‘चाणक्य नीति’ का मेल कांग्रेस के लिए तो घातक है लेकिन राजनीतिक कौशल और लड़ने का माद्दा रखने वाले क्षेत्रीय क्षत्रप को परास्त करने के लिए नाकाफी है.
अरविंद केजरीवाल दिल्ली में यह पहले ही साबित कर चुके थे, मगर वह रणभूमि इतनी छोटी थी कि उसे खास तवज्जो नहीं दी गई. 2015 में बिहार में बना महागठबंधन या महाराष्ट्र में चुनाव के बाद बना तीन दलों का गठजोड़ भी पूरी तस्वीर नहीं पेश करता था.
असली जंग तो पश्चिम बंगाल में लड़नी थी, जहां हिम्मती क्षेत्रीय नेता ममता बनर्जी भाजपा की आजमाई हुई चालों के आगे कमजोर दिख रही थीं. इसलिए उन्हें सीधे मोदी से भिड़ा दिया गया और इसे परिवारवादी राजनीति को आगे बढ़ाने वाली नेता बनाम त्यागी संत की टक्कर के रूप में पेश किया गया. इसे ममता की प्रशासनिक विफलताओं बनाम विकास के मोदी के सपनों और शासन के उनके मॉडल के बीच का मुकाबला बताया गया. इसे तृणमूल कांग्रेस की कथित अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नीति और भाजपा की बहुसंख्यकवादी छवि का मुकाबला बताया गया. ऐसी रणनीति कांग्रेस के खिलाफ तो आश्चर्यजनक रूप से सफल रही, मगर ममता के खिलाफ भी अगर यह सफल हुई होती तो इससे क्षेत्रीय दिग्गजों के पतन की शुरुआत हो गई होती.
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अब क्या क्षत्रप एकजुट होंगे?
सवाल यह है कि रविवार के चुनाव नतीजों से राष्ट्रीय राजनीति में क्या बदलाव आने वाला है? सबसे पहली बात तो यह है कि इससे क्षेत्रीय नेताओं के हौसले मजबूत होंगे. भाजपा से मुकाबला करने में वे अब तक काफी सहमे रहे हैं. इसलिए, 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव-मायावती-अजित सिंह का गठबंधन जब नाकाम रहा तो वे सब अलग-अलग होकर अपने-अपने खोल में छिप गए और भाजपा से पंगा न लेने का फैसला कर लिया. मायावती ने घोषणा कर दी कि 2022 का विधानसभा चुनाव वे अकेले ही लड़ेंगी.
कर्नाटक में एच.डी. कुमारस्वामी की सरकार गिर गई, तो गौड़ा परिवार ने भाजपा से दोस्ती कर लेने का फैसला कर लिया. ओडिशा में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की चुनौती को नाकाम तो कर दिया मगर वह अभी भी खतरा बनी हुई है इसलिए उन्होंने भगवा दल को खुश रखने का ही फैसला कर लिया है. यही हाल आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी, तेलंगाना के के. चंद्रशेखर राव जैसे क्षेत्रीय नेताओं का है.
लेकिन पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे के बाद यह सब बदल सकता है, ये सभी क्षेत्रीय नेता ममता बनर्जी के इर्दगिर्द एकजुट हो सकते हैं. कांग्रेस के राहुल गांधी तो उन्हें भाजपा का मुकाबला करने के लिए प्रेरित नहीं कर पाए लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी पर ममता की जीत उन्हें अपने-अपने खोल से बाहर निकलकर अपने रणक्षेत्र में और राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा से लोहा लेने के लिए उत्साहित कर सकती है.
और कांग्रेस को भी, भले ही हिचकते हुए ही सही, उनके साथ आने में ज्यादा वक्त नहीं लग सकता है. राहुल की कांग्रेस के खिलाफ भाजपा की सफलता दर तो सिद्ध हो चुकी है लेकिन क्षेत्रीय दलों के खिलाफ उसकी सफलता दर कोई उल्लेखनीय नहीं रही है. इसलिए भाजपा के लिए यह चिंता का कारण बन सकती है. 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के पतन का करीबी चश्मदीद रहा कोई भी नेता क्षेत्रीय दलों की अनदेखी नहीं कर सकता.
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उपेक्षित भाजपा नेता भी सिर उठा सकते हैं
पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे का एक असर भाजपा के अंदर भी देखा जा सकता है. 2013 के बाद से, मोदी की शह पर शाह ने पार्टी को अपनी मुट्ठी में जकड़ रखा है और पिछले साल जे.पी. नड्डा के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद भी शाह ही पार्टी को चला रहे हैं. इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि इस जोड़ी को खुश न रख पाने वाले पार्टी नेता हाशिये पर डाले जाने लगे. इनमें लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे निष्प्रभावी हो चुके दिग्गज ही नहीं बल्कि जनाधार वाली वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसे नेता भी शामिल हैं. यहां तक कि राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी सरीखे पूर्व पार्टी अध्यक्ष भी संभल गए और कोई सलाह देने से परहेज करने लगे.
रविवार को मिले झटके ने मोदी की लोकप्रियता और शाह की चुनावी रणनीति की सीमाओं को भले उजागर कर दिया हो, मगर सत्ता दल में कोई बगावत फूट पड़ने की संभावना नहीं है. भाजपाई नेताओं को मालूम है कि विधानसभा चुनावों में मोदी चाहे जितने निष्प्रभावी साबित होते रहे हों, 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए मोदी ही उनकी एकमात्र उम्मीद हैं. फिर भी, हाशिये पर पड़े पार्टी नेताओं की ओर से दबाव बनाए जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.
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अगले साल यूपी और दूसरे राज्यों के चुनाव
पश्चिम बंगाल में भारी नाकामी का तीसरा बड़ा असर अगले साल फरवरी-मार्च में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, गुजरात और मणिपुर के विधानसभा चुनावों पर दिख सकता है. गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव 2022 के अंत में होने हैं. कोविड संकट से निपटने में केंद्र तथा भाजपा शासित राज्यों की सरकारों— कांग्रेस शासित पंजाब को छोड़कर— की लड़खड़ाहट ने उनकी साख पर बड़ा सवाल तो खड़ा कर ही दिया है, पश्चिम बंगाल के बाद भाजपा का जोश भी ठंडा पड़ सकता है.
एक तथ्य यह भी है कि भाजपा चुनावी जंग में प्रायः ख्याली विजेता के रूप में उतरती रही है, विपक्षी खेमे के नेता सामूहिक रूप से भाजपा में शामिल होते हैं और भाजपा के कार्यकर्ता जमीन पर एजेंडा तय किया करते हैं. मोदी-शाह जोड़ी की अजेयता का आभामंडल माहौल को और मजबूत बना देता रहा है. लेकिन चुनावों का अगला दौर जब अगले साल शुरू होने को है, तब ऐसा लगता है कि भाजपा के हाथ से यह सब निकल गया है.
तो अब मोदी-शाह जोड़ी के लिए क्या विकल्प बचा है? अगर वे रविवार के चुनाव नतीजों से कोई सबक लेते हैं तो राष्ट्रीय राजनीति में भारी बदलाव आ सकता है. भाजपा की कामयाबी में मोदी की लोकप्रियता का हाथ तो रहा ही है, हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति को भी इसके लिए बड़ा श्रेय दिया जाता रहा है. लेकिन ऐसा लगता है कि यह उन राज्यों में कारगर नहीं हो पाता जिनकी लगाम मजबूत क्षेत्रीय नेता के हाथ में हो. वैसे भी, जानी-पहचानी किस्म की इस रणनीति को भी ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं की ओर से लाल झंडी दिखाई जाने लगी है. सीबीआई, ईडी, आयकर विभाग और नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो तक तमाम एजेंसियां भी अपना चुनावी प्रभाव और साख खोती दिख रही हैं.
अगर मोदी और शाह अपनी राजनीतिक तथा चुनावी रणनीति की गंभीरता से समीक्षा करके प्रधानमंत्री की छवि ‘विकास पुरुष ’ के रूप में स्थापित करने की कोशिश करते हैं, तो भारतीय राजनीति में बड़ा परिवर्तन आ सकता है. फिलहाल तो उनकी पार्टी और सरकार को पारस्परिक राजनीतिक दोषारोपण से परहेज करते हुए कोविड के संकट को दूर करने पर ही पूरा ध्यान देने की जरूरत है.
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