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Monday, 18 November, 2024
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आजम खान ‘हेट स्पीच’ से बरी होने के बाद विधायक के रूप में अयोग्यता के लिए ‘कानूनी उपाय तलाश रहे हैं’

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (एमपी/एमएलए कोर्ट) अमित वीर सिंह ने बुधवार को 2019 के अभद्र भाषा मामले में आजम खान को दोषी ठहराने के निचली अदालत के 2022 के फैसले को 'अवैध' बताया.

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लखनऊ: समाजवादी पार्टी (सपा) के वरिष्ठ नेता आजम खान ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया जिससे धर्म, मूल, जन्म स्थान, भाषा आदि के आधार पर दो समुदायों के बीच दुश्मनी भड़के या सांप्रदायिक सद्भाव पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े. यह रामपुर के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने इस सप्ताह की शुरुआत में पूर्व सांसद को 2019 के अभद्र भाषा के मामले में बरी करते हुए कहा.

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (एमपी/एमएलए कोर्ट) अमित वीर सिंह ने निचली अदालत के 2022 के फैसले को “अवैध” और “गैर-स्वीकार्य साक्ष्य” पर आधारित बताया.

उन्होंने कहा कि कथित घटना के समय रामपुर में तैनात दो सरकारी अधिकारियों, जिन्होंने अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में गवाही दी, ने तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) आंजनेय कुमार सिंह और आजम खान के बीच विवाद को स्वीकार किया. उन्होंने कहा कि डीएम ने एक अधिकारी पर दबाव बनाकर खान के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी.

अदालत ने बुधवार को जारी अपने आदेश में कहा कि निचली अदालत ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी (कानूनी कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकार्यता के लिए आवश्यकताओं को निर्दिष्ट करता है) पर विचार नहीं किया था. इसने सुप्रीम कोर्ट में पहले के दो मामलों का हवाला दिया जहां बाद वाले में कहा गया कि कोई भी इलेक्ट्रॉनिक सबूत – सीडी, वीसीडी, चिप्स में संगृहीत – अदालत में स्वीकार्य होने के लिए साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65 बी के तहत एक प्रमाण पत्र होना चाहिए.

इसने आगे कहा कि अभियोजन पक्ष ने प्रासंगिक अधिनियम के तहत महत्वपूर्ण इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य स्थापित करने का प्रयास नहीं किया.

इसमें कहा गया, “प्राथमिकी (प्रथम सूचना रिपोर्ट) भाषण के कुछ हिस्सों को काटकर और एडिट करके दर्ज की गई थी, न कि भाषण के पूरे ट्रांसक्रिप्ट को. इस वजह से भाषण के कुछ अंशों को जोड़कर अभियुक्त के खिलाफ अपराध के लिए कोई सार नहीं हो सकता है और केवल इस तथ्य के कारण अभियोजन पक्ष के मामले के अभियोजन का कोई आधार नहीं है.”

आज़म पर अप्रैल 2019 में आईपीसी की धारा 153 (यह जानते हुए भी उकसाना कि दंगे हो सकते हैं), 505 (1) (बी) और जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 125 (दो वर्गों के बीच में दुश्मनी को प्रोत्साहन देना) के तहत मामला दर्ज किया गया था. इसका आधार एक भाषण था, जहां उन्होंने कथित तौर पर सीएम योगी आदित्यनाथ, तत्कालीन रामपुर के डीएम आंजनेय कुमार सिंह और पीएम नरेंद्र मोदी का उल्लेख किया था, जो 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान वायरल हुआ था.

पिछले साल अक्टूबर में एमपी/एमएलए कोर्ट ने सपा के दिग्गज नेता को दोषी ठहराने के बाद तीन साल कैद की सजा सुनाई थी. सजा के एक दिन बाद, यूपी विधानसभा सचिवालय ने खान को अयोग्य घोषित कर दिया और रामपुर विधानसभा सीट को खाली घोषित कर दिया. इस सीट पर 2022 में उपचुनाव हुआ था और इसमें बीजेपी के आकाश सक्सेना ने जीत हासिल की थी.

खान को 2013 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के आधार पर अयोग्य घोषित किया गया था कि कम से कम दो साल के कारावास की सजा पाए दोषी विधायक तत्काल प्रभाव से सदन की सदस्यता खो देंगे.

खान के बरी होने के बाद, उनकी कानूनी टीम इस बात की खोज कर रही है कि क्या नेता के लिए अपनी विधानसभा सदस्यता को पुनः प्राप्त करने के लिए कोई कानूनी सहारा उपलब्ध है.

दिप्रिंट से बात करते हुए, उनके वकील विनोद शर्मा ने कहा कि ट्रायल कोर्ट की भूमिका सजा या दोषमुक्ति तक सीमित थी, और यह कि अयोग्यता सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आधारित थी. उन्होंने कहा, “यूपी विधानसभा की सदस्यता के बारे में चुनाव आयोग को फैसला करना है.”

इस सवाल पर कि क्या खान अपनी सीट पर दोबारा दावा कर सकते हैं, कानूनी विशेषज्ञों ने इस पर ‘न’ में जवाब दिया. सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने समझाया कि चूंकि खान की अयोग्यता के बाद चुनाव हुए थे और विधानसभा में उस निर्वाचन क्षेत्र का एक प्रतिनिधि है, इसलिए नेता अपनी सीट पर दोबारा दावा नहीं कर सकता है.

“नवनिर्वाचित सदस्य का चुनाव केवल एक चुनाव याचिका के माध्यम से रद्द किया जा सकता है. इसलिए खान के लिए उस सीट को वापस मांगना कानूनी तौर पर संभव नहीं है.’

‘आरोपी का गलत इरादा साबित नहीं हुआ’

एमपी/एमएलए कोर्ट ने बुधवार को पाया कि एक विस्तृत जांच से पता चला है कि इस मामले में आरोपी के गलत इरादे को स्थापित नहीं किया जा सका.

इसने निचली अदालत के फैसले के बारे में कहा कि “जो फैसला दिया गया है, वह मेन्स रिया (mens rea) यानी  कि मानसिक स्थिति और अधिनियम के पीछे की मंशा के बारे में बिना किसी निष्कर्ष के दिया गया है, यहां तक कि विस्तृत जांच से यह भी पता चलता है कि अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्तों का कोई गलत इरादा नहीं होना स्थापित किया जा सकता है”.

उन्होंने कहा, “विस्तृत जांच ने यह भी स्थापित किया है कि आरोपी ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया जो दो समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा कर सकता है … और न ही भाषण में ऐसा कुछ शामिल है जो जनता के बीच किसी भी तरह का डर पैदा करने की क्षमता रखता हो जो उसे राज्य या लोगों के खिलाफ अपराध के लिए उकसा सकता है.“

अदालत ने कहा कि निचली अदालत ने तथ्यों की जांच किए बिना और बिना कोई कारण बताए अपना निष्कर्ष निकाला, जो “बिल्कुल अवैध” था.

घटना के समय रामपुर में तैनात दो सरकारी अधिकारियों की गवाही पर, अदालत ने कहा कि उनमें से एक ने तत्कालीन डीएम कुमार और खान के बीच विवाद के बारे में पूर्व सूचना होने की बात स्वीकार की थी. दूसरे अधिकारी ने कहा, अदालत ने गवाही दी थी कि डीएम, जो जिला चुनाव अधिकारी भी थे, ने उन पर खान के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने का दबाव डाला था.

अपनी गवाही में, शाहाबाद ब्लॉक के तत्कालीन सहायक विकास अधिकारी (एडीओ), पंचायत, चंद्रपाल (सिर्फ पहले नाम से जाना जाता है), ने अदालत को बताया था, “आजम खान, उनकी पत्नी तज़ीम फातमा, बेटे अब्दुल्ला आज़म और समाजवादी पार्टी के अन्य प्रतिनिधियों ने रामपुर के तत्कालीन डीएम आंजनेय कुमार के खिलाफ चुनाव आयोग को कई शिकायतें दीं. यह सही है कि कुमार और आजम खां के बीच इन्हीं शिकायतों को लेकर विवाद हुआ था.’

गवाही देने वाले अन्य अधिकारी शाहाबाद के एडीओ (कृषि संरक्षण) अनिल कुमार चौहान थे.

अदालत ने कहा कि तत्कालीन डीएम “दीवानी या आपराधिक कार्रवाई कर सकते थे, लेकिन ऐसा करने के बजाय, एक प्राथमिकी दर्ज की गई … भले ही आईपीसी की धारा 153 ए, 505 (1) (बी) और जनप्रतिनिधि अधिनियम (एसआईसी) की धारा 125 के तहत अपराध का कोई सब्सटेंस नहीं है.”

अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत कोई भी स्वीकार्य साक्ष्य प्राथमिकी में उल्लिखित तथ्यों को स्थापित नहीं कर सकता है. इसमें कहा गया, “साक्ष्य गैर-स्वीकार्य साक्ष्य पर आधारित है,”

आगे का रास्ता?

कुछ मामलों में खान का प्रतिनिधित्व करने वाले एक वरिष्ठ अधिवक्ता जुबैर अहमद ने फोन पर दिप्रिंट को बताया कि उनके मुवक्किल उनके लिए उपलब्ध कानूनी उपायों की समीक्षा कर रहे हैं.

हालांकि, अन्य कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि जहां तक खान की विधानसभा सदस्यता बहाल करने का संबंध है, ऐसा बहुत कम किया जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट में प्रेक्टिस करने वाले एक वरिष्ठ अधिवक्ता कुमार मिहिर ने कहा, “एक और चुनाव (उपचुनाव) हुआ है और अपील के लंबित रहने के बावजूद उनका निहित अधिकार छीन लिया गया है, लेकिन इस बात की बहुत कम संभावना है कि कोई अदालत अब उस चुनाव में हस्तक्षेप करेगी.”

उन्होंने कहा, “वह (खान) एक रिट याचिका दायर कर सकते हैं कि चुनाव आयोग बाद के चुनाव को अमान्य घोषित करे और स्पीकर उन्हें सही विधायक के रूप में मान्यता दे लेकिन अदालतें आमतौर पर स्पीकर के साथ हस्तक्षेप करने से हिचकती हैं. फिर नए विधायक की बात को भी सुनना होगा.

सर्वोच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता ए.पी. सिंह ने कहा कि उन्हें ऐसा कोई रिपोर्ट करने योग्य निर्णय या मिसाल याद नहीं है जहां ऐसे मामले में सदस्यता बहाल की गई हो.

लोक प्रशासन और प्रशासन के क्षेत्र में काम करने वाली लखनऊ स्थित संस्था लोक प्रहरी के महासचिव एस.एन. शुक्ला ने कहा कि चूंकि खान अभी भी एक अन्य मामले में दोषी हैं, इसलिए वह अयोग्य बने हुए हैं. लोक प्रहरी ने शीर्ष अदालत में कई जनहित याचिकाएं दायर की हैं जिनसे देश में चुनाव सुधार हुए हैं.

शुक्ल ने कहा, “अगर वह किसी अन्य दोषसिद्धि का सामना नहीं कर रहे होते, तो इस मामले में उनके बरी होने के परिणामस्वरूप उन्हें खोई हुई सीट को पुनः प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं मिलता. ऐसा इसलिए है क्योंकि उस निर्वाचन क्षेत्र से एक निर्वाचित प्रतिनिधि पहले से ही सदन में है,”. उन्होंने कहा कि किसी अन्य सजा के अभाव में खान के लिए एकमात्र लाभ यह है कि वह चुनाव लड़ने में सक्षम होंगे.

शुक्ला ने कहा, “दोष का परिणाम तत्काल अयोग्यता है. इसके अलावा, यह एक सजायाफ्ता नेता को सजा की तारीख से छह साल के लिए चुनाव लड़ने पर भी रोक लगाता है. बरी होने के बाद, नेता अब चुनाव लड़ने के योग्य होंगे. लेकिन यह तभी हो सकता है जब साथ ही वह दूसरे मामले में भी बरी हो जाए – जिसमें वह दोषी है.”

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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