जिसे मैं ‘दीवार पर लिखी इबारतें’ कहता हूं वह दरअसल उस राज्य की जमीनी हकीकत का जायजा देने वाली सीरीज है, जिस राज्य में चुनाव होने वाला हो. लेकिन पांच राज्यों के चुनावी अभियान के अंत में जो आंकड़े सामने आए हैं वे हमें दीवारों पर लिखी इबारतों का एक अलग, अधिक बेबाक, और अधिक पारंपरिक जायजा देते हैं. मैं यहां उनके सात रूप प्रस्तुत कर रहा हूं.
• भारतीय राजनीति में 2012 में नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल के रूप में दो राजनीतिक हस्तियां अवतरित हुईं. दोनों ने अपनी संभावनाओं को सही साबित किया. गुजरात में लगातार तीन बार सत्ता हासिल करने वाले मोदी 2014 में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार के रूप में उभरे.
• केजरीवाल एक नयी पार्टी शुरू करके एक अ-राजनीतिक एक्टिविस्ट से एक संपूर्ण राजनीतिक नेता में तब्दील हो गए. अब करीब एक दशक बाद मोदी एक ऐसी प्रकांड हस्ती बन गए हैं जैसी भारतीय राजनीति ने कभी नहीं देखी थी. यह मैं काफी सोच-विचार करने के बाद कह रहा हूं. नेहरू जब प्रधानमंत्री थे तब उनके लिए कोई चुनौती नहीं थी, इंदिरा गांधी को उनकी बेटी होने के कारण शुरू से ही बढ़त हासिल थी. मोदी बिना किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले, अपने बूते उभरे नेता हैं और आज देश के पर्याप्त हिस्से में उनका मुक़ाबला करने वाला कोई नहीं है. जाहिर है, वे निर्विवाद रूप से राष्ट्रीय नेता हैं. उत्तर प्रदेश में दोबारा भारी बहुमत ने इस इबारत को दीवारों पर गहराई से उकेर दिया है.
केजरीवाल ने बस एक ऐसे विचार के साथ अपनी शुरुआत की थी, जो अ-राजनीतिक था, यहां तक कि राजनीति विरोधी था. जब उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी शुरू की थी तब उसके प्रति एक संशय का भाव था. आखिर वे चाहते क्या हैं? उनकी विचारधारा क्या है? क्या वे भारतीय राजनीति के प्रवेशद्वार पर खड़ी बाड़ों को लांघ पाएंगे? एक दशक बाद, आज वे यह सब कर चुके हैं. उनकी राजनीतिक विचारधारा वास्तव में वही है जो एक्टिविस्ट के रूप में उनका नारा था- हमारी राजनीति सोख लेने वाली है. इसलिए, वे मूलतः (पारंपरिक) राजनीति के विरोधी हैं.
बदलाव यह आया है कि उनके लिए विकल्प अब वह क्रुद्ध, राजनीतिक रूप से दर्दनाशक एक्टिविज़्म नहीं है बल्कि उनकी अपनी तरह की राजनीति है. भाजपा का मुक़ाबला करने के लिए जन-कल्याणवाद और कुशल डेलीवरी व्यवस्था, आरएसएस से मुक़ाबले के लिए हिंदू धार्मिकता, मोदी से ज्यादा उग्र राष्ट्रवाद, और गांधी, नेहरू या सावरकर की जगह सरदार भगत सिंह और आंबेडकर.
भारतीय राजनीति में ये दोनों ऐसी हस्तियां हैं जिनके नाम पर कम से कम ध्रुवीकरण होता है. आप 24 घंटे नेहरू को कोसते रहिए, गांधी को अक्सर गालियां देते रहिए और गोडसे को हीरो बताते रहिए. अब आप आंबेडकर और भगत सिंह के आगे क्रमशः गांधी और सावरकर को खड़ा कर दीजिए, अप समझ जाएंगे कि पलड़ा किसका भारी होगा. अपनी राजनीति करने में केजरीवाल कितने तेज हैं? उन्हें या उनके साथियों को शाहीन बाग पहुंचने या दिल्ली दंगों के दौरान अपनी मौजूदगी जताने के लिए किसी को उन्हें नींद से जगाना नहीं पड़ा. दिल्ली और पंजाब के बाद वे कांग्रेस वोट को सोखने के लिए इस साल के अंत तक गुजरात में कदम रख चुके होंगे. वहां मुस्लिम मतदाता उन्हें वोट दे सकते हैं.
• 1950 में गणतंत्र बनने के बाद 60 साल तक हमारी राजनीति कांग्रेस और समाजवादी तथा धर्मनिरपेक्ष राज्य की उसकी परिकल्पना के इर्द-गिर्द सिमटी रही. आज वह दौर पूरी तरह खत्म हो चुका है. अब हम एक नये, भाजपा/आरएसएस/हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के दौर में गले तक डूब चुके हैं. हिंदुत्व की जगह हिंदू राष्ट्रवाद को सोच-समझकर तरजीह दी गई है. धर्म का अपना नशा है लेकिन धार्मिक परिभाषा वाले नये राष्ट्रवाद में जबरदस्त आकर्षण है.
आज अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा के सभी प्रतिद्वंद्वी नये कॉरिडोर- जिसे मैं भी पसंद करता हूं- से होकर काशी विश्वनाथ मंदिर जा रहे हैं तो धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की नयी परिभाषा उभर रही है. हर कोई रास्ते पर आ गया है. आज हमारे पास एक नया राष्ट्रवाद है, एक नयी धर्मनिरपेक्षता है, और एक नया उभरता समाजवाद है जो कार्यकुशल, भ्रष्टाचार मुक्त जन-कल्याणवाद के रूप में पुनःपरिभाषित हो रहा है.
• मुझे यह कहने का लोभ हो रहा है कि दीवारों पर लिखी अगली इबारत दो बड़ी राजनीतिक पार्टियों का समाधि-लेख होगी. लेकिन सावधानी बरतते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि ये दोनों अब वेंटिलेटर पर चले गई हैं. कांग्रेस अभी भी ढाई राज्यों (राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र/झारखंड) में सत्ता में है और कुछ संसाधन तक उसकी पहुंच है. लेकिन जिस कुशलता से यह अपने ही घर को आग लगाती रही है उसे देखते हुए आप सोच सकते हैं कि राजस्थान कब तक इसके हाथ में रहेगा. कांग्रेस के लिए भस्मासुर उसके पीछे-पीछे चल रहा है और वह ‘आप’ है, भाजपा नहीं. गुजरात में इसकी अगली परीक्षा हो जाएगी.
अधिक गंभीर और अधिक चुस्त नेतृत्व कांग्रेस को अभी भी उबार सकता है, हालांकि इसकी संभावना दिन-ब-दिन घटती जा रही है क्योंकि वह अपने वोट भाजपा के हाथों नहीं बल्कि भाजपा विरोधी और गैर-भाजपा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के हाथों गंवा रही है.
इनमें बंगाल की ममता, आंध्र के जगन, महाराष्ट्र की एनसीपी, और दिल्ली तथा पंजाब की ‘आप’ शामिल हैं. हाल में इसने जिन राज्यों में अपने वोट भाजपा के हाथों गंवाए हैं वे हैं त्रिपुरा और तेलंगाना. अब सवाल यह है कि तमिलनाडु में डीएमके कब तक टूटे डिब्बे को अपने साथ खींचती रहेगी.
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• बसपा की हालत अगर और भी नाजुक दिखती है तो इसकी वजह यह है कि इस चुनाव ने यूपी की सियासत में एक बुनियादी बदलाव की पुष्टि कर दी है. साढ़े तीन दलों (भाजपा, सपा, बसपा, कांग्रेस) की होड़ अब सपा बनाम भाजपा की सीधी टक्कर में बदल गई है. अब कोई भी एक-दो जातियों के साथ मुसलमानों के वोट जोड़कर सत्ता नहीं हासिल कर सकता, जैसा कि सपा या बसपा पहले किया करती थी. इन दो में से बसपा आज उस गर्त में पहुंच गई है जहां से निकल पाना लगभग असंभव है. खासकर इसलिए कि मुस्लिम मतदाता अब उस पर शायद ही भरोसा करेंगे. कांशीराम ने जो चमत्कारी प्रयोग किया था उसे उनके ही चुने गए उत्तराधिकारी ने हलाल कर दिया है.
• भारत की सबसे खुली और औपचारिक रूप से धार्मिक पार्टी शिरोमणि अकाली दल के सफाये के नतीजों का असर चुनावी राजनीति से इतर भी देखा जा सकता है. धर्म या पंथ के नाम पर राजनीतिक सत्ता हासिल करने की अनूठी परंपरा, गुरुद्वारा और राज्यसत्ता का महिमा मंडित मेल खत्म नहीं होगा. तमाम राजनीतिक ताकत खत्म होने के परिणाम कई जटिल रूपों में सामने आ सकते हैं. पंजाब में केवल राजनीतिक परिवर्तन नहीं हुआ है. जिस राज्य में अपवित्रीकरण के संदेह मात्र पर ही किसी की हत्या की जाती हो और पुलिस कुछ करने की हिम्मत न कर पाती हो वहां क्या आप आस्था को राजनीति से पूरी तरह अलग रख सकते हैं? क्या ‘आप’ शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति का चुनाव जीत सकती है? और तब वह क्या कर सकेगी? मुझे मालूम है कि हम हिंदी पट्टी की राजनीतिक की जटिलताओं में उलझ रहे हैं जिससे आपको ऊब पैदा हो सकती है. चुनाव की धूल बैठ जाने के बाद आप इस बारे में और बहुत कुछ सुन सकते हैं.
• और अंत में, भाजपा में एक और सितारा चमकने लगा है. योगी आदित्यनाथ इसके दूसरे सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे हैं. ‘निचला आधार’ उनकी पूजा करता है. भाजपा में सुपर तेज राजनीतिक दिमाग वाले कई नेता हैं. लेकिन किसी में यह बात नहीं है, न ही योगी वाला करिश्मा और निजी महत्वाकांक्षा है. इसके अलावा, राहुल और केजरीवाल से भी उम्र में छोटे होने के कारण वे देश के सबसे युवा बड़े नेता हैं इसलिए उनके पास समय काफी है. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में थोड़ी घबराहट स्वाभाविक है. अगर आप राष्ट्रीय राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं तो योगी की चालों पर नज़र बनाए रखिए.
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