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Monday, 3 November, 2025
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अनंत सिंह बनाम सूरज भान: लालू-नीतीश की जंग में ‘मोकामा के बाहुबली’ अब भी क्यों हैं प्रासंगिक

अपराध और राजनीति का गढ़ रहा मोकामा आज भी बंदूक और सत्ता की भाषा में ही बोलता है. हाल ही में जन सुराज समर्थक की हत्या ने इस खूनी इतिहास में नया अध्याय जोड़ दिया है.

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मोकामा (बिहार): एक बुज़ुर्ग व्यक्ति अपनी एसयूवी कार से उतर रहा है, समर्थकों की भीड़ की ओर हाथ हिलाकर कहता है — “सब माई-बहिन के ज़रूरत पड़तै…हम बेटा बन के काम करब”.

बिहार विधानसभा चुनाव से एक हफ्ते पहले यह नज़ारा आम लग सकता है, मगर इसमें एक मोड़ है. जो व्यक्ति आज मनीकपुर गांव के लोगों के सामने हाथ जोड़ रहा है, वो कभी मोकामा की गलियों पर अपने बाहुबल से राज करता था. वो चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित है, पर रुकने वाला नहीं. इस बार वो अपनी पत्नी के लिए प्रचार कर रहा है, जो राजद (आरजेडी) उम्मीदवार के तौर पर उनके स्थान पर चुनाव मैदान में हैं.

सूरज भान सिंह (60) को 1992 के बेगूसराय हत्याकांड में 2008 में उम्रकैद की सज़ा हुई थी. अब उनकी पत्नी वीना देवी ही मोकामा में उनकी राजनीतिक विरासत की एकमात्र कड़ी हैं.

वीना देवी का मुकाबला मोकामा के ही दूसरे बाहुबली अनंत सिंह (58) से है, जो जेडीयू के उम्मीदवार हैं और इस वक्त जन सुराज समर्थक दुलारचंद यादव की हत्या के मामले में विवादों में घिरे हुए हैं.

सूरज भान और अनंत सिंह—दोनों भूमिहार समुदाय से आते हैं और लगभग दो दशक से आमने-सामने नहीं हुए थे. यह चुनाव उनके बीच वर्षों बाद एक अप्रत्यक्ष टक्कर का संकेत देता है. 90 के दशक में दोनों ने गोलियों की राजनीति से निकलकर ‘मतदान की राजनीति’ का रास्ता अपनाया था—जो उस दौर में पूरे बिहार की प्रवृत्ति बन चुकी थी.

गंगा किनारे बसा ग्रामीण इलाका मोकामा, पटना से महज़ 70 किलोमीटर दूर है. अपराध और राजनीति की यह रक्तरंजित ज़मीन लंबे समय से नीतीश कुमार की जेडीयू और लालू प्रसाद यादव की राजद—दोनों के लिए अपरिहार्य रही है. यहां पत्थरबाज़ी और गोलियां चलना राजनीतिक मुकाबले का सामान्य हिस्सा है और अब दुलारचंद की हत्या ने इस हिंसक इतिहास में एक और पन्ना जोड़ दिया है.

पिछले गुरुवार, जन सुराज के कार्यकर्ता दुलारचंद यादव की मौत जेडीयू और प्रशांत किशोर की पार्टी के समर्थकों के बीच भिड़ंत में हो गई. पुलिस जांच में सामने आया कि जन सुराज उम्मीदवार पियूष प्रियदर्शी और जेडीयू के अनंत सिंह के काफ़िले में झड़प हुई, जिसके बाद पत्थरबाज़ी और गोलीबारी शुरू हो गई.

पटना एसएसपी कार्तिकेय शर्मा के अनुसार, दुलारचंद की मौत दिल और फेफड़ों में गोली लगने से हुई. उन्होंने बताया कि घटना के वक्त अनंत सिंह और उनके सहयोगी मौके पर मौजूद थे.

मोकामा में हिंसा का यह कोई पहला मामला नहीं है. सूरज भान और अनंत सिंह दोनों ने राजनीति में कदम रखने से पहले रंगदारी और हत्या जैसे अपराधों के जरिए अपना दबदबा बनाया था.

लेकिन अब मोकामा के लोग थक चुके हैं. नदवान निवासी अमलेश कुमार (52) ने कहा, “मोकामा और आस-पास के इलाके में अब चैन से जीने का कोई तरीका नहीं है. हर कुछ साल में हत्या, गोलीबारी—अब बस शांति चाहिए. बाकी इलाकों ने आगे बढ़ना सीख लिया, लेकिन मोकामा अब भी हिंसा के शिकंजे में फंसा है.”

सूरज भान, अनंत सिंह और उनकी साझा कड़ी

रामनंदन सिंह मोकामा के एक स्थानीय दुकान में मामूली सैलरी पर काम करते थे. इतनी कमाई से उनके बड़े परिवार का खर्च चलना मुश्किल था — दो शादियों से हुए छह बच्चों का पेट भरना आसान नहीं था.

सूरज भान की मां — यानी रामनंदन सिंह की पहली पत्नी की मौत तब हो गई थी जब सूरज भान बहुत छोटे थे. बड़े बेटे राजा सिंह को जब केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) में नौकरी मिली, तो परिवार को लगा कि अब जीवन में थोड़ी राहत आएगी.

इसी बीच, सूरज भान का सपना कुछ और था — वो मोकामा का “बिना चुनौती वाला राजा” बनना चाहते थे, लेकिन इस महत्वाकांक्षा की कीमत उनके पिता को चुकानी पड़ी.

1989 में सूरज भान के चचेरे भाई मोती सिंह, जो उस समय स्थानीय तौर पर उभरते बाहुबली थे, गैंगवार में मारे गए. इसके बाद सूरज भान ने 1990 के दशक में अपराध की दुनिया में कदम रखा. कुछ समय बाद उनके पिता की मौत हो गई.

कहा जाता है कि मरने से पहले रामनंदन सिंह ने अपने एक दुकानदार दोस्त से कहा था कि उन्हें अपने बेटे की करतूतों की शिकायतें मिल रही हैं और उन्होंने तय किया है कि अब घर नहीं लौटेंगे. एक पड़ोसी ने दिप्रिंट को बताया, “वो गंगा में कूद गए और फिर कभी नहीं लौटे.”

परिवार को एक और झटका तब लगा जब सूरज भान के भाई राजा सिंह ने शादी के कुछ महीने बाद ही आत्महत्या कर ली. उन्हें मोकामा से बाहर सीआरपीएफ की दूसरी यूनिट में ट्रांसफर कर दिया गया था. राजा चाहते थे कि सूरज अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके अधिकारी को डराएं ताकि ट्रांसफर रुक जाए, लेकिन सूरज ने कहा कि उनका प्रभाव प्रशासन तक नहीं चलता. एक अन्य पड़ोसी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “उसने भाई से कहा—‘मैं तेरे लिए कुछ भी कर सकता हूं, किसी को डरा सकता हूं, पर प्रशासन पर दबाव कैसे डालूं?’ नवविवाह के बाद हुआ यह ट्रांसफर राजा के लिए असहनीय था, और उसने अपने कैंप में खुद को गोली मार ली.”

अनंत सिंह, मोकामा के नदवान गांव के चंद्रदीप सिंह के चार बेटों में सबसे छोटे थे. परिवार के पुराने घर के पास बने मंदिर के देखरेखकर्ता नित्यानंद पांडे आज भी चंद्रदीप सिंह को “ऐसे साधु व्यक्ति के रूप में याद करते हैं जो जपमाला हाथ से नहीं छोड़ते थे.”

अनंत सिंह के बड़े भाई बिरांची सिंह नदवान गांव के प्रधान बने. 1980 के दशक में उनकी हत्या ने अनंत को हिंसा के रास्ते पर धकेल दिया. कोई यह तो नहीं कहता कि वो बदला लेने के लिए गंगा पार तैरकर गए थे, लेकिन कोई इसे नकारता भी नहीं. उनके घर के बाहर एक ग्रामीण ने कहा, “उनके बारे में जितनी भी अविश्वसनीय बातें आपने सुनी हों, ज़्यादातर सच ही होंगी.”

अनंत के दूसरे भाई दिलीप सिंह राजनीति में आए और उसी के ज़रिए अपराधों को ढकने का आरोप भी लगा. उन्हें सबसे पहले पहचान मिली तब के स्थानीय कांग्रेस विधायक श्याम सुंदर सिंह धीरज से, जो उस वक्त जगन्नाथ मिश्र की सरकार में मंत्री थे.

धीरज और दिलीप सिंह के बीच गठजोड़ तब बना जब उनका साझा दुश्मन बना मुनीलाल सिंह, जो भूमिहार समुदाय के एक और ताकतवर बाहुबली थे और नदवान व आस-पास के इलाकों में असर रखते थे.

धीरज ने बताया, “1980 के विधानसभा चुनाव के कुछ महीने बाद दिलीप सिंह मुझसे मिले. मुनीलाल सिंह ने मेरी हार के लिए हर कोशिश की थी, आधा दर्जन बूथों पर कब्ज़ा कर लिया था. दिलीप का भी उनसे झगड़ा था. हमारा रिश्ता आपसी फायदे के लिए बना और डेढ़ साल चला.”

लेकिन बाद में दोनों में मतभेद हो गया. धीरज के मुताबिक, जब दिलीप ने मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के खिलाफ आवाज़ उठाई, तो मिश्र ने खुद उन्हें सबक सिखाने का फैसला किया. बाद में दिलीप सिंह ने जनता दल का टिकट लिया और 1985 के विधानसभा चुनाव में मोकामा से अपने ही राजनीतिक गुरु धीरज के खिलाफ लड़े — मात्र 2,678 वोटों से हार गए. पर यह चुनाव दिखा गया कि अब वो राजनीतिक ताकत बन चुके थे. 1990 में, उन्होंने धीरज को हराकर मोकामा सीट जीत ली.

धीरज और उस समय के पुलिस अफसरों के मुताबिक, अनंत सिंह इसी दौरान पर्दे के पीछे सक्रिय थे और दिलीप की राजनीतिक ताकत के सहारे मोकामा में अपनी पकड़ और हिंसक ताकत बढ़ा रहे थे.

इसी बीच, सूरज भान की दोस्ती उत्तर प्रदेश के कुख्यात गैंगस्टर श्रीप्रकाश शुक्ला से हो गई और वे अपने क्षेत्र में तेज़ी से प्रभाव बढ़ाने लगे. बाद में धीरज ने ही उन्हें मोकामा की राजनीति में जगह दिलाने में मदद की क्योंकि उस समय उनका झगड़ा दिलीप सिंह से चल रहा था और वे खुद को बचाने की कोशिश में थे.

रेलवे और एनटीपीसी के ठेके

दिलीप सिंह की राजनीति ने अनंत सिंह और उनके परिवार को दौलत दिलाई.

सूरज भान ने बिहार में रेलवे के ठेके लेकर अपना खजाना भरा रखा था, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा इससे भी बड़ी थी — वे अपना कारोबार उत्तर प्रदेश के गोरखपुर रेलवे डिवीजन तक फैलाना चाहते थे. यह आसान नहीं था, क्योंकि गोरखपुर में पहले से दो बड़े बाहुबली सक्रिय थे — वीरेंद्र प्रताप शाही और विधायक हरि शंकर तिवारी, जो बाद में यूपी सरकार में मंत्री बने.

वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के अनुसार, वीरेंद्र प्रताप शाही की 1997 में लखनऊ में हत्या हुई थी. कहा जाता है कि यह हत्या सूरज भान के इशारे पर कराई गई थी और इस मामले में वे आरोपी भी बने. इसी घटना के बाद सूरज भान को गोरखपुर के कारोबार में पैर जमाने का मौका मिला.

1998 में, सूरज भान को बिहार के नालंदा जिले में एक अन्य मामले में गिरफ्तार किया गया. यह गिरफ्तारी उस गोलीबारी के एक साल बाद हुई थी, जिसमें पुलिस गश्त पर हमला हुआ था. उस समय के सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी अमिताभ कुमार दास, जो तब स्थानीय अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक थे, ने बताया — “एक सब-इंस्पेक्टर को सीने में गोली लगी थी, लेकिन वो बच गए. उस हिंसा के बाद पुलिस ने गश्त और बढ़ा दी थी.”

दास ने बताया कि पुलिस और सूरज भान के गिरोह के बीच जबर्दस्त मुठभेड़ हुई थी. उसी दौरान एक गोली सूरज भान के पैर के अंगूठे में लगी. उनके एक पड़ोसी के मुताबिक, “वो नाले में गिर गए थे और घंटों तक नहीं निकाले जा सके. घाव में संक्रमण हो गया था. उनके दाएं पैर पर जो पट्टी दिखती है, वो उसी चोट की निशानी है, जो आज तक नहीं भरी.”

दास के अनुसार, सूरज भान ने पटना से मोकामा तक के रेलवे के सभी ठेकों पर नियंत्रण कर लिया था. जब नीतीश कुमार रेल मंत्री बने, तब भी उनका यह साम्राज्य और बढ़ता गया.

इसी दौरान, अनंत सिंह ने एनटीपीसी (राष्ट्रीय तापीय विद्युत निगम) के बाढ़ प्लांट में ठेकों तक पहुंच बना ली थी. 1999 तक, उन्होंने ठेके नियंत्रित करके और पसंदीदा ठेकेदारों को फायदा पहुंचाकर भारी कमाई शुरू कर दी थी.

दास ने बताया, “एनटीपीसी बाढ़ का लगभग हर ठेका सीधे या परोक्ष रूप से अनंत सिंह या उनके लोगों के पास जाता था.”

नीतीश और रामविलास

श्याम सुंदर सिंह धीरज याद करते हैं कि जब 2000 के विधानसभा चुनाव से पहले सूरज भान उनसे मिलने आए थे, तो उन्होंने मोकामा से चुनाव लड़ने की इच्छा जताई थी और आशीर्वाद मांगा था. धीरज ने सूरज भान के शब्दों को याद किया, “चेला तोहार एमएलए बन गइले. हमको भी आशीर्वाद दीजिए.”

राजनीति में कदम रखते हुए सूरज भान ने 2000 के चुनाव में दिलीप सिंह को हराया. इस जीत के बाद मोकामा की सत्ता दो हिस्सों में बंट गई—सूरज भान और दिलीप के भाई आनंद सिंह अब एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी बन चुके थे, राजनीति में भी और स्थानीय प्रभाव में भी.

करीब चार साल बाद, फरवरी 2004 में सूरज भान ने पटना के गांधी मैदान में हुई एक जनसभा में लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) का दामन थाम लिया. वे लगातार अलग-अलग मामलों में सजा और बरी होने के बावजूद राजनीति में सक्रिय रहे. इसके बाद रामविलास पासवान की पार्टी ने उन्हें 2004 के लोकसभा चुनाव में बलिया सीट से उम्मीदवार बनाया. उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी को 76,227 वोटों के अंतर से हराया.

आनंद सिंह ने 2005 में मोकामा से पहली बार चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. उसी साल हुए दूसरे विधानसभा चुनाव में भी वे जीते.

2006 में दिलीप सिंह का 56 वर्ष की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया.

आनंद सिंह ने मोकामा से 2010 और फिर 2015 में भी जीत हासिल की. हालांकि उनका पैतृक गांव नदवन, बाढ़ विधानसभा क्षेत्र में आता है, लेकिन दोनों भाई हमेशा मोकामा से चुनाव लड़ते रहे क्योंकि यहां भूमिहार मतदाताओं की संख्या अधिक है.

मोकामा के व्यापारी विजय कुमार सिंह (37) ने कहा, “आनंद सिंह की जीत की वजह उनका हर जगह मौजूद रहना है. तमाम आपराधिक इतिहास के बावजूद वे आम लोगों के बीच दिखते हैं. यहां लोग उन्हें समानांतर सरकार कहते हैं.”

2006 में आनंद सिंह की राजनीतिक ताकत तब और बढ़ी जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके करीबी राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह, उनके बड़े भाई फाजो सिंह की अंतिम यात्रा में नदवन पहुंचे, जिनकी हत्या गैंगवार में हुई थी.

विजय कुमार सिंह ने कहा, “नीतीश जी का नदवन आना एक संदेश था कि ‘छोटे सरकार’ (आनंद सिंह) को कोई हाथ नहीं लगा सकता. इससे उनका गांव और प्रशासन दोनों पर असर और बढ़ गया.”

ऐसा था उनका दबदबा

आईपीएस अधिकारी अमिताभ दास का मानना है कि आनंद सिंह की राजनीतिक सफलता का श्रेय नीतीश कुमार को जाता है, क्योंकि उनका उदय 2005 के बाद हुआ, लेकिन 2015 में दोनों के बीच मतभेद भी हो गए. उसी साल यादव समुदाय के एक युवक की हत्या के आरोप में आनंद सिंह पर बड़ी कार्रवाई हुई. चुनाव से कुछ महीने पहले बिहार पुलिस की एक टीम ने उन्हें उनके घर से गिरफ्तार किया.

जेडीयू-आरजेडी गठबंधन ने उन्हें टिकट देने से इनकार कर दिया. उन्हें चुनाव के दौरान मोकामा में शांति बनाए रखने के लिए भागलपुर जेल भेज दिया गया, लेकिन उनके प्रभाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जेल में रहते हुए भी उन्होंने 2015 का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीत लिया.

2019 के लोकसभा चुनाव में आनंद सिंह ने अपनी पत्नी नीलम देवी के लिए कांग्रेस का टिकट मांगा ताकि वे जेडीयू के ललन सिंह के खिलाफ लड़ सकें. बाद में उन्होंने लालू प्रसाद यादव से सुलह कर ली और 2020 के विधानसभा चुनाव में राजद के टिकट पर मोकामा से फिर जीते.

2024 में बिहार गृह विभाग ने आनंद सिंह को “पैतृक संपत्ति विवाद” निपटाने के लिए 15 दिन की पैरोल पर रिहा किया. यह रिहाई लोकसभा चुनावों के बीच हुई, और वे तुरंत ललन सिंह के लिए प्रचार में जुट गए.

वहीं, सूरज भान सिंह की कहानी अलग दिशा में चली गई.

1992 के एक किसान हत्याकांड में उन्हें उम्रकैद की सजा हुई. 17 साल से उनकी अपील पटना हाईकोर्ट में लंबित है, लेकिन कोर्ट ने उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति देने से इनकार कर दिया. उनकी पत्नी, वीणा देवी, ने 2014 के लोकसभा चुनाव में मुंगेर से जीत हासिल की और जेडीयू के ललन सिंह को हराया.

मोकामा के 47-वर्षीय निवासी राम कुमार एक हिंदी अखबार में हाल की झड़प की खबर पढ़ते हुए कहा, “सूरज भान सिंह ने मोकामा बाज़ार में नदवन गैंग का दबदबा तोड़ दिया था. पहले बाज़ार हफ्ते में तीन दिन बंद रहता था क्योंकि आनंद या दिलीप सिंह के लोगों का आतंक था. सूरज आज भी अपने मोहल्ले के लोगों के बीच मौजूद रहते हैं. हम इस बार भी उन्हें (उनकी पत्नी को) वोट देंगे.”

गिरफ्तारी और बरी होने की कहानी

4 दिसंबर 1994 को बिहार के कुख्यात बाहुबली छोटन शुक्ला की हत्या कर दी गई थी. आरोप था कि हत्या उस समय के मंत्री और बाहुबली नेता बृज बिहारी प्रसाद के गुर्गों ने की थी. शुक्ला की हत्या के बाद बिहार की सड़कों पर खूनी खेल शुरू हो गया. इसी दौरान, उनके अंतिम संस्कार जुलूस के दौरान गोपालगंज के जिलाधिकारी जी. कृष्णैया की भी हत्या कर दी गई. चार साल बाद, 13 जून 1998 को बृज बिहारी प्रसाद को पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (IGIMS) में गोलियों से भून दिया गया. इस वारदात में छोटन के छोटे भाई मुन्ना शुक्ला और यूपी के गैंगस्टर श्रीप्रकाश शुक्ला सहित कई लोग शामिल थे.

पटना की एक अदालत ने अगस्त 2009 में सूरज भान को बृज बिहारी प्रसाद की हत्या की साजिश रचने के आरोप में उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी. आरोप था कि उन्होंने इस साजिश के लिए मुन्ना शुक्ला से बेउर सेंट्रल जेल में मुलाकात की थी. हालांकि, जुलाई 2014 में पटना हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच में खामियों का हवाला देते हुए उनकी सजा पर रोक लगा दी.

बाद में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की जांच को सही ठहराते हुए हाईकोर्ट का फैसला पलट दिया, लेकिन सूरज भान सिंह और तीन अन्य आरोपियों को “संदेह का लाभ” देते हुए बरी कर दिया.

आनंद सिंह का भी सफर कभी कार्रवाई, तो कभी राहत के बीच झूलता रहा है. 16 अगस्त 2019 को यादव समुदाय के एक युवक की हत्या के बाद उनके नदवन स्थित घर से हुई गिरफ्तारी में पुलिस ने एक एके-47 रायफल, 22 कारतूस और दो बम बरामद किए थे. उन पर गैरकानूनी गतिविधियां (निषेध) अधिनियम (UAPA) और शस्त्र एवं विस्फोटक अधिनियम के तहत केस दर्ज हुआ.

‘छोटे सरकार’ के नाम से मशहूर आनंद सिंह उस समय मोकामा से गायब हो गए थे. कुछ दिनों बाद उन्होंने दिल्ली की एक अदालत में सरेंडर किया. बिहार पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने दिल्ली पहुंची. इस दौरान स्थानीय मीडिया और यूट्यूब चैनलों को दिए उनके बयानों और गाली-गलौज भरी भाषा ने खूब सुर्खियां बटोरीं.

2022 में पटना की एक स्थानीय अदालत ने उन्हें 10 साल की सज़ा सुनाई, जिसके बाद वे बिहार विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहराए गए. इसके बाद उनकी पत्नी नीलम देवी ने मोकामा से उपचुनाव लड़ा और जीत दर्ज की.

अगस्त 2024 में पटना हाईकोर्ट ने आनंद सिंह को हथियार मामले में बरी कर दिया. हालांकि, बिहार सरकार ने इस फैसले को अभी चुनौती नहीं दी है. इस साल जनवरी में सोनू और मोनू नाम के स्थानीय गैंग ने मोकामा में उनकी सत्ता को चुनौती दी, जिसके बाद सड़कों पर 100 से ज्यादा राउंड गोलियां चलीं. आनंद सिंह ने इस फायरिंग केस में अदालत में आत्मसमर्पण किया और अगस्त में ज़मानत पर रिहा हो गए. अब उन्हें दुलार चंद हत्याकांड में गिरफ्तार किया गया है.

सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी अभयानंद, जिन्होंने बिहार में अपराधी-राजनीतिज्ञ गठजोड़ के खिलाफ अभियान चलाया था, ने कहा,
“इन तत्वों के ताकतवर बनने और राजनीतिक संरक्षण पाने के पीछे जवाबदेह न्यायिक प्रक्रिया की कमी है. निचली अदालतों में पर्याप्त सबूत मिलने के बावजूद ऊपरी अदालतों से बार-बार बरी किए जाने से इन मामलों का तार्किक अंत कभी नहीं हो पाया.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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