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Wednesday, 20 November, 2024
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असमिया आकांक्षा को जगाने वाली पार्टी एजीपी को भाजपा ने कैसे अपना ‘पिछलग्गू’ बना लिया है

भाजपा के साथ सीट बंटवारे पर समझौते तहत एजीपी ने महंत की बहरामपुर सीट छोड़ दी है. ऐसे में वह अब अपने पुराने संगठन एजीपी (प्रोग्रेसिव) में फिर से जान फूंकने में जुटे हैं.

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गुवाहाटी: असम में 10 सालों तक एजीपी की अगुवाई में सरकार चलाने वाले प्रफुल्ल महंत को टिकट न देने का असोम गण परिषद (एजीपी) का फैसला उस पार्टी में एक और विभाजन की वजह बनता दिख रहा है, जो कि असम में अवैध प्रवासियों के खिलाफ आंदोलन के कारण उपजी थी.

महंत 1985 में पहली बार मुख्यमंत्री बने थे जब छह साल से जारी आंदोलन खत्म करने के लिए असम समझौता हुआ था और इसके नेताओं ने एजीपी का गठन किया था.

भारतीय जनता पार्टी के साथ सीट बंटवारे पर शुक्रवार को हुए समझौते के तहत एजीपी ने महंत की बहरामपुर सीट, जिसका उन्होंने लगातार छह बार विधानसभा में प्रतिनिधित्व किया है, भाजपा के जीतू गोस्वामी को सौंप दी.

यह नया घटनाक्रम असम में एक राजनीतिक विडंबना को रेखांकित करता हैं जहां अवैध प्रवासियों के खिलाफ आंदोलन से उपजी क्षेत्रीय पार्टी एपीजी को 2016 में असम में पहली बार, वो भी पूर्व एजीपी नेता सर्बानंद सोनोवाला के नेतृत्व में, सत्ता में आई भाजपा के पीछे रहकर चलने को मजबूर होना पड़ रहा है.

वह भाजपा ही है जिसने असम से ‘अवैध प्रवासियों’ को बाहर निकालने का एजीपी का मूल एजेंडा हाईजैक कर लिया है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कभी असम में सबसे ताकतवर पार्टी रही एजीपी ‘भाजपा की सहायक या पिछलग्गू’ बन जाने के अलावा कुछ भी नहीं रह गई है.

असम के मूल निवासियों की भावनाओं को ध्यान में रखकर सीएए का विरोध करने वाले एजीपी के कुछ नेताओं के एक समूह का हिस्सा रहे प्रफुल्ल महंत आज खुद को हाशिए पर पाते हैं.

शुक्रवार शाम ही गुवाहाटी लौटे पूर्व मुख्यमंत्री अब अपने पुराने संगठन एजीपी (प्रोग्रेसिव) को फिर सक्रिय करने की तैयारी कर रहे हैं, जिसे उन्होंने 2005 में पार्टी से निकाले जाने के बाद बृंदाबन गोस्वामी के नेतृत्व को चुनौती देने के लिए गठित किया था. एजीपी-पी और एजीपी से टूटे अन्य घटकों का 2008 में फिर पार्टी के साथ विलय हो गया था.

पार्टी की तरफ से अपना पंजीकरण रिन्यू कराने की जानकारी देते हुए एजीपी-पी प्रवक्ता प्रणब गोस्वामी ने दिप्रिंट से कहा, ‘पार्टी (एजीपी) ने खुद को भाजपा के हाथों बेच दिया है. उसका स्तर इस कदर गिर गया है कि एजीपी के टिकट भी अमित शाह और हिमंत बिस्वा सरमा तय करते हैं. सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के खिलाफ रुख अपनाने वाले नेताओं का टिकट काट दिया गया है.’

जानकारी के मुताबिक एजीपी-पी गुट सीएए विरोधी दोनों दलों—असोम जातीयताबादी परिषद (एजेपी) और रायजोर दल, से बातचीत कर रही है और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन के भी बाद में साथ आ जाने की पूरी संभावना है. एजेपी के गठन के पीछे भी ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) है, जिसने असम आंदोलन का नेतृत्व किया था और 1985 में एजीपी के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

महंत ने शुक्रवार शाम गुवाहाटी पहुंचते ही कहा, ‘मैं सीएए विरोधी ताकतों के साथ हूं.’ उन्हें शुक्रवार को ही राष्ट्रीय राजधानी स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से छुट्टी मिली थी, जहां उन्हें 18 फरवरी को भर्ती कराया गया था. वह जनवरी में स्ट्रोक के शिकार हुए थे.

गोस्वामी ने बताया, ‘हमने एजीपी को काफी समय पहले ही छोड़ दिया था और असोम आंदोलन संग्रामी मंच गठित किया था और हम अराजनैतिक तौर पर असम में सीएए विरोधी ताकतों को एकजुट करने की कोशिश में लगे हुए हैं. हम एजीपी के अंदर दो गुटों में बंटे थे—एक जो सीएए का समर्थन कर रहे थे और और दूसरा जिसने इसका विरोध किया. इसलिए, इस कानून का विरोध करने वाले लोग एजीपी-पी को फिर सक्रिय करने में साथ आ गए हैं.’


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भाजपा की पिछलग्गू बनी एजीपी

दोनों सहयोगी दलों के बीच सीट बंटवारे का फार्मूला इस हफ्ते नई दिल्ली में तय किया गया जिसके तहत भाजपा ने असम विधानसभा की 126 सीटों में से 92 पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है और एजीपी को 26 सीटें मिली हैं.

विधानसभा चुनावों में 1985 में 67 सीटें और 1996 में 59 सीटें जीतने वाली एजीपी की ताकत 2016 में घटकर मात्र 14 सीट की रह गई थी. पार्टी 20 वर्षों में तीन बार विभाजित हुई और अब भी टूट के कगार पर है. हालांकि, एजीपी अध्यक्ष अतुल बोरा (जूनियर) का मानना है कि उनकी पार्टी ‘दिन-ब-दिन अपनी ताकत बढ़ा’ रही है.

बोरा ने दिप्रिंट से कहा, ‘नई पार्टियां हो सकती हैं, लेकिन एजीपी असम में क्षेत्रीयता का आधार है और यह एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी भी है. मौजूदा समय की राजनीति कुछ अलग है. विचारधारा से समझौता करने का कोई सवाल नहीं उठता है, लेकिन हम राज्य में शांति और विकास चाहते हैं, और यह भी चाहते हैं कि असम समझौते के क्लॉज 6 पर अमल हो. यह सरकार राज्य के मूल निवासियों की तरक्की के लिए कड़ी मेहनत कर रही है.’

एजीपी की ओर से दिसंबर 2019 में सीएए के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दो अलग-अलग रिट याचिकाएं दायर की गई थीं, यही नहीं पार्टी नेताओं ने विवादास्पद कानून को लेकर भाजपा से नाता तोड़ने पर भी विचार किया था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

राज्यसभा में एजीपी के एकमात्र सांसद बीरेंद्र प्रसाद बैश्य ने संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध किया, लेकिन बाद में मतदान इसके पक्ष में ही किया था.

राजनीतिक पर्यवेक्षक नानी गोपाल महंत का कहना है, ‘एजीपी के लिए कोई रास्ता नहीं बचा है, और भाजपा उसके जनाधार में सेंध लगा रही है—जिस तरह बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है. अंत में वो भाजपा की सहायक या पिछलग्गू ही बनकर रह जाएगी.’

उन्होंने आगे कहा, ‘सभी समुदायों और समूहों के बीच पैठ रखने वाली पार्टी के तौर पर अगप का आधार सीमित है. मूलत: एक हिंदू पार्टी के तौर पर बराक घाटी में इसका अस्तित्व लगभग न के बराबर है. जनसांख्यिकी में बदलाव के साथ निचले असम के कई निर्वाचन क्षेत्र जो कभी एजीपी के खाते में होते थे, अब कांग्रेस या एआईयूडीएफ के साथ हैं.’

एजीपी ने कैसे अपनी जमीन गंवाई

अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाए रखने के लिए भाजपा पर एजीपी की निर्भरता लोगों का भरोसा फिर हासिल कर पाने में पार्टी की विफलता की मूल वजह रही है. एजीपी सरकार ने सभी स्कूलों में विषय के तौर पर असमिया भाषा की पढ़ाई को जबरन अनिवार्य कर दिया था जिससे बोडो और अन्य जनजातियों के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई.

इसे असम समझौते को लागू न करा पाने और विशेष तौर पर असम के लिए इंदिरा गांधी सरकार की तरफ से लाए गए इललीगल माइग्रेंट (डिटर्मिनेशन बाई ट्रिब्यूनल) (आईएमडीटी) एक्ट, 1983 निरस्त कराने में नाकाम रहने के लिए भी कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी थी. अन्य राज्यों में फॉरनर एक्ट, 1946 लागू होता है. दूसरे राज्यों के विपरीत, जहां पहचान साबित करने की जिम्मेदारी संदिग्ध पर होती है, के विपरीत आईएमडीटी अधिनियम में यह जिम्मेदारी राज्य की होती है.

एजीपी के गठन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले शिक्षाविद् और एजेपी संयोजक बसंता डेका का मानना है कि पार्टी को प्रतिबद्धता की कमी के कारण अपनी जमीन गंवानी पड़ी. उनके मुताबिक, ‘एजीपी के नेतृत्व में मूलत: प्रतिबद्धताओं की कमी है, उन्होंने शुरू से ही अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटते हुए सत्ता की लालसा दिखाई है, जो अब अतुल बोरा और केशव महंत (राज्य मंत्री) के नेतृत्व में स्पष्ट है.’

पॉलिटिकल एक्टिविस्ट श्यामकानु महंत ने कहा, ‘प्रशासनिक अनुभव के बिना कोई सरकार नहीं चल सकती. वो एक गलती थी. वे शामिल हुए और वे असफल रहे. उनका मार्गदर्शन करने के लिए कोई हाई कमान नहीं था.’

1985 में नई पार्टी को कांग्रेस के हाथों विरासत में एक ढहती प्रशासनिक व्यवस्था मिली थी. आंदोलन की राजनीति से निकले नेताओं को राजस्व कमाई में घाटे और सीमित संसाधनों के बीच एक बेहद जटिल बहुसांस्कृतिक परिदृश्य को ध्यान में रखकर शासन व्यवस्था चलानी थी. असम आंदोलन को नैतिक समर्थन देने वाला जनाधार असमिया मध्यम वर्ग था. लेकिन गलत नीतियों और विदेशियों के मुद्दे पर नाकामी ने जल्द ही मध्यम वर्ग को उससे दूर कर दिया.

सर्बानंद सोनोवाल ने 2011 में भाजपा में शामिल होने के लिए एजीपी से इस्तीफा देने के दौरान दावा किया था कि वह इस बात से आहत थे कि पार्टी अवैध प्रवासियों के मुद्दे को दरकिनार करने के साथ ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) और उसके प्रमुख बदरुद्दीन अजमल के साथ नजदीकी बढ़ा रही थी. उन्होंने अजमल के साथ बढ़ती निकटता और एआईयूडीएफ के सांप्रदायिक एजेंडे को मौन समर्थन पर सवाल उठाते हुए महंत पर निशाना साधा था.

आसू के साथ एजीपी का समीकरण एक और ऐसा मुद्दा था जिसने सोनोवाल को अपने रास्ते पार्टी से अलग कर लेने के लिए प्रेरित किया. प्रफुल्ल महंत जहां जाते आसू की तरफ से उन्हें काले झंडे दिखाना शुरू कर दिया जाता था और एजीपी नेतृत्व छात्र संगठन के साथ रिश्ते बेहतर करने में सक्षम नहीं रह गया था.

1996 के चुनाव में भाजपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों ने बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ के मुख्य मुद्दे को दरकिनार कर दिया था. एजीपी ने तो अपने चुनाव घोषणापत्र तक में बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे का उल्लेख नहीं किया. इसके बजाये, उसने असम समझौते को लागू करने के लिए आवश्यक कार्रवाई का सामान्य वादा किया जो अपनी हार खुद तय कर देने वाली रणनीति साबित हुई और अब तक जारी है.

1996 में पार्टी ने चार दलों के साथ गठबंधन में विधानसभा चुनाव जीता तो लेकिन महंत की अगुवाई वाली सरकार को इस बार तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसमें यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) और बोडो उग्रवाद का सिर उठाना, गुटबाजी और भ्रष्टाचार आदि शामिल थीं.

लोगों ने सियासी नेताओं की नई फसल की आलीशान जीवनशैली पर गौर करना शुरू कर दिया और उनमें से कुछ के बारे में ऐसी चर्चाएं जोर पकड़ने लगीं कि आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति जुटा रहे हैं. इस सबके बीच ही आसू का एजीपी से नाता तोड़ना एक और झटका था.

इसके अलावा, 1998 और 2001 के बीच ‘गुपचुप हत्याएं’ होने के आरोपों ने भी सरकारी तंत्र को अस्थिर कर दिया. यह बात सामने आई थी कि ‘गुपचुप हत्याओं’ का निशाना उन लोगों को बनाया जा रहा है जो विद्रोही संगठन उल्फा के सदस्यों के परिवारिक सदस्य, रिश्तेदार, दोस्त और उनके साथ सहानुभूति रखने वाले हैं. 2001 में एजीपी सरकार गिरने के साथ ही इस तरह की गोपनीय हत्याएं बंद हो गईं.

गुटबंदी में घिरी एजीपी

अपने गठन के समय से ही एजीपी में चार गुट थे—प्रफुल्ल महंत, भृगु कुमार फुकन, बृंदाबन गोस्वामी और अतुल बोरा (सीनियर).

1991 में पहला विभाजन तब हुआ था जब भृगु फुकन, बृंदाबन गोस्वामी और पुलकेश बरुआ ने मिलकर नटुन असोम गण परिषद का गठन किया था. दूसरा विभाजन 2000 में हुआ जब अतुल बोरा (सीनियर) और पुलकेश बरुआ ने तृणमूल गण परिषद का गठन किया गया. तीसरा 2005 में हुआ जब पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए निष्कासित किए जाने के बाद प्रफुल्ल महंत और उनके विश्वस्तों ने मिलकर एजीपी-पी बनाई. 2008 में इनका एक साथ विलय हो गया था.

2014 के लोकसभा चुनाव में एजीपी कोई भी सीट जीतने में नाकाम रही. इस हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए महंत ने पार्टी अध्यक्ष का पद अतुल बोरा (जूनियर) को सौंप दिया.

डेका ने बताया कि ‘एजीपी को आकार देने वाले’ दो नेता थे—महंत और फुकन. 2006 में फुकन का निधन हो गया था.

अब जबकि एजीपी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया है महंत अब अनिश्चित राजनीतिक भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं. और नए एजीपी नेतृत्व को सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा पर निर्भर रहना ज्यादा सुविधाजनक लगता है.


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