मुंबई: महाराष्ट्र विधानसभा के लिए 2019 में हुए चुनाव के नतीजों से पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कुछ महत्वाकांक्षी नेताओं को पूरा भरोसा था कि उनकी पार्टी 288 सदस्यीय सदन में 135-140 सीटें जीतने जा रही है और देवेंद्र फडणवीस एक बार फिर मुख्यमंत्री के रूप में वापसी करेंगे.
नतीजों ने सारी उम्मीदें धराशायी कर दीं—भाजपा 105 विधायकों की जीत के साथ साधारण बहुमत के लिए जरूरी 144 सीटों के आंकड़े से काफी पीछे रह गई, और फिर सहयोगी शिवसेना के साथ बढ़ी तकरार ने आखिरकार शिवसेना-नेशलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी)-कांग्रेस के बीच गठबंधन का रास्ता खोल दिया.
भाजपा नेताओं को उस समय तो यही लग रहा था ये गठबंधन ज्यादा लंबा नहीं चलेगा. हालांकि, पार्टी को अब विपक्ष में बैठे करीब एक साल हो गया है—और इसके साथ ही एक युवा नेता की अगुआई में ‘विकास सर्वप्रथम’ एजेंडे को आगे बढ़ाने वाली एक अपराजेय पार्टी की उसकी छवि भी प्रभावित हो रही है.
भाजपा अब धर्मनिरपेक्ष पार्टी वाली छवि को लेकर शिवसेना के खिलाफ माहौल बनाकर महाराष्ट्र के हिंदूवादी वोट बैंक को अपने पाले में लाकर फिर संगठित होने की उम्मीदें लगाए बैठी है.
राजनीतिक टिप्पणीकार प्रकाश बल कहते हैं, ‘राजनीतिक समीकरण ऐसे हैं कि भाजपा किसी भी पार्टी को तोड़ने और सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है. इसके लिए तो उसे किसी पार्टी को पूरी तरह ही अपने साथ लाना होगा.’
महाराष्ट्र विकास अघाड़ी (एमवीए) में शिवसेना के पास 56 सीटें हैं, एनसीपी के पास 53 (एक विधायक की पिछले महीने मृत्यु होने से आंकड़ा 54 से घट गया) और कांग्रेस के पास 44 विधायक हैं.
बागी अजीत पवार के साथ मिलकर बनाई गई फडणवीस की 80 घंटे की नाकाम सरकार का जिक्र करते हुए बल ने कहा, ‘जो कुछ हुआ था उसके बाद एनसीपी तो भाजपा के साथ नहीं जाएगी, इसके अलावा न तो कांग्रेस उसके साथ जाएगी और न ही शिवसेना जाएगी. यह स्थिति भाजपा के लिए थोड़ी पेचीदा है और इसीलिए वह अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए राजभवन का इस्तेमाल करने और ‘धर्मनिरपेक्ष छवि’ को लेकर शिवसेना पर निशाना साधने की कोशिश में जुटी है.’
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राजभवन के साथ टकराव
एमवीए सरकार के गठन के बाद से ही महाराष्ट्र के राज्यपाल बी.एस. कोश्यारी के साथ उसके रिश्ते ज्यादा सौहार्दपूर्ण नहीं रहे हैं. कोश्यारी भाजपा के पूर्व पदाधिकारी और कट्टर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) समर्थक हैं.
शिवसेना के नेता अक्सर आरोप लगाते रहे हैं कि भाजपा अपनी राजनीति के लिए राजभवन का दुरुपयोग कर रही है.
उदाहरण के तौर पर राज्यपाल राज्य विधान परिषद के लिए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को चुने जाने संबंधी कैबिनेट की सिफारिश लटकाए रहे थे. नियमानुसार 2019 का चुनाव नहीं लड़ने वाले ठाकरे के लिए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण के छह महीने के भीतर दोनों सदनों में से किसी एक का सदस्य बनना जरूरी था.
शिवसेना के राज्यसभा सदस्य संजय राउत ने एक मराठी समाचार चैनल से बातचीत में कहा था, ‘उन्हें (कोश्यारी) को सिफारिश मंजूर करने से कौन रोक रहा है…कोश्यारी की भाजपा के साथ नजदीकी किसी से छिपी नहीं है.’
राज्य मंत्रिमंडल ने दो बार–9 अप्रैल और 27 अप्रैल—को विधान परिषद के लिए ठाकरे के नाम की सिफारिश की. जब कोश्यारी ने फिर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हस्तक्षेप के लिए कहा. इसके बाद ही राज्यपाल ने चुनाव आयोग से विधान परिषद की नौ खाली सीटों पर जल्द से जल्द चुनाव कराने को कहा. तब ठाकरे निर्विरोध चुने गए थे.
राज्यपाल उस समय भी मुख्यमंत्री के साथ टकराव की स्थिति में नजर आए जब भाजपा मार्च में लॉकडाउन शुरू होने के बाद से ही बंद चल रहे धार्मिक स्थलों को खोलने की मांग को लेकर राज्य सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थी. आखिरकार, राज्य सरकार ने पिछले महीने पूजा स्थल खोलने का फैसला किया.
अक्टूबर में इस मसले पर कोश्यारी और ठाकरे के बीच तीखा पत्र व्यवहार चला था. राज्यपाल ने जहां ये सवाल उठाया कि एक हिंदुत्ववादी रहे ठाकरे क्या अचानक ‘धर्मनिरपेक्ष’ हो गए हैं और इसके जवाब में ठाकरे ने लिखा था कि उनके हिंदुत्व को राज्यपाल के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है.
राज्यपाल कोविड की चुनौतियों से निपटने को लेकर एमवीए सरकार की आलोचना करते रहे हैं और सक्रिय तौर पर राजभवन में समीक्षा बैठकें भी बुलाते रहे हैं, और उन्होंने अभिनेत्री कंगना रनौत, महराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे जैसे शिवसेना विरोधियों के साथ भी मुलाकातें कीं.
हालांकि, भाजपा इस बात पर जोर देती रही है कि राज्यपाल केवल अपना काम कर रहे हैं.
भाजपा के पूर्व मंत्री आशीष शेलार ने दिप्रिंट से कहा, ‘ठाकरे परिवार और उसकी विरासत के लिए हमारे मन में बहुत ज्यादा सम्मान है, लेकिन सबसे ज्यादा शिकायतें भी मुख्यमंत्री ठाकरे को लेकर ही हैं.’
उन्होंने कहा, ‘समस्या यह है कि जब हम मुख्यमंत्री से कोई ऐसा सवाल पूछते हैं जिसका वह जवाब नहीं देना चाहते तो ऐसा दिखाते हैं कि यह ठाकरे परिवार पर हमला है और जवाबदेही से बचने के लिए ठाकरे परिवार की विरासत का सहारा लेते हैं.’
उन्होंने कहा, ‘कोई भी तुलना करके देख सकता है कि राज्यपाल ने कितनी बार पहल की है, कार्यक्रमों में हिस्सा लिया, प्रतिनिधिमंडलों से मुलाकात की और बैठकें की, लेकिन मुख्यमंत्री ने यह सब कितनी बार किया.’
उन्होंने कहा, ‘मुख्यमंत्री तो अपने मंत्रियों तक से आसानी से नहीं मिलते. जब मुख्यमंत्री कार्यालय संपर्क के लिहाज से सुलभ और प्रभावी नहीं होता है तो लोगों के लिए राज्यपाल अपने आप ही संपर्क का जरिया बन जाता है. ये सब अकादमिक बाते हैं, राजनीतिक नहीं.’
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‘शिवसेना से ज्यादा हिंदू’
महामारी के कारण मंदिर बंद रखे जाने को लेकर मुख्यमंत्री ठाकरे पर निशाना साधना उन कई मुद्दों में से एक था जिन्हें लेकर पिछले एक साल के दौरान भाजपा ने आरोप लगाए कि शिवसेना हिंदुत्व को भूल गई है.
पिछले कुछ महीनों में भाजपा ने दोहरे उद्देश्य के साथ हिंदुत्व के एजेंडे को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाया है. एक तो यह कि शिवसेना को प्रतिक्रिया के लिए उकसाया जाए, जिससे कांग्रेस और एनसीपी के असहज होने और गठबंधन के बीच वैचारिक दरार बढ़ने की उम्मीद है.
लेकिन, इससे भी अहम बात यह है कि भाजपा की नजरें 2022 पर टिकी हैं. जब ‘मिनी विधानसभा चुनाव’ माने जाने वाले 10 नागरिक निकायों, जिनमें शिवसेना के गढ़ मुंबई और ठाणे शामिल हैं, और 27 जिलों में जिला परिषदों के लिए चुनाव होने हैं.
शिवसेना अब चूंकि पूर्व में अपनी वैचारिक विरोधी रही कांग्रेस और एनसीपी से हाथ मिला चुकी है, भाजपा को उम्मीद है कि वह शिवसेना की हिंदुत्ववादी पार्टी वाली छवि खत्म कर देगी और 2022 के चुनावों में राज्य में भगवा वोट-बैंक पर पूरी तरह कब्जा कर लेगी.
नाम न देने की शर्त पर भाजपा के एक विधायक ने कहा, ‘पिछले कई सालों से शिवसेना लगातार भगवा वोट बैंक गंवा रही है, मुंबई में उसका वर्चस्व धीरे-धीर घट रहा है. यही नहीं, पार्टी पिछले दो दशकों से मुंबई नगर निकाय का नेतृत्व कर रही है और बहुत सारे मुद्दे हैं जहां हम उसका प्रदर्शन अपेक्षा अनुरूप न होने को उजागर कर सकते हैं.
विधायक ने आगे कहा, ‘अब ऐसे समय में पार्टी ने कांग्रेस और एनसीपी जैसे वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ गठबंधन का विकल्प चुना है. हम उनकी तरफ से ऐसे बयान भी सुन रहे हैं जैसे पार्टी सभी धर्मों का सम्मान करती है और यहां तक कि बालासाहेब भी मातोश्री के अंदर नमाज़ की अनुमति देते थे.’
उन्होंने कहा, ‘जाहिर तौर पर यह सब उनके हिंदुत्व वोट का और भी ज्यादा मोहभंग करने वाला है. इसका भाजपा से कोई लेना-देना नहीं है. यह सब शिवसेना के मौजूदा नेतृत्व का नतीजा है.
भाजपा महाराष्ट्र के पालघर जिले में दो साधुओं की पीटकर हत्या, महामारी की वजह से समुद्र तटों पर छठ पूजा की अनुमति से इनकार और हाल ही में कथित तौर पर शिवसेना की ओर से आयोजित की गई अजान प्रतियोगिता जैसे मुद्दों को लेकर शिवसेना पर तंज कसती रही है.
शिव सेना के पांडुरंग सकपाल ने एक बयान जारी कर स्पष्ट किया कि पार्टी ने ऐसी किसी प्रतियोगिता का आयोजन नहीं किया है, और अजान प्रतियोगिता के आयोजन की योजना तो किसी अन्य संगठन ने बनाई थी जिसे सकपाल ने अपना समर्थन दिया.
बहरहाल, उच्च सदन में भाजपा के नेता विपक्ष प्रवीण दरेकर ने पार्टी संस्थापक बाल ठाकरे की हिंदुत्व विचारधारा को भुला देने को लेकर शिवसेना की आलोचना की है. दरेकर ने एक बयान में कहा, ‘पूरे देश को याद है कि बालासाहेब ने मस्जिदों में नमाज के लिए लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल की कितनी कड़ी आलोचना की थी. कोई भी साफ देख सकता है कि एमवीए का हिस्सा बनने के बाद से शिवसेना बालासाहेब की हिंदुत्ववादी विचारधारा और राष्ट्रवाद को कैसा भुलाती जा रही है.’
बेहद जुझारू और खुद में एक सशक्त हस्ती रहे बालासाहेब ठाकरे की तुलना में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में ज्यादा मध्यमार्गी छवि अपनाने वाली शिवसेना ने हालांकि, भाजपा के हर हमले के बाद अपना भगवा वोट बैंक बचाए रखने की कोशिश के साथ ज्यादा मुखर ढंग से जवाब दिया है.
उदाहरण के तौर पर, अजान प्रतियोगिता विवाद के बाद शिवसेना नेताओं ने ईद समारोहों में मौजूद भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की पुरानी तस्वीरों को प्रचारित किया और सामना के एक संपादकीय में लिखा, ‘आपको याद रखना चाहिए कि जब आप शिवसेना के हिंदुत्व पर एक अंगुली उठाते हैं, तो चार अंगुलियां आप की ओर ही इशारा करती हैं.’
मुख्यमंत्री ठाकरे ने इस साल अपने वार्षिक दशहरा भाषण में भी यह कहते हुए भाजपा पर निशाना साधा था कि उसके हिंदुत्व और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के हिंदुत्व के बीच बहुत अंतर है.’
ठाकरे ने यह भी कहा, ‘हमारा हिंदुत्व घंटी-बर्तन बजाने वाला नहीं है.’ उन्होंने यह बात भाजपा के ‘घंटा नाद आंदोलन’ के जवाब में कही, जिसके तहत भाजपा नेताओं ने मंदिरों को खुलवाने के लिए घंटी बजाकर प्रदर्शन किया था. जबकि एमवीए सरकार ने कोविड-19 के बढ़ते मामलों के मद्देनजर मंदिर खोलने पर रोक लगा रखी थी.
विपक्षी नेता के रूप में फडणवीस
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पिछले एक साल के घटनाक्रम ने देवेंद्र फडणवीस की छवि को काफी हद तक प्रभावित किया है और ऐसा लगता है कि विपक्ष के नेता के तौर पर उनका पार्टी में वैसा नियंत्रण नहीं रह गया है जैसा मुख्यमंत्री रहने के दौरान था.
राजनीतिक विश्लेषक हेमंत देसाई कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे को परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री को यह बताना होगा कि वह महामारी के बीच प्रदर्शन के नाम पर गैर-जिम्मेदाराना तरीके से भीड़ जुटाने वाले भाजपा नेताओं पर लगाम कसें.’
देसाई ने कहा, ‘फडणवीस खुद तो गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार नहीं कर रहे, लेकिन कुछ अन्य लोग हैं जो ऐसा कर रहे हैं. फिर ऐसे नेता भी हैं जो ऐसे बयान देते रहते हैं कि कैसे तीन महीने में, छह महीने में या फिर अब दिवाली के बाद एमवीए सरकार गिर जाएगी. इस सबके बीच फडणवीस कहते हैं कि विपक्ष सरकार को अस्थिर करने के लिए कुछ नहीं कर रहा, वह खुद-ब-खुद गिर जाएगी.’
उन्होंने कहा, ‘इससे पहले, जब वह मुख्यमंत्री थे, तब कोई भी बड़े विवादित बयान नहीं आते थे, लेकिन अब जब विपक्ष के नेता हैं तो ऐसा नहीं रहा.’
एकनाथ खडसे और जयसिंहराव गायकवाड़ पाटिल जैसे वरिष्ठ नेताओं के इस्तीफे ने भी फडणवीस के नेतृत्व को झटका दिया है. खडसे ने तो खुले तौर पर अपने इस्तीफे के लिए फडणवीस को जिम्मेदार ठहराया है जबकि पाटिल ने कहा था कि वह पार्टी के लिए काम करना चाहते थे लेकिन पार्टी उन्हें मौका नहीं दे रही थी.
देसाई ने कहा, ‘विपक्ष में एक साल रहने के बाद भी हम अभी तक यह नहीं कह सकते कि भाजपा ने अपनी जमीन खो दी है. सड़कों पर विरोध प्रदर्शनों के आयोजन और नेता विपक्ष के व्यापक दौरों के जरिये पार्टी ने दिखा दिया है कि वह अब भी काफी मजबूत स्थिति में है.’
साथ ही जोड़ा, ‘लेकिन एक एकजुट और जिम्मेदार विपक्षी पार्टी के तौर पर उसकी छवि पर प्रतिकूल असर जरूर पड़ रहा है.’
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