नई दिल्ली: 200 विधानसभा सीटों वाले राजस्थान में 2018 में हुए चुनाव में हर पांचवीं सीट 3 फीसदी के कम अंतर से जीती गई थी. दिप्रिंट ने विश्लेषण करने के बाद ये पता चला है. यह न केवल आगामी नवंबर-दिसंबर चुनाव की अनिश्चित प्रकृति को रेखांकित करता है, बल्कि उन खतरों को भी रेखांकित करता है जो भाजपा के भीतर अंदरूनी कलह से उसकी संभावनाओं के लिए पैदा हो सकती हैं.
1998 के बाद से, राजस्थान में मतदाता हर चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच बारी-बारी से सरकारें बदलते रहे हैं. 2018 में, कांग्रेस ने 100 सीटें जीतीं, जो बहुमत के आंकड़े से एक कम थी, जबकि भाजपा को 73 सीटें ही मिलीं थीं.
लेकिन इस बार, भाजपा आपसी और गुटीय संघर्ष से भी जूझ रही है, ऐसा कुछ पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को अपने सीएम चेहरे के रूप में पेश करने के लिए आलाकमान की अनिच्छा से उत्पन्न हुआ है, जबकि वह और उनके समर्थक उनकी उम्मीदवारी पर जोर दे रहे हैं. राजे, विशेष रूप से, राजस्थान में भाजपा की सबसे महत्वपूर्ण जन नेता हैं और चुनाव में पार्टी के भाग्य का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं.
2018 में कम जीत के अंतर वाली 40 सीटों में से 31 पर कांग्रेस और भाजपा मुख्य दावेदार थे.एक और सीट वल्लभनगर की जिसपर कांग्रेस ने कब्जा किया, यह जन सेना राजस्थान के उम्मीदवार थे जो दूसरे स्थान पर रहे और भाजपा उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहे थे.
कुल मिलाकर, भाजपा ने 17 और कांग्रेस ने 15 सीटों पर मामूली डिफरेंस से जीत हासिल की. इन 32 उम्मीदवारों के अलावा, चार निर्दलीय, दो बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) से, एक भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) से और एक उम्मीदवार थे, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) ने भी मामूली अंतर से जीत हासिल की थी.
चुनाव होने के करीब एक साल बाद बसपा के सभी विधायक कांग्रेस में शामिल हो गये. अन्य उम्मीदवारों द्वारा जीती गई आठ सीटों में से चार-चार पर भाजपा और कांग्रेस दूसरे स्थान पर रहे.
कुल मिलाकर, 16 उम्मीदवारों की जीत का अंतर 2 से 3 प्रतिशत के बीच था. जबकि 11 ऐसे थे जिनका डिफरेंस 1 से 2 प्रतिशत था जबकि 13 ऐसे थे जिनका डिफरेंस 1 प्रतिशत से भी कम था.
इनमें से एक दर्जन से अधिक सीटों पर जीत का अंतर नोटा (उपरोक्त में से कोई नहीं) को प्राप्त वोटों की संख्या से भी कम था.
पार्टी का गढ़ मानी जाने वाली सीटों पर कुछ मामूली जीत हुई. ऐसा ही एक मामला आसींद का था, जहां भाजपा ने पिछले सात चुनावों में से छह में जीत हासिल की (2003 में अपवाद था जब एक स्वतंत्र उम्मीदवार जीता था). 2018 में, भाजपा ने जीत हासिल की, लेकिन मुश्किल से, पार्टी के उम्मीदवार जब्बार सिंह सांखला केवल 154 वोटों या जीत के 0.08 प्रतिशत अंतर से जीते.
फिर ऐसे निर्वाचन क्षेत्र थे जहां 2018 में ऐतिहासिक रूप से करीबी मुकाबले और भी कड़े थे. उदाहरण के लिए, अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट पीलीबंगा में तीन दशकों से अधिक समय से करीबी मुकाबले हुए हैं, जिसमें मार्जिन लगातार 5 प्रतिशत से कम रहा है. 2018 में बीजेपी के धर्मेंद्र कुमार ने कांग्रेस के विनोद कुमार पर 278 वोट (0.12 फीसदी) से जीत दर्ज की.
इस बीच, मारवाड़ जंक्शन में, दोनों राष्ट्रीय दलों ने जमीन हासिल करने के लिए संघर्ष किया और एक स्वतंत्र उम्मीदवार, खुशवीर सिंह, जिन्होंने कांग्रेस के खिलाफ विद्रोह किया था, ने केवल 245 वोटों (0.15 प्रतिशत) के अंतर से जीत हासिल की.
दिप्रिंट से बात करते हुए, राजस्थान विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर श्याम मोहन अग्रवाल ने बताया कि ये 40 सीटें कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए महत्वपूर्ण क्यों हैं.
“जब सरकार बनाने की बात आती है तो ये सीटें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं. इन सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों विशेष ध्यान केंद्रित करेंगे क्योंकि परिणाम आसानी से किसी भी तरफ जा सकते हैं, ”उन्होंने कहा. “कभी-कभी बहुत कम वोटों से जीत और हार बदल सकती है. एक वोट से सरकारें बनती हैं. एक वोट से सीटें जीती जाती हैं.”
अग्रवाल ने कांग्रेस नेता सी.पी. जोशी का उदाहरण भी दिया. जो वर्तमान में राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष हैं, जो 2008 में नाथद्वारा से एक वोट से हार गए थे. उस समय, राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले जोशी को अशोक गहलोत की जगह सीएम के लिए कांग्रेस आलाकमान की पसंद बताया गया था. अग्रवाल ने कहा, “इस लिहाज से, 1 प्रतिशत भी बहुत है.”
यह भी पढ़ें: बीजेपी 6,064 करोड़ रुपए के साथ भारत की सबसे अमीर पार्टी, इस साल 1,050 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई: ADR
2018 में, भाजपा ने सभी क्षेत्रों में कम अंतर से जीत के साथ एक रिकॉर्ड बनाया. कुछ मामलों में, यह पार्टी के लिए एक सकारात्मक संकेतक का प्रतिनिधित्व करता है.
उदाहरण के लिए, 1962 के बाद से किसी भी निवर्तमान विधायक ने बाड़मेर जिले के सिवाना पर दोबारा कब्जा नहीं किया था. हालांकि, भाजपा के हमीर सिंह भायल ने इस प्रवृत्ति को तोड़ दिया, भले ही वोटों का अंतर केवल 957 यानि (0.6 प्रतिशत) था.
इसी तरह, भाजपा विधायक नारायण सिंह देवल की रानीवाड़ा सीट पर 1980 के बाद से कोई मौजूदा उम्मीदवार नहीं जीता था, लेकिन 2018 में उन्होंने 3,405 वोटों (1.83 प्रतिशत) से जीत हासिल की. चोमू, जहां 1962 के बाद से किसी भी पार्टी ने लगातार जीत नहीं देखी थी, 2018 में भाजपा ने उसे बरकरार रखा. रामलाल शर्मा ने 1,288 वोटों (0.69 प्रतिशत) के अंतर से जीत हासिल की.
इस बीच, बीजेपी के कई दिग्गज जीत हासिल करने में कामयाब रहे. पूर्व मंत्री राजेंद्र सिंह राठौड़ (चूरू) और प्रताप सिंह (छबड़ा) दोनों क्रमशः 1,800 और 3,700 वोटों के अंतर से जीत की कगार पर थे. चार बार के विधायक और वसुंधरा राजे सरकार में पूर्व मंत्री कालीचरण सराफ ने सिर्फ 1,700 वोटों की बढ़त के साथ अपनी सीट सुरक्षित की थी.
अग्रवाल ने कहा कि ऐसी सीटों पर जीत सुनिश्चित करने के लिए बीजेपी को एकजुट नेताओं की जरूरत होगी.
विशेष रूप से, जबकि राजस्थान भाजपा के पास अतीत में तीन बार के पूर्व सीएम भैरों सिंह शेखावत जैसे दिग्गज नेता रहे हैं, यह केवल वसुंधरा राजे के नेतृत्व में था कि पार्टी ने 2003 में 200 में से 120 सीटें जीतकर स्वतंत्र बहुमत हासिल किया था.
हालांकि राजे को अगले चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने 2013 में 163 सीटें हासिल करके भाजपा को शानदार जीत दिलाई.
हालांकि, पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व उन्हें आगामी चुनाव में पार्टी के चेहरे के रूप में पेश करने में झिझक रहा है, कथित तौर पर अन्य दावेदार भी सामने आए हैं, जिनमें केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, पूर्व राज्य भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सी.पी. जोशी शामिल हैं.
केंद्रीय नेतृत्व के करीबी भाजपा नेताओं ने तर्क दिया है कि राजे और सीएम उम्मीदवारी के अन्य दावेदारों को दरकिनार करना “आंतरिक कलह को रोकने” की एक रणनीति है. फिर भी, राजे स्पष्ट रूप से केंद्रीय नेतृत्व के साथ नहीं हैं और भाजपा की राज्य इकाई में उनके बड़े अनुयायियों को देखते हुए, सीट मार्जिन संभावित रूप से प्रभावित हो सकता है.
कांग्रेस के लिए चुनौतियां
कांग्रेस ने पिछले दो दशकों में राजस्थान में दो बार सरकार बनाई है, लेकिन स्पष्ट बहुमत हासिल करने में असमर्थ रही है, 2008 में 96 सीटें और 2018 में 100 सीटें हासिल कीं.
गौरतलब है कि 2018 में बागी उम्मीदवारों ने पार्टी को बहुमत से वंचित करने में भूमिका निभाई थी. दो बागी, बलजीत यादव और आलोक बेनीवाल, आधिकारिक उम्मीदवारों से अपनी-अपनी सीटें छीनने में कामयाब रहे और प्रत्येक ने लगभग 3,800 वोटों से जीत हासिल की.
जिन 15 सीटों पर कांग्रेस ने मामूली अंतर से जीत हासिल की, उनमें से दो पर उन वरिष्ठ नेताओं ने चुनाव लड़ा था, जो गहलोत सरकार के कट्टर समर्थक माने जाते हैं. जहां राज्य के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सालेह मोहम्मद महज 339 वोटों की बढ़त से अपनी सीट पर कायम रहे, वहीं सीएम के सलाहकार और चार बार के विधायक जितेंद्र सिंह सिर्फ 957 वोटों से जीते.
राजनीतिक विश्लेषक ओम सैनी 2018 में कांग्रेस के बहुमत के आंकड़े से दूर रहने का श्रेय आंशिक रूप से गहलोत विरोधी सचिन पायलट को देते हैं.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “सचिन पायलट पीसीसी प्रमुख थे और उन्होंने अपने लोगों को टिकट दिया, जो हार गए. अन्यथा, कांग्रेस के पास आसान बहुमत होता. जो सीटें बसपा और अन्य छोटी पार्टियों को गईं, उन्हें कांग्रेस तक सीमित किया जा सकता था.”
सैनी ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस ने इस बार टिकट वितरण के लिए आंतरिक सर्वेक्षणों के नतीजों पर भरोसा करते हुए एक अलग रणनीति अपनाई है. इसके अलावा, ऐसे संकेत हैं कि कांग्रेस ने अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच स्पष्ट तौर पर समझौता करा दिया है.
यह ध्यान देने योग्य है कि 1998 के बाद से, किसी भी मौजूदा पार्टी ने राजस्थान में जीत हासिल नहीं की है, जिससे गहलोत सरकार को कल्याणकारी योजनाओं की एक श्रृंखला शुरू करने सहित विभिन्न तरीकों से सत्ता विरोधी भावनाओं का मुकाबला करने के लिए हाल के महीनों में अपने प्रयासों को तेज करना पड़ा है.
हालांकि, जैसा कि सैनी कहते हैं: “जब हवा बदलती है, तो सब कुछ बदल जाता है. फिर प्रतिशत कोई मायने नहीं रखता.”
(अनुवाद/ पूजा मेहरोत्रा)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: ‘राजनीति पर चर्चा नहीं हुई’ – BJP नेता तेजस्विनी अनंत कुमार से मुलाकात के बाद कर्नाटक कांग्रेस प्रमुख शिवकुमार