नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसके सहयोगी दल फिर से सत्ता में काबिज होने के करीब नजर आ रहे हैं, जो कि शुरुआती चुनावी रुझानों में 227 सीटों पर आगे चल रहे हैं, जबकि इसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी (सपा) और उसके सहयोगी 108 सीटों पर आगे चल रहे हैं.
रुझानों के मुताबिक बहुजन समाज पार्टी (बसपा) 6 सीटों पर आगे चल रही है, जबकि कांग्रेस 5 सीटों पर आगे है.
अगर भाजपा जीती, तो 1985 के बाद यह पहली बार होगा कि यूपी में कोई पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में आएगी. और योगी आदित्यनाथ भारत के सबसे बड़े राज्य के एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री बन जाएंगे, जिन्हें पूरे पांच साल के कार्यकाल के बाद नए सिरे से जनादेश मिला है.
यूपी की जीत का असर 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की राजनीतिक संभावनाओं पर भी पड़ेगा.
गौरतलब है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में कहा भी था कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है.
उन्होंने कहा था, ‘चूंकि उत्तर प्रदेश में लोकसभा में 80 सीटें हैं, इसलिए 2024 में सत्ता में लौटने के लिए उत्तर प्रदेश में भाजपा का सत्ता में होना बहुत जरूरी है. अगर कोई केंद्र में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाना चाहता है, तो यह उत्तर प्रदेश में जनादेश हासिल किए बिना नहीं हो सकता.’
यूपी चुनावों को 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए एक संकेतक माना जा रहा है जिसके नतीजे बताते हैं कि भाजपा का हिंदुत्व एजेंडा—चाहे वह अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो या वाराणसी में काशी विश्वनाथ गलियारा—और मोदी सरकार की गरीब-कल्याणकारी योजनाएं और बेहतर कानून-व्यवस्था की स्थिति यह सब साथ मिलकर किसानों के गुस्से, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और कोविड की दूसरी लहर के दौरान कुप्रबंधन जैसे मुद्दों पर भारी पड़े हैं.
राजनीतिक विश्लेषक सुहास पल्शीकर ने दिप्रिंट को बताया, ‘किसी अन्य बात की तुलना में इस जीत का प्रभाव सांस्कृतिक अधिक होगा…और भाजपा इसका इस्तेमाल 2024 के लोकसभा चुनावों में अपने हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए करेगी. मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल को हिंदुत्व के मोर्चे पर जोर देने के जाना जाता है. जो कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार की नाकामियों के मुद्दे पर भारी पड़ता ही नजर आता है.’
पल्शीकर ने कहा कि यूपी के चुनाव नतीजे न केवल राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण साबित होंगे बल्कि गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी इसका प्रभाव पड़ेगा.
2017 में बिना सीएम चेहरे के सिर्फ मोदी लहर पर सवार होकर, भाजपा और उसके सहयोगियों ने देश के सबसे बड़े राज्य में 403 में से 325 सीटें जीतने में सफलता हासिल की थी. इस जीत ने 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की सियासी स्थिति को मजबूत किया. पार्टी ने कुल 80 सीटों में से 62 पर अकेले भाजपा ने जीत हासिल की.
उस समय भाजपा ने राजनीति के मैदान में कथित तौर पर कोई बड़ा कद न रखने वाले गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ को सीएम चुनकर सबको आश्चर्य में डाल दिया था. आदित्यनाथ का पांच साल का कार्यकाल तमाम उतार-चढ़ावों से भरा रहा है. पश्चिमी यूपी में किसान आंदोलन और लखीमपुर खीरी की घटना, जिसमें आठ लोग मारे गए थे, ने राज्य में पार्टी के लिए एक असहज स्थिति खड़ी कर दी थी.
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अखिलेश के नेतृत्व की परीक्षा
चुनाव के शुरुआती रुझानों के मुताबिक, सपा भाजपा को कड़ी टक्कर देने की अपनी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाई है. बहरहाल, यूपी चुनाव के नतीजे किसी और बात से ज्यादा अखिलेश यादव के नेतृत्व की परीक्षा माने जा रहे हैं.
अखिलेश यादव ने इस चुनाव में यादवों और मुसलमानों के अपने मूल जनाधार से इतर हटकर पार्टी के कदम मजबूती से जमाने की कोशिश की है. यही वजह है कि उन्होंने अन्य पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया, इनमें जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल, ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, केशव देव मौर्य का महान दल और कृष्णा पटेल की अपना दल (कामेरावादी) शामिल है.
लेकिन लगता है कि उनका यह प्रयोग फ्लॉप हो गया है.
2017 के बाद से अखिलेश के नेतृत्व में यह सपा की लगातार तीसरी हार होगी. तब राज्य में सत्तासीन पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनावों में 311 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे और सिर्फ 47 सीटों (21.82 प्रतिशत वोट शेयर के साथ) पर जीत हासिल कर सकी थी. कांग्रेस के साथ उसका गठबंधन मतदाताओं को उत्साहित करने में नाकाम रहा था.
इसके दो साल बाद ही 2019 में पार्टी ने लोकसभा चुनावों के लिए बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ गठबंधन किया, लेकिन यह गठबंधन भी अपनी छाप छोड़ने में विफल रहा. सपा ने जिन 37 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से सिर्फ 5 पर ही जीत हासिल हुई थी, और उसका वोट शेयर 18.11 फीसदी रहा था.
नतीजे बसपा को राजनीतिक अप्रासंगिकता की ओर धकेलने वाले
इससे बसपा की सियासी संभावनाओं को एक झटका लगा है. शुरुआती चुनावी रुझान बताते हैं कि बसपा छह सीटों पर आगे चल रही है. कोई खास प्रदर्शन न कर पाना दर्शाता है कि मायावती का मूल वोट बैंक जाटव पार्टी से दूर हो गया है और पार्टी सियासी स्तर पर अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है.
2017 में बसपा ने 22.23 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 403 सीटों में से 19 पर जीत हासिल की थी. 2019 के लोकसभा चुनावों में 383 सीटों पर उतरी पार्टी ने 3.67 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 10 सीटें जीती थी.
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