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Friday, 22 November, 2024
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राम मंदिर मुद्दा है मोदी का असली इम्तहान

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अयोध्या मसला वह कसौटी है, जो मोदी की राजनीतिक क्षमता की परीक्षा लेगी, क्योंकि इसका जो भी हल ढूँढा जाए, एक पक्ष दूसरे पक्ष से ज्यादा असंतुष्ट ही रहेगा

जब कि राम मंदिर मसले ने फिर तूल पकड़ ली है, सबकी निगाहें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर टिक गई हैं कि वे इस विस्फोटक विवाद, भावनात्मक मुद्दे को किस तरह सुलझाते हैं. मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के आदेश के खिलाफ अपील पर सुनवाई शुरू तो कर दी है लेकिन हकीकत यह है कि अदालत जो भी फैसला सुनाए, उसे लागू तो राजनीतिक सत्तातंत्र को ही करना है. और यहीं प्रधानमंत्री की राजनीतिक क्षमता की परीक्षा होगी क्योंकि एक पक्ष दूसरे पक्ष से ज्यादा असंतुष्ट होकर सुलह वार्ता से वाकआउट कर देगा.

इस हालत में मोदी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से एक सबक तो ले ही सकते हैं, हालांकि दोनों की कार्यशैली एकदम अलग थी. यह 2001 के आखिरी दिनों की बात थी जब राम मंदिर आंदोलन के दो प्रभावशाली नेता- विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के अशोक सिंघल और रामजन्मभूमि न्यास के रामचंद्र परमहंस- ने उस समय भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्रीय सरकार पर दबाव डाला था कि जिस मसले ने उसे राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में पहुंचा दिया है, उस पर ध्यान दे. वाजपेयी इस पेचीदा मसले से न तो कतरा सकते थे और न उसकी उपेक्षा कर सकते थे, खासकर इसलिए कि उनके डिप्टी लालकृष्ण आडवाणी ही इस आंदोलन के पुरोधा थे.

सो, वाजपेयी ने सिंघल और परमहंस को संतुष्ट करने के लिए सीधे पीएमओ के अधीन एक अयोध्या सेल का गठन कर दिया. इसके बाद उन्होंने अपने भरोसेमंद अधिकारी अशोक सैकिया को एक युवा अधिकारी की खोज करने को कहा, जो फैजाबाद-अयोध्या क्षेत्र का एक सक्षम जिला मजिस्ट्रेट था. अयोध्या सेल के लिए पूरा तामझाम मुहैया करा दिया गया, उसके कार्यालय के लिए पीएमओ में एक कमरा और विज्ञान भवन में दो कमरे दिला दिए गए. सेल के लिए जिस प्रभारी को चुना गया उनका नाम शत्रुघन सिंह था. उन्होंने मसले से जुड़े सभी दावेदारो से मिलना शुरू कर दिया और सैकिया को सारी जानकारी देने लगे.

इन सबने मिलकर प्रधानमंत्री के विचारार्थ संभावित समाधान के तीन विकल्प तैयार किए.

पहला: हिंदुओ को मंदिर बनाने दिया जाए और मुसलमान भी एक शानदार मस्जिद बनाएं. यह मस्जिद उस जगह से कुछ किलोमीटर दूर बनाई जाए, जिस जगह पर बाबर के सेनापति मीर बाकी ने डेरा डाला था. माना जाता है कि बाकी ने ही बाबरी मस्जिद बनवाई थी. लेकिन इस विकल्प में एक पेच यह था कि हिंदू गुटों को यह गारंटी देने के लिए राजी करना था कि वे मथुरा और काशी में मंदिर-मस्जिद विवाद में अपने दावों को वापस ले लेंगे
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दूसरा: विवादित स्थल को दो हिस्सों में बांट दिया जाए और धार्मिक अनुष्ठानों को बिना टकराव के करने के लिए एक समझौते का मसौदा तैयार किया जाए.

तीसरा: हिंदू लोग विवादित ढांचे से कुछ दूर ‘आरा घर’ के, जिसे सरकार ने अधिग्रहीत कर लिया है, पास मंदिर बनाएं.

ये फार्मूले समाधान निकालने की वार्ता का आधार बन सकते थे. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी और दूसरे सुन्नी संगठनों ने इस अभिक्रम में ज्यादा भरोसा नहीं जताया. इस मामले के सबसे पुराने वादी हाशिम अंसारी से, जो अब जीवित नहीं हैं, भी कुछ अनौपचारिक बातचीत की गई.

अयोध्या सेल के गठन के करीब तीन महीने बाद फरवरी 2002 में पीएमओ के स्टाफ ने वाजपेयी के समक्ष इसका विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया. इस प्रस्तुतीकरण में सभी सम्भावनाओं को प्रभावशाली रेखाचित्रों तथा आकड़ों के साथ रखा गया. वाजपेयी इस दौरान एक शब्द भी नहीं बोले मगर अपने खास लहजे में वे यह टिप्पणी करके बैठक से चले गए कि ‘‘आप लोग छात्र बहुत अच्छे हैं.’’

कोई निर्देश नहीं आया. इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डालकर हमेशा के लिए भुला दिया गया. अयोध्या सेल धीरे-धीरे बिखर गया, इसके अधिकारियों को कैबिनेट सचिवालय में तैनात कर दिया गया, हालांकि सेल का अस्तित्व कागज पर और विज्ञान भवन में बना रहा. यह भी नहीं मालूम कि मनमोहन सिंह सरकार ने इसे बंद करने का सरकारी आदेश दिया भी या नहीं.

मार्के की बात यह है कि यह मसला फिर नहीं उभरा, सिवा तब जब विहिप ने विवादित स्थल पर शिलान्यास करना चाहा. यह उक्त प्रस्तुतीकरण के चंद महीने बाद ही हुआ. सैकिया ने शत्रुघन सिंह को तलब किया, जो परमहंस के पास यह अनुरोध करने पहुंचें कि वे शिलान्यास विवादित स्थल की जगह अपने आश्रम में कर लें. यह उपाय मान्य हुआ और सुलगता संकट टल गया.

इसके बाद काफी समय गुजर चुका है. सिंघल, परमहंस और अंसारी इस दुनिया से कूच कर चुके हैं. दूसरे लोग बुढ़ा चुके हैं. लेकिन ऐसे लोग मौजूद हैं, जो मसले को जीवित रखे हुए हैं.

महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि अदालत क्या फैसला देता है, बल्कि यह है कि मोदी सरकार क्या रुख़ अपनाती है. राजनीतिक कारणों से वह इस लपट को हवा देती है या सांप्रदायिक तेवरों को शांत करने के लिए ज्यादा उदार समाधान अपनाती है? मोदी के सामने यह विकल्प है क्योंकि वाजपेयी सरीखे नेता ने ऐसे समय में युक्ति कौशल से काम लिया था जब घाव हरे थे और भाजपा के प्रथम प्रधानमंत्री पर मंदिर बनवाने का दबाव चरम पर था.

सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने से शुरुआत करके मोदी सरकार आगे जो कदम उठाती है वह उनके कार्यकाल के सबसे महत्वपूर्ण कदमों में गिना जाएगा. एक बात साफ है. आगे हर कदम राजनीतिक ही होगा, चाहे कानून की ओट लेने का फैसला ही क्यों न हो.

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