गोरखनाथ मन्दिर स्थानीय राजनीति का हमेशा से केन्द्र रहा है और ऐसा विश्वास है कि जिस उम्मीदवार को इस मन्दिर का आर्शीवाद है, वही चुनाव में जीत हासिल करता है.
नई दिल्ली: 25 साल पहले प्रबल हिन्दुत्व लहर जो कि बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद चली थी, तब समाजवादी पार्टी (एसपी) व बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने गठबंधन की थी. नतीजा: गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बना ली.
आज, बीजेपी के कट्टर प्रतियोगी जो कि फिर गठबंधन में हैं, बीजेपी को उसकी सबसे सुरक्षित सीट ‘गोरखपुर’ से हरा दिया. यह सीट 1991 से पार्टी के पास थी, वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यहां से लगातार पांच बार जीत हासिल की है.
बीच में केवल 1999 में विपक्ष इस सीट को लगभग जीत लेने वाली थी, जब आदित्यनाथ की जीत का मार्जिन घटकर 7300 वोट रह गया था. तब अदित्यनाथ ने गोरखपुर व आसपास के क्षेत्रों में अपनी स्थिति मजबूत बनाने के लिए ‘हिन्दु युवा वाहिनी’ का गठन किया.
जाति समीकरण काम करता है
जब चुनावों से एक हफ़्ता पहले, बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने घोषणा की कि उनकी पार्टी एसपी उम्मीदवारों को समर्थन देगी तो प्रश्न उठाए गए कि क्या इनकी पार्टी के वोटर, इनके कट्टर प्रतिद्वंदी को वोट देने के लिए राजी होंगे.
दलित विचारक व जेएनयू के प्रोफेसर, बद्री नारायण ने कहा, ‘नतीजों से यह बात सामने आई है कि वे ओबीसी, दलित व मुस्लिमों में एक खुला जाति आधारित गठबन्धन कायम करने में सफल हुए हैं और बीजेपी के अति-आत्मविश्वास व विरोधी लहर ने भी विपक्ष को प्रबल समर्थन दिलाया है.’
गोरखपुर में, एसपी ने केवल दो साल पहले बनी निषाद पार्टी के डाक्टर संजय निषाद के पुत्र प्रवीण निषाद को मैदान में उतारा है. 2017 के विधानसभा चुनावों में, निषाद पार्टी ने, दो अन्य ‘महान दल’ व ‘पीस पार्टी’ के गठबन्धन में गोरखपुर व आसपास के क्षेत्रों में, जहां निषाद की की जनसंख्या काफी ज्यादा है, वहां 17 सीटों पर चुनाव लड़ा. परन्तु वे एक सीट पर भी जीत हासिल न कर सके. बीजेपी ने 2017 में गोरखपुर में पांचों विधानसभा क्षेत्रों पर जीत लगभग 20000 से भी अधिक मार्जिन पर हासिल की थी.
इन उपचुनावों में, एसपी के पक्ष में केवल बीएसपी ही नहीं थी, बल्कि इसे ‘पीस पार्टी’, ‘महान दल’ और ‘निषाद पार्टी’ का भी समर्थन हासिल था, जिस वजह से यह दलितों, ओबीसी, मुस्लिमों व अधिकतम पिछले वर्ग (एमबीसी) वोटों का ज्यादा हिस्सा हासिल कर सकी.
यह सामाजिक गठबन्धन, बीजेपी के उच्च जाति वोट आधार, जिसमें ठाकुर, ब्राह्मण, कायस्थ और कुछ एमबीसी भी हैं, से मजबूत साबित हुआ है.
फूलपुर में, जहां जनसंख्या में पटेल काफी ज्यादा हैं, वहां बीजेपी के कैशलेन्द्र पटेल के मुकाबले में एसपी ने स्थानीय नागेन्द्र पटेल को मैदान में उतारा. परन्तु प्रवाह यह बताता है कि जिन पटेलों ने लोकसभा व विधानसभा चुनावों में बीजेपी को वोट दिया था, वह एसपी के साथ हो गए.
नजरबंद अपराधी अतीक अहमद, जो भूतपूर्व एसपी सदस्य हैं और जिसने निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव लड़ा था, उनसे उम्मीद की जा रही थी कि वह एसपी-बीएसपी गठबन्धन का मुस्लिम वोट खराब कर देंगे, केवल 20000 वोट ही हासिल कर सके.
शहरी इलाकों में भी जैसे कि पश्चिमी इलाहाबाद, बीजेपी, एसपी से आगे बढ़ने के लिए संघर्ष कर रही थी. फूलपुर में, जहां एसपी ने चार बार जीत हासिल की है, कभी भी बीजेपी की स्थिति मजबूत नहीं रही. यहां के एकमात्र बीजेपी प्रतिनिधि, डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य, ने 2014 में 5,03,564 वोट हासिल कर तीन लाख वोटों के मार्जिन पर सीट पर जीत हासिल की थी. एसपी व बीएसपी की कुल वोट 3,58,966 थे. जबकि 2017 में बीजेपी ने फूलपुर की पांचों विधानसभा सीटों पर 30,000 वोट के औसतन मार्जिन पर जीत हासिल की थी.
योगी के लिए इसका अर्थ
ऐसा माना जा रहा है कि गोरखपुर की हार बीजेपी व योगी आदित्यनाथ के लिए बहुत बड़ा नुकसान है. गोरखपुर मन्दिर स्थानीय राजनीति का केन्द्र रहा है और केवल वही उम्मीदवार यहां से जीतते हैं जिन पर ‘इनका आर्शीवाद’ होता है, ऐसा विश्वास है. चाहे पद मेयर का हो या विधायक का.
यह बड़े अचरज की बात थी कि बीजेपी ने पिछले हफ़्ते के उपचुनावों के लिए उपेन्द्र दत्त शुक्ला को उम्मीदवार घोषित किया था, जबकि उनके आदित्यनाथ के साथ मतभेद बहुचर्चित हैं. 2006 के ‘कौरिराम’ उपचुनाव में विधानसभा सीट के लिए आदित्यनाथ के दखल के कारण शुक्ला को इस सीट के टिकट से वंचित कर दिया गया था.
शुक्ला ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और बाद में वोटों के बंटवारे ने सीट एसपी को जीता दी. शुक्ला एक ब्राह्मण हैं और उनका चुनाव ब्राह्मणों का समर्थन पाने की कोशिश में किया गया, जो कि अदित्यनाथ की सरकार में ठाकुरों की बढ़ती ताकत से परेशान थे. आदित्यनाथ ठाकुर समुदाय से सम्बन्ध रखते हैं.
असल में, आदित्यनाथ ने बीजेपी की जीत पक्की करने के लिए गोरखपुर में एक पड़ाव डाला, परन्तु पार्टी की इसके बावजूद हुई हार पूर्वाचंल में एक बड़े सत्ता परिवर्तन का इशारा हो सकती है.
यह दोहरी हार आदित्यनाथ व उनके डिप्टी मौर्य के विख्यात विरोध को और बढ़ा सकती है. कुल मिलाकर, यह नतीजे बीजेपी के अपनी 2014 की टैली, यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 73, को बनाए रखने के अपने लक्ष्य में काफी नाकामयाब साबित हो सकते हैं.
अगर पार्टी यूपी से अपनी कुछ सीटें हार जाती है, तो दूसरे राज्यों से इसके लिए इस खालीपन की भरपाई कर पाना काफी मुश्किल होगा.
विरोधी गठबन्धन के लिए इसका अर्थ
इस जीत से ‘विपक्ष एकता’ की बात को 2019 से पहले निश्चित रूप से बढ़ावा मिलेगा.
अगली बार, जब 27 मार्च को विपक्षी नेताओं की गठबंधन सम्बंधी मीटिंग होगी, तो कुछ सफलता उनके हाथ जरूर लगेगी. उदाहरण के तौर पर 2017 में एसपी व बीएसपी का संयुक्त वोट का भाग बीजेपी के 41 प्रतिशत के मुकाबले 50 प्रतिशत पर कहीं ज्यादा था. जेएनयू के बद्री नारायण के अनुसार, ‘यह केवल एक शुरूआत है तथा एसपी – बीएसपी को यहां से आगे बढ़ने की आवश्यकता है. बीजेपी को केवल तभा हटाया जा सकता है अगर विरोधी पार्टियां एक हों और ध्यानपूर्वक योजना बनाएं. इस नतीजे ने उन्हें आगे का रास्ता दे दिया है.’
वरिष्ठ बीएसपी नेता सुधीन्द्र भदौरिया के अनुसार, ‘हमारी नेता, मायावती जी ने, एसपी को समर्थन देने का फैसला बड़े दिल से किया है, ताकि संविधान व संविधान का पालन करने वालों की रक्षा की जा सके. कोई भी अजेय नहीं है और नतीजे यह दिखाते हैं कि मोदी जी चाहे कुछ भी कहें फिर भी दलित, अल्पसंख्यक और गरीब यह नहीं भूल सकते कि बीजेपी ने सामाजिक एकता को भंग करके कितना नुकसान किया है.’
उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष के नेता व वरिष्ठ एसपी नेता राम गोविंद चैधरी ने कहा, ‘मैं मायावती जी का एसपी को समर्थन देने के लिए धन्यवाद करता हूँ. अगर आज हम अच्छा प्रदर्शन करते हैं, तो भविष्य भी हमारा ही होगा.’