छपरा/बलिया: जयप्रकाश नारायण की जनता पार्टी ने 1977 में इंदिरा गांधी की सरकार को सत्ता से हटाकर देश को पहली गैर-कांग्रेस सरकार दी थी, लेकिन बिहार के जिस गांव सीताबदियारा में उनका जन्म 1902 में हुआ था, वहां हालात आज भी नहीं बदले हैं.
गंगा और घाघरा नदियों के बीच बसा यह गांव आज प्रशासनिक उलझन का उदाहरण है. 1902 में जो गांव एक था, अब वह दो राज्यों—उत्तर प्रदेश और बिहार के तीन ज़िलों (सारण, भोजपुर और बलिया) में बंटे पांच ग्राम पंचायतों में बंट चुका है.
जेपी, जिन्हें लोग ‘लोकनायक’ कहते हैं, का जन्म जिस घर में हुआ था, वह बिहार के सीताबदियारा ग्राम पंचायत में आता है. उनके पिता हर्सु दयाल राज्य के नहर विभाग में कर्मचारी थे और मां फूलरानी देवी थीं. जेपी ने 12 साल की उम्र तक गांव में रहकर पढ़ाई की, फिर पटना के कॉलेजिएट स्कूल चले गए.
अब उनके परिवार का कोई सदस्य गांव में नहीं रहता, लेकिन उनका असर हर जगह दिखता है—हर घर में उनकी तस्वीरें हैं, दीवारों पर उनके विचार लिखे हैं. गांव वाले आज भी उनके बारे में गर्व से बात करते हैं, हालांकि, कहते हैं कि उनकी विरासत का इस्तेमाल सिर्फ राजनीति के लिए किया गया है.

भगवान मांझी (67) खुद को गर्व से “जेपी का सेवक” कहते हैं. वे विजिटर्स को जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय स्मारक में लगी पुरानी तस्वीरें दिखाते हैं—वही इमारत जहां जेपी ने बचपन के दिन बिताए थे.
तस्वीरों की ओर इशारा करते हुए मांझी बताते हैं कि 1970 के दशक में बिहार के कई बड़े नेता—मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव, लोजपा के रामविलास पासवान और जनसंघ के नेता एल.के. आडवाणी व रविशंकर प्रसाद—सब जेपी से गहराई से प्रभावित थे.
मांझी ने कहा, “आज भी बहुत से नेता खुद को जेपी का असली वारिस बताते हैं, लेकिन सच्चाई तो उनकी (जेपी की) आत्मा ही जानती है.”
इसी समय पास के गांव का 16 साल का छात्र और वीडियो ब्लॉगर प्रिंस कुमार अपने रिश्तेदार के साथ स्मारक देखने आए थे.
उन्होंने कहा, “मेरे लिए भगत सिंह आदर्श हैं, लेकिन मां-बाप ने कहा कि जेपी के बारे में भी जानो. मैं यहां रील्स बनाने आया हूं ताकि मेरे दोस्त भी डिजिटल प्लेटफॉर्म पर जेपी को जान सकें.” उनका मानना है कि सरकार को जेपी के विचारों और जीवन पर ऑनलाइन कैंपेन चलाने चाहिए, ताकि युवाओं को प्रेरणा मिले.
लगातार उपेक्षा
गांव वालों का कहना है कि जेपी से जुड़ा होने के बावजूद किसी सरकार ने सीताबदियारा को बदला नहीं. करीब 2,300 परिवार और 11,000 आबादी वाला यह गांव आज भी टूटी सड़कों, जलजमाव, कम स्कूलों और अस्पतालों के बीच जी रहा है. रोज़गार के मौके भी बहुत कम हैं. हर साल गंगा और घाघरा के बहाव में बदलाव से बाढ़ आती है और किसान पानी उतरने का इंतज़ार करते हैं ताकि फसल बो सकें.
लाल बाबू मांझी (35) का घर तीन साल पहले बाढ़ में बह गया था. उन्होंने कहा, “सरकार को नदी कटाव रोकने की व्यवस्था करनी चाहिए. अगर बाढ़ नहीं रोकी जा सकती, तो कम से कम मुआवज़ा ठीक से मिलना चाहिए.”
60 साल के किसान दीननाथ सिंह ने कहा, “हर साल नेता लोग जेपी की जयंती पर स्मारक आते हैं, लेकिन गांव के अंदरूनी इलाकों में कोई नहीं झांकता. अगर आते, तो सड़कों की हालत देख लेते. इस बार चुनाव से पहले भी सब सिर्फ फोटो खिंचवाने आएंगे.”
लालू यादव के समर्थक साधू यादव मानते हैं कि किसी भी पार्टी ने विकास नहीं किया. उन्होंने कहा, “लालू, नीतीश, पासवान—सब खुद को जेपी का अनुयायी बताते हैं, लेकिन किसी ने उनके गांव के लिए कुछ नहीं किया.”

गांव का यूपी बॉर्डर से सटा होना भी समस्या है. 48 साल की कुमारी देवी ने कहा, “बिहार में शराबबंदी है लेकिन यूपी की तरफ आसानी से मिल जाती है. लोग वहां से लाकर बेचते हैं और दोनों राज्यों की पुलिस बस एक-दूसरे को दोष देती रहती है.”
उन्होंने कहा, “अब मैं वोट ही नहीं दूंगी, क्योंकि किसी ने हालात सुधारे ही नहीं.”
गांव वालों को उम्मीद थी कि जब पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रूडी ने प्रधानमंत्री की अपील पर इस गांव को गोद लिया था, तो हालात बदलेंगे, लेकिन कुछ खास नहीं हुआ.
अक्टूबर 2022 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सीताबदियारा का दौरा किया और छपरा से जोड़ने वाला एक पॉनटून ब्रिज बनाने की घोषणा की थी, जिससे दूरी 40 किलोमीटर से घटकर 15 किलोमीटर रह जाती, लेकिन उस पर काम शुरू ही नहीं हुआ.
बीजेपी सांसद राजीव प्रताप रूडी और ज़िला मजिस्ट्रेट से दिप्रिंट ने बात करने की कोशिश की, पर संपर्क नहीं हो सका.
जेपी लाइब्रेरी के देखभालकर्ता अरुण सिंह कहते हैं कि “2015 से पहले हालात और भी खराब थे. नीतीश सरकार ने ही जेपी मेमोरियल के निर्माण की घोषणा की थी. हाल ही में उपराष्ट्रपति सी.पी. राधाकृष्णन भी आए थे. अफसर अब स्थानीय समस्याओं से वाकिफ हैं. मुझे भरोसा है कि समय के साथ ये समस्याएं सुलझेंगी.”

यूपी-बिहार का फर्क
गांव के लोगों का मानना है कि सीताबदियारा का बिहार वाला हिस्सा, जो तीन ग्राम पंचायतों में बंटा है, आज भी यूपी के बलिया ज़िले वाले हिस्से से काफी पीछे है. ग्रामीणों के अनुसार, यूपी वाले हिस्से में सड़कें, साइनबोर्ड और दूसरी सुविधाएं कहीं बेहतर हैं. वे इसका श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को देते हैं.
यूपी वाले हिस्से के निवासी उपेंद्र यादव ने कहा, “चंद्रशेखर जी जेपी की विरासत का सम्मान करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सच्चे दिल से काम कराया.”
यूपी के हिस्से में जेपी नगर नाम की एक बस्ती भी है, जहां जनता पार्टी नेता के नाम पर बना पुराना स्मारक ट्रस्ट है. कहा जाता है कि जेपी ने अपने आखिरी दिन इसी स्मारक में बिताए थे. अब इस जगह की देखरेख चंद्रशेखर का परिवार करता है, जबकि बिहार वाला स्मारक सरकार के अधीन है.
सीताबदियारा के पूर्व मुखिया के बेटे पंकज सिंह इस जगह की खासियत बताते हैं — “इतना बड़ा गांव किसी एक राज्य में शायद ही हो. जेपी के नाम से जुड़ा होने की वजह से कोई सरकार इसकी सीमाएँ बदलने या इसका नाम बदलने की हिम्मत नहीं करती.”
उन्होंने आगे कहा, “अगर यूपी और बिहार वाले सभी पांच ग्राम पंचायतों को मिलाकर देखा जाए, तो यहां की आबादी 50 हज़ार से ज़्यादा होगी. यहां के लोग गांव के अलग-अलग हिस्सों को पहचानने के लिए ‘टोला’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं. जैसे—जेपी लाला टोला में पैदा हुए थे, इसलिए जब कोई लाला टोला का ज़िक्र करता है, तो सब जानते हैं कि वह बिहार वाले हिस्से की बात हो रही है.”

राजनीतिक रणभूमि
सीताबदियारा ग्राम पंचायत छपरा विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आती है, जो पिछले दस सालों से भाजपा के कब्ज़े में है.
इस बार भाजपा ने अपने मौजूदा विधायक सी.एन. गुप्ता को टिकट नहीं दिया और स्थानीय नेता छोटी कुमारी को उम्मीदवार बनाया है. वहीं, राजद ने भोजपुरी स्टार खेसारी लाल यादव को मैदान में उतारा है, जिन्होंने जेपी की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर अपना चुनाव प्रचार शुरू किया.
लेकिन मुकाबला सिर्फ दो उम्मीदवारों के बीच नहीं है. भाजपा की बागी राकी गुप्ता ने निर्दलीय के रूप में नामांकन किया है, जबकि राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज ने स्थानीय नेता जय प्रकाश सिंह को मैदान में उतारा है.
यह सीट 6 नवंबर को पहले चरण के चुनाव में मतदान के लिए जाएगी.
लोगों की उम्मीदें और थकान
जिस गांव ने देश को सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक लोकनायक जयप्रकाश नारायण दिया, वहां के लोग आज भी असमंजस में हैं — क्या इस बार कुछ बदलेगा?
कुछ लोगों को उम्मीद है कि आने वाली सरकार उनकी ज़िंदगी बेहतर बनाएगी, जबकि कुछ को अब भरोसा नहीं रहा.
सीताबदियारा के ही रहने वाले अशोक सिंह ने कहा, “अब लोगों में उत्साह नहीं है. हर पार्टी बहुत वादे करती है, लेकिन निभाती कोई नहीं. लोग बार-बार वही बातें सुन-सुनकर थक चुके हैं…फिर भी कुछ युवा अब भी उम्मीद लगाए हुए हैं कि शायद इस बार कुछ अच्छा हो जाए.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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