जो नेता कल तक संसदीय कार्य में बाधा को जायज़ ठहराते थे, उन्हीं नेताओं ने फैसला लिया कि उनका रुख इस बात से तय होगा कि किस कुर्सी पर बैठे हैं.
पिछली लोकसभा का 68 प्रतिशत समय भाजपा की अगुआई में हुए हंगामों के कारण बरबाद हुआ था. इसलिए इस बात पर चकित होने की जरूरत नहीं है कि अब यूपीए के सांसद अपने पूर्ववर्तियों के नक्शे -कदम पर चल पड़े हैं. जब कि संसद का शीतकालीन सत्र देर से शुरू किया गया है, हंगामे और अड़ंगेबाजी का खतरा मंडरा रहा है. इसके साथ ही, सदन के पीठासीन अधिकारियों द्वारा इनसे निबटने के सख्त नए उपायों की जोरदार चर्चाएं भी होने लगी हैं.
मैं ऐसे हंगामों का गंभीर विरोधी रहा हूं. भारतीय संसदीय आचार-व्यवहार का मेरा प्रत्यक्ष अनुभव अभी मात्र दो सदनों का ही रहा है, इसलिए इस मामले में कुछ प्रकरणों तथा बयानों की मेरी यादें बहुत पुरानी नहीं हैं.
उस दिन सदन में पूरी अव्यवस्था फैली हुई थी लेकिन इसके लिए विपक्षी सांसद को कोई पछतावा है, ऐसा नहीं दिख रहा था. उन्होंने कहा, ‘‘हमलोगों ने इस सत्र में जो हंगामा शुरू किया है उसे हम जनता के बीच ले जाएंगे, जब तक कि निष्पक्षता और जवाबदेही बहाल नहीं हो जाती. अगर संसद के प्रति जवाबदेही का पालन नहीं किया जाता है और बहस सिर्फ इसे समाप्त करने के लिए रखी जाती है, तब विपक्ष के लिए यह रणनीति वैध हो जाती है कि वह उन संसदीय उपायों से सरकार का भंडाफोड़ करे, जिन्हें इस्तेमाल करना उसके हाथ में है.’’
वे इस बात को सही ठहरा रहे थे कि संसद को बाधा पहुंचाकर वे वही काम कर रहे थे जिसके लिए उन्हें निर्वाचित किया गया है, ‘‘बाधा पहुंचाने का अर्थ यह नहीं है कि काम मत करो. हम तो वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं.’’ उनसे पूछा गया कि क्या संसद का उपयोग बाधा पहुंचाने के बजाय चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए, तो विपक्षी सांसद का सीधा जवाब था, ‘‘राष्ट्रीय बहस तो जारी है. हर पहलू पर चर्चा हो रही है, भले ही संसद में नहीं हो रही है. यह बहस दूसरी जगह जारी है, जबकि सरकार संसद चला रही है. हमारी रणनीति यह है कि संसद में इस पर बहस मत होने दो, बस.’’
‘ओपन’ पत्रिका से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘‘बहस में आप एक मसले को ही तो निबटाते हैं. कभी-कभी बाधा पहुंचाने से देश को ज्यादा फायदा होता है.’’
एक अन्य वरिष्ठ विपक्षी नेता, पूर्व मंत्री रह चुकीं नेता से पूछा गया कि क्या आप नहीं जानतीं कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाने से राष्ट्रीय खजाने को कितना नुकसान होता है, कि इससे करदाताओं का करोड़ों रुपया बरबाद होता है. उन्होंने सहमति जताते हुए कहा, ‘‘संसद का अगर इस तरह समापन होता है तो आलोचना होती है. हमसे कहा जाता है कि संसद को चलने नहीं दिया गया इसलिए नुकसान हुआ. अगर संसद की कार्यवाही के कारण 10-20 करोड़ का नुकसान हुआ और हम सरकार पर दबाव बना सके तो यह स्वीकार्य है.’’
विपक्ष के बड़े नेता इस पर सहमत थे. एक पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहे नेता ने घोषणा की कि विधायी कार्य में बाधा पहुंचाने से ‘‘नतीजे मिलते हैं’’. एक पूर्व वित्त तथा विदेश मंत्री ने इसमें जोड़ा कि ‘‘चूंकि सरकार इस मसले पर चुप है इसलिए हमने इसे उठाने का फैसला किया…मैं पूरी ताकत से मांग करूंगा कि सरकार तुरंत जांच करवाने की घोषणा करे. इसकी घोषणा नहीं की जाती, तो हम सदन को चलने कैसे दे सकते हैं?’’
क्या कांग्रेस के ये नेता हाल में संसद को बाधा पहुंचाए जाने का बचाव कर रहे थे? नहीं, यह तो सोचिए भी नहीं. ये सब भाजपा के दिग्गज नेताओं अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, लालकृष्ण आडवाणी और यशवंत सिन्हा (उसी क्रम से) के बयानों के शब्दशः उद्धरण हैं. फर्क यही है कि ये बयान 2011-13 के दौरान के हैं, जब भाजपा सत्र दर सत्र हंगामा करके इस्तीफे की मांग कर रही थी, दूरसंचार आवंटनों पर संयुक्त संसदीय समिति के गठन की, और यूपीए सरकार की कथित गड़बड़ियों की जांच की मांग कर रही थी. अंतिम विडंबना यह थी कि उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडु ने विधायिकाों के महत्व पर पिछले सप्ताह एक भाषण में कहा कि सदन के सभापति के मंच के पास जाने वाले विधायकों को तुरंत निलंबित करने की व्यवस्था होनी चाहिए. वर्तमान शासकों के राज में संसदीय मामलों के मंत्री रह चुके व्यक्ति की यह भावना प्रशंसनीय है. यह और बात है कि चार साल पहले इन्हीं वेंकैया नायडु से जब यह पूछा गया था कि भाजपा के सांसद जब यही काम कर रहे हैं तो क्या यह असंसदीय तरीका नहीं है, तब उन्होंने बिना खेद जताए जवाब दिया था, ‘‘हम नए तरीके ईजाद करें ताकि जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम चुप नहीं रहेंगे. हम लड़ाई को जनता के बीच ले जाएंगे.’’
कहा जाता है कि पलट जाना कोई बुरी बात नहीं होती. ये तर्क भाजपा के नेतृत्व द्वारा पूरी सफाई और वैधता के पुट के साथ तब इस्तेमाल किए जा रहे थे जब यूपीए के दस साल के शासन के दौरान भाजपा के नेतृत्व में संसद को मनमाने ढंग से बाधा पहुंचाई गई और इसके चलते पिछली लोकसभा का 68 प्रतिशत समय बरबाद हुआ. इसलिए यह शायद ही आश्चर्य की बात थी कि जब सरकार ने अपने विदेश मंत्री और दो मुख्यमंत्रियों के आचरण के चलते उनसे इस्तीफा लेने से साफ मना कर दिया, तो यूपीए के सांसदों ने अपने पूर्ववर्ती विपक्षी सांसदों के नक्शेकदम पर चलने का फैसला कर लिया.
मिशनरी स्कूल में पढ़े हम जैसे लोगों को यह अनमोल पाठ पढ़ाया गया था कि ‘‘जिस बरताव की अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं वैसा ही बरताव आप दूसरों के साथ करें.’’ लेकिन भारतीय राजनीति का नया अनमोल पाठ यह है कि ‘‘वे आपके साथ जैसा बरताव करें, उनके साथ आप भी वैसा ही बरताव करें.’’
हैरतअंगेज परिवर्तन यह है कि भक्षक ही रक्षक बन गए हैं. जिन नेताओं ने हंगामों के पक्ष में तर्क दिए थे, जिन्होंने जवाबदेही के उच्च सिद्धांत की खातिर संसद के कामकाज में अड़ंगा लगाने के लिए नैतिकता और शालीनता वगैरह की दुहाई दी थी, उन्हीं सारे नेताओं ने अचानक फैसला कर लिया कि उनका रुख इस बात से तय होगा कि आप किस कुर्सी पर बैठे हैं. अब चूंकि वे सत्ता पक्ष की कुर्सियं पर बैठे हैं तो उनके मुताबिक हंगामा वगैरह नुकसानदेह, यहां तक कि राष्ट्र विरोधी काम भी है.
मुझे अफसोस है मगर यह चलेगा नहीं. दो गलतियां मिलकर बेशक एक सही काम नहीं बन जातीं. लेकिन हकीकत यही है कि भाजपा ने ही संसदीय आचार-व्यवहार के मानक तय किए और आज वह उनकी निंदा कर रही है. पहलेपहल उन्होंने ही घोषणा की- ‘इस्तीफा पहले, चर्चा बाद में.’ (क्रूर विडंबना यह है कि ट्वीट करके इस सिद्धांत की घोषणा करने वाली सुषमा स्वराज को ही यह भारी पड़ रहा है).
जब मैं राजनीति में उतरा था, उससे बहुत पहले तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने संसद के कामकाज पर विचार-विमर्श करने के लिए गणमान्य हस्तियों (नारायण मूर्ति, श्याम बेनेगल सरीखे व्यक्ति उनमें शामिल थे) की एक बैठक बुलाई थी. मुझे भी इसमें निमंत्रित किया गया था. हम सब ने मर्यादा तथा बहस के उच्च स्तर को बनाए रखने के लिए नियमों को सख्ती से लागू करने की वकालत की थी. अध्यक्ष महोदय नेे हम सब के भ्रमों को दूर कर दिया था. उन्होंने कहा था, हंगामा इसलिए होता है कि संख्या में कम विपक्ष इसे अपना लोकतांत्रिक अधिकार समझता है, नियम पुस्तिका दिखाकर उसे रोकने की कोशिश को अलोकतांत्रिक बताकर इसकी निंदा सत्ताधारी कांग्रेस समेत सभी पार्टियां करेंगी. इसलिए, सांसदों को निष्कासित करना तो दूर, निलंबित करना भी उनके लिए आसान उपाय नहीं होगा.
अगली अध्यक्ष मीरा कुमार के दौर में हालात और बिगड़ गए. मनमौजी भाजपा ने उनकी शालीनता और विनम्रता का शर्मनाक फायदा उठाया. लेकिन वे भी श्री चटर्जी से ही सहमत थीं- जब तक सर्वदलीय सहमति नहीं बनती तब तक उद्दंड विपक्षी सांसदों को निष्कासित करना गलत होगा. नतीजतन, हंगामे जारी रहे.
संसदीय विरोध के इस तरीके की जो भी खूबियां हों- व्यक्तिगत तौर पर मैंने कभी इस पर विचार नहीं किया- यह तरीका भारतीय संसदीय व्यवहार-परंपरा का हिस्सा बन गया है. इसलिए, 2015 में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने जब काग्रेस के 44 में से 25 सासदों को निष्कासित करने के लिए नियम 374ए का उपयोग किया- जिसका आजाद भारत के 67 वर्षों में केवल तीन बार उपयोग किया गया था- और तब जो सदमा लगा वह स्पष्ट था. इस निंदनीय फैसले के खिलाफ सात विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा के बायकाट में कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की थी.
इसमें शक नहीं कि हमें संसदीय व्यवहार के सर्वमान्य नए मानक तय करने चाहिए, वह भी सभी दलों की सहमति से हो. विपक्ष का निष्कासन लोकतंत्र नहीं है. लेकिन मोदी जी को यह पता है. वे गुजरात विधानसभा में भी यही सब बार-बार कर चुके हैं, सदन से लगभग पूरे विपक्ष क निलंबित करवा के कानून पारित करवा चुके हैं.
2014 के अपने चुनाव अभियान में मोदी जी ने दावा किया था कि वे गुजरात मॉडल को पूरे देश पर लागू कर देंगे. 2017 में उन्होंने इसकी कम चर्चा की. हमें देखना होगा कि वे इसकी शुरुआत संसद से न करें.
शशि थरूर पूर्व केंद्रीय मंत्री और लोकसभा सांसद हैं.