राजनीति में तकरार चाहे जितनी भी तल्ख क्यों न हो, अपने विरोधी या पूर्ववर्ती की देशभक्ति पर सवाल नहीं उठाया जाता. उस पर खराब फैसले, रीढ़विहीनता, मतिभ्रम आदि के आरोप तो चलेंगे. मगर देशद्रोह के आरोप? कतई नहीं!
नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में पूरी ताकत झोंक देते हैं, इसमें कोई कोताही नहीं बरतते. 2004 के आम चुनावों में उन्होंने राहुल गांधी के विदेशी मूल की ओर इशारा करते हुए उन्हें ‘‘जर्सी बछड़ा’’ कहकर सुर्खियां बनाई थीं. उन्होंने यह भी कहा था कि वे राहुल को ड्राइवर या क्लर्क की नौकरी दे सकते हैं. सोनिया गांधी के लिए उन्होंने कहा था कि उन्हें तो कोई अपना घर भी किराये पर नहीं देगा; कौन मकानमालिक होगा, जो किरायेदार का पूरा परिचय जांचे बिना मकान किराये पर देगा?
इसके ठीक बाद हमारे ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में मैंने उनसे पूछा था कि इस तरह के बयान क्या अनीतिपूर्ण नहीं हैं, अौर क्या उन्हें इसका अफसोस नहीं है? उन्होंने कहा था कि चुनाव प्रचार आवेशपूर्ण होता है, यह शुष्क, नीरस नहीं हो सकता. उसमें हास्य-व्यंग्य तो होना ही चाहिए. हां, चुनाव अभियान के जोश में घंटे भर के भाषण में आप कभी ऐसी बात भी बोल पड़ते हैं जो नहीं बोलनी चाहिए. ‘‘एक-दो नो बॉल कभी हो जाती है.’’ मैंने पूछा कि क्या नो बॉल और वाइड बॉल ही होती है, बाउंसर और बीमर नहीं होती, जिस पर तीसरे अंपायर (चुनाव आयोग) का चेतावनी आ जाती है? पूरी निष्पक्षता बरतते हुए मैं जरूर कहूंगा कि उन्होंने इस सवाल को सीधे अपनी ठुड्डी पर लिया और कहा कि आगे वे जरूर खयाल रखेंगे.
जैसे-जैसे उनका कद ऊपर उठता गया, उनकी भाषा संतुलित होती गई. 2014 के चुनाव अभियान में एक अलग ही मोदी दिखे. लगता था मानो वे नकारात्मकता से निकलकर नई शुरुआत कर रहे हैं. चुनाव अभियानों में जो गर्दोगुबार होता है वह तो था ही, कुछ चिनगारियां भी थीं लेकिन जब उन्हें सत्ता मिल गई, उनका विमर्श अपनी उपलब्धियों पर केंद्रित हो गया- नीम-मिश्रित यूरिया, लेड बल्बों की कीमत, उज्ज्वला योजना, नोटबंदी, जीएसटी, सर्जिकल स्ट्राइक, जनधन खाते, मुद्रा बैंक, और अपने विदेशी दौरों, आदि पर.
लेकिन वे सख्त रहे, अपने प्रतिद्वंद्वियों पर बेरहम, लेकिन यही उनकी प्रचार शैली है. यह कारगर भी है. हारने वाले शिकायत करते रहें, वे तो जीत कर आगे बढ़ जाते हैं. मूलतः 2013 के बाद से वे दौड़ के अगुआ के तौर पर मजबूत स्थिति में चुनाव अभियान चलाते रहे हैं. यह मान लिया जाता है कि उनकी जीत तो होगी ही. उनका लक्ष्य तो जीत का फासला बढ़ाना, विपक्ष को नेस्तनाबूद करना और कांग्रेस-मुक्त भारत के अपने सपने को साकार करना है. वे तो लहर पर सवार होकर अपनी मंजिल पर पहुंचते रहे हैं.
इसलिए, गुजरात के चुनाव अभियान के अंतिम चरण में जो मोड़ आया वह एक आश्चर्य था. पाकिस्तान, मुसलामान, कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत की स्थिति में अहमद पटेल को मुख्यमंत्री बनाने जैसी बातें कोई आश्चर्य नहीं थीं. गुजरात की ध्रुवीकृत राजनीति में ये बातें हो जाती हैं. आश्चर्य था वह कटाक्ष, जो उन्होंने अपने पूर्ववर्ती, दस साल तक प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह पर किया कि वे गुजरात चुनावो में दखलंदाजी करने और अहमद पटेल को किसी तरह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाने की पाकिस्तानी साजिश में शरीक थे.
राजनीति कोई गोल्फ जैसा इत्मीनान का खेल नहीं है. इसके लिए तो आपकी चमड़ी मोटी होनी चाहिए और कान बहरे होने चाहिए. लेकिन एक पूर्व प्रधानमंत्री पर देशद्रोह का लांछन नई बात है. अतीत में दूसरों पर कई तरह की कालिख उड़ेली गई है. अमेरिका के पत्रकार सेमोर हर्श दावा कर चुके हैं कि 1971 के युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में सीआइए का एक भेदिया भी था और यह भेदिया थे मोरारजी देसाई. गौरतलब है कि देसाई 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद ही मंत्रिमंडल से हट गए थे.
बाद में, ऐसा ही आक्षेप मराठा दिग्गज तथा पूर्व रक्षा मंत्री वाइ.बी. चह्वाण पर भी किया गया. यह खबर टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के अखबार में छापने वाले विनोद मेहता को दुर्भाग्य से अपनी नौकरी गंवानी पड़ी थी. जहां तक राजनीतिक हलके की बात है, उसने इस तरह के आक्षेप को कोई तवज्जो नहीं दी. राजनीति में तकरार चाह, जितनी तल्ख रही हो, आप अपने पूर्ववर्ती या विरोधी की देशभक्ति पर कभी सवाल नहीं उठाते. उसे आप खराब फैसले का दोषी बता सकते हैं, रीढ़विहीन कह सकते हैं और दिग्भ्रमित कह कर उसकी खिल्ली उड़ा सकते हैं. लेकिन देशद्रोही? कभी नहीं!
अमेरिकियों ने एक जुमला ईजाद किया है और आज ट्रंप के जमाने में इसका खूब उपयोग हो रहा है. इस जुमले का अर्थ है- शार्क से भी ऊंचा कूदना यानी अविश्वसनीय दावे करना. सबसे पहले यह एक टीवी कार्यक्रम ‘हैप्पी डेज’ के लिए इस्तेमाल किया गया, जो अपनी रेटिंग गंवा रहा था और इसके एक एपिसोड में एक पात्र रेटिंग सुधारने के चक्कर में स्किइंग के दौरान शार्क पर ही कूदता नजर आता है.
कोई प्रधानमंत्री अगर अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री पर यह आक्षेप करता है कि वे गुजरात चुनाव को फिक्स करने और वहां एक मुस्लिम को मुख्यमंत्री बनाने के लिए पाकिस्तान के एक पूर्व विदेश मंत्री तथा वर्तमान उच्चायुक्त के साथ साजिश कर रहा है, तो इसे न तो नो बॉल कहा जाएगा, न वाइड बॉल और न ही बाउंसर या बीमर. इसे शार्क पर कूदने का करतब ही कहा जा सकता है. यह 18 दिसंबर की सुबह टीवी रेटिंग बढ़ा तो सकता है मगर बेहतर होगा कि प्रधानमंत्री इस पर उतनी ही ईमानदारी से मनन-चिंतन करें जिस ईमानदारी से उन्होने 2004 के चुनाव अभियान में गलती से बोले गए जर्सी बछड़ा/क्लर्क/ड्राइवर जैसे जुमले पर मनन किया था.