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Tuesday, 17 December, 2024
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मोदी समर्थकों का अस्तित्व संकट में क्योंकि मसीहा मोदी के गिरने वाले हैं वोट

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मसीहा के रूप में मोदी के मंसूबे कामयाब रहे तथा वाजपेई के अधिकतम वोट की तुलना में उन्होंने 5-7 प्रतिशत अधिक वोट जीते। लेकिन वर्तमान स्थिति के हिसाब से संतुलन बिगड़ सकता है।

वो लोग कौन हैं जो मोदी के लिए वोट करते हैं? या फिर वो कौन हैं जिन्होंने 2014 में मोदी के लिए वोट किया तथा वो लोग कौन हैं जो 2019 में उनके लिए वोट कर सकते हैं? क्या 2014 में 31 प्रतिशत वोट भाजपा (और आरएसएस) को मिले थे या फिर उस ‘मसीहा’ के लिए मिले थे, जिसने भारत की धरती पर अवतार लिया है?

2002 में गुजरात में उपद्रव और अशांति के बाद, जब मुसलमान मारे जा रहे थे और राज्य में हफ्तों तक लोगों का गुस्सा ठण्डा नहीं हो रहा था, तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सोचा था कि मोदी “राजधर्म” (शासक का कर्तव्य) पर एक “कलंक” – एक धब्बा हैं। वाजपेई चाहते थे कि मोदी भाजपा से अपना इस्तीफा दे दें, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी मोदी के बचाव में खड़े हो गए।

तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी के अनुसार, जैसा कि पुस्तक ‘अनटोल्ड वाजपेयी: राजनीतिज्ञ और विरोधाभास’ में उद्धृत किया गया है, मोदी ने पार्टी सम्मलेन में तख्तापलट का मंचन किया। सबसे पहले, उन्होंने पार्टी से अपने इस्तीफे की घोषणा की। इसके तुरन्त बाद वहाँ पर दर्शकों द्वारा सामूहिक स्वर में “मोदी रहने चाहिए” की गूंज के साथ एक योजना बननी शुरू हो गई। (इस समय परिचित ‘मोदी, मोदी, मोदी’ मंत्र का उद्गम स्थल गोवा अधिवेशन था)।

वाजपेई को नरमी बरतनी पड़ी, इसके लिए उन्होंने अपने आप को अपनामित महसूस किया और सच पूछिए तो इस आपमान को ये कभी भुला नहीं पाए। विडंबना यह है कि 2001 में नरेन्द्र मोदी केशुभाई पटेल के स्थान पर वाजपेयी के कहने पर मुख्यमंत्री बने थे।

उस समय मोदी के भटके हुए विचारों का विवेचन वाजपेयी और अडवानी के बीच एक तरह की नकली मुक्केबाजी के रूप में किया गया। वास्तव में, उप प्रधानमंत्री के रूप में आडवाणी की पदोन्नति स्वयं ही, उचित समय पर “संयमित वाजपेयी” को पार्टी से बाहर करने के लिए आरएसएस की रणनीति का एक हिस्सा थी, आरएसएस में हिंदुत्व ब्रिगेड वाले वाजपेयी को “भाजपा की वर्दी में नेहरूवादी कांग्रेसवाला” कहा करते थे।

लेकिन आक्रामक हिंदुत्व को बढ़ावा देने में मोदी के “प्रभावशाली प्रदर्शन” को देखने के बाद, आरएसएस धीरे-धीरे उन्हें वास्तविक उत्तराधिकारी के रूप में देखने लगा। यहाँ तक कि अडवानी को एक “नरम” नेता के रूप में देखना शुरू कर दिया, खासकर एक उदार और धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में मोहम्मद अली जिन्ना की प्रशंसा के बाद।

अडवानी को एक अलिखित (बिना कुछ कहे ही इशारों में ही कहा जाना) अल्टीमेटम दिया गया था: 2009 में चुनाव जीतें या फिर उन्हें दरकिनार कर दिया जाएगा। और उनके साथ वही हुआ, वे आज उसी जगह पर हैं, उनके पिछले कई आलोचक और उनके कट्टरपंथी रथ यात्रा के दिनों के विरोधियों ने अचानक से उन्हें एक उदार राजनेता के रूप में देखना शुरू कर दिया है। मोदी, अडवानी को अपमानित करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते। मोदी ने लगातार कई मौकों पर अडवानी की छवि को दरकिनार करना जारी रखा है, जो चर्चा में रहता है। अडवानी की दशा दयनीय दिखती है और मोदी एक अधन्यवादी संरक्षणाधीन व्यक्ति की तरह प्रतीत होते हैं।

जो सवाल मैंने आपके सामने उठाया था अब उस पर वापस आते हैं, कि मोदी के लिए कौन वोट करता है? भाजपा 22 से 25 प्रतिशत के एक समर्पित वोट शेयर का दावा कर सकती है, जो उसके पास रथ यात्रा के बाद आया था। 1970 के दशक के मध्य तक, ऊंची जाति के शहरी मतदाताओं को छोड़कर भाजपा का पूर्ववर्ती जनसंघ काफी कमजोर था।
1984 के चुनाव में, भाजपा केवल दो सीटों पर जीत हासिल कर पाई थी; यहां तक कि वाजपेयी भी माधवराव सिंधिया से हार गए थे।

1999 में बाजपेयी ने बड़ी छलांग लगाते हुए लोकसभा चुनावों में 182 सीटों पर जीत दर्ज की और प्रधानमंत्री के रूप में एक पूर्णकालिक सरकार की शुरूआत की जिसके पीछे तीन मुख्य कारक शामिल थे, अडवानी का हिंदुत्व का एजेंडा, समस्तीपुर में रथ यात्रा के दौरान लालू प्रसाद यादव द्वारा उनकी गिरफ्तारी और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस का हिंसक समापन। इन सब घटनाओं के बिना भाजपा 1998 में और फिर 1999 में सत्ता में नहीं आती।

और फिर भी, पुनर्जागरित पार्टी के वास्तुकार ने अब चुपचाप अनिवार्य सेवानिवृत्ति योजना को स्वीकार कर लिया है। क्यों उन सभी कार सेवकों और रथ यात्रा के कार्यकर्ताओं ने अब अपनी राजनीतिक पहचान और अस्तित्व मोदी को समर्पित कर दिया है?

पार्टी के कई लोगों का निजी तौर पर यह कहना हैं कि पार्टी में एक प्रकार की “भय की भावना” बनी हुई है। आरएसएस के वरिष्ठ सदस्यों का तो यहां तक कहना है कि मोदी और शाह जिस प्रकार सफलता के मार्ग पर आगे बढते गए हैं, यह एक खतरनाक स्तर है। फिर भी, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी द्वारा मोदी की बेजान निरंकुश शैली को लेकर दी गई चुनौती को छोड़कर, कोई खुला विद्रोह नहीं हो रहा है। लेकिन यह सीमांत विद्रोह जल्द ही विकराल रुप ले सकता है।

इस बात पर, मोदी समर्थकों को एक सत्ता विषयक चुनौती का सामना करना होगा। जिन्होंने 2014 में मोदी और भाजपा को वोट दिया था वे लोग कांग्रेस के साथ काफी थके हुए थे और हताश थे। भाजपा को वोट देने वाले लोग देश में एक मजबूत नेतृत्व चाहते थे क्योंकि उन्हें यह महसूस हुआ कि मनमोहन सिंह कमजोर नेतृत्व करने में कमजोर थे।मीडिया अभियान के बड़े पैमाने पर कसे गए तंज,मुख्य रूप से टेलीविजन चैनलों के माध्यम से, के द्वारा एक ऐसी धारणा बन गई कि मानो सरका र कुछ कर ही नहीं रही है।मोदी ने स्वयं को मजबूत नेता के रूप में पेश कियाजो सपने दिखा भी सकता है और उन्हें साकार भी कर सकता है।

लेकिन विकास से जुड़े सपने साकार होने के बजाय हम नफरत से परिपूर्ण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, मुस्लिमों में लव जिहाद, तीन तलाक और बहुविवाह को लेकर वाद-विवाद, गौ हत्या और गौमांस और यहाँ यहां तक कि सांप्रदायिक रंग होने पर भी बलात्कार होने जैसी भयावह घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है।

जब निर्भया आंदोलन दिल्ली की सड़कों पर उतर आया था तब स्मृति ईरानी ने प्रधानमंत्री सिंह को चूड़ियां भेजकर इसका एहसास कराया था। लेकिन कठुआ में आठ वर्षीय लड़की के भयावह बलात्कार की घटना हो जानमे के बाद, न केवल स्मृति ईरानी ने मौन व्रत (चुप्पी का वादा) रखा है बल्कि संपूर्ण आरएसएस और भाजपा ने भी पूर्ण तरीके से चुप्पी साध ली है। यह एक आदर्श न्याय था ( ऐसा भी कहा जा सकता है) कि दिल्ली में राहुल और प्रियंका गांधी के नेतृत्व में विरोध के लिए कैंडल मार्च में निर्भया के माता-पिता भी इसमें शामिल हो गए थे।

कांग्रेसवाद विरोधी, इस्लामवाद विरोधी, नेहरूवाद विरोधी, धर्मनिरपेक्षतावाद विरोधी और व्यापक वामपंथीवाद जैसे लक्षणों के तहत मोदी को वाजपेयी की 182 सीटों और 20-25 फीसदी वोट की हिस्सेदारी के साथ आगे बढ़ने में अत्यधिक मदद मिली।लेकिन अब निराशा हो गई है।अतिरिक्त पांच से सात प्रतिशत वोट ने मोदी को एक नए मसीहा के रूप में प्रक्षेपण से जोड़ा गया, जो कि उनसे दूर हो सकता है।अगले दस महीनों में कुछ भी हो सकता है – जिसमें कुछ मंत्रमुग्ध चाल, फिर से लोगों के लिए कुछ और बड़े बड़े वाद , नए जुमले, सांप्रदायिक विवाद, दाऊद इब्राहिम पर कुछ नाट्यकलाये यहां तक कि एक सीमित युद्ध भी हैं।

लोकसभा चुनाव में भाजपा और मोदी लहर के साथ क्या असुविधा होगी?अगर एनडीए शुरू हो गया तो विघटन धीमा हो जाएगा।यह भाजपा को हड़प भी कर सकती है।सवाल यह नहीं होगा कि प्रधान मंत्री कौन होगा लेकिन क्या इस बार मोदी को वोट दिया जाएगा?

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