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Friday, 22 November, 2024
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भारतीय संस्कृति की गलत समझ रखने वाले ही बन गए हैं उसके संरक्षक

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भारत के वास्तविक अतीत की समझ न रखने वाले ही वैलेंटाइन डे पर भारतीय संस्कृति के नाम पर हंगामा खड़ा करते हैं. हमें जूलियट के पक्ष में खड़ा होना ही होगा.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ऐंटी रोमियो दस्तों ने पिछले वर्ष 22 मार्च से 15 दिसंबर के बीच उन 21,37,520 युवको तथा युवतियों से जवाबतलब किए, जिन्हें सार्वजनिक स्थल पर एक- दूसरे के साथ देखा गया था. आज देश में नैतिकता की पहरेदारी किस सीमा तक पहुंच गई है, इसका यह एक हल्का-सा संकेत है. इससे भी बुरी बात यह है कि जिन लोगों से जवाबतलब किया गया उनमें से 9,33,099 को आधिकारिक तौर पर ‘चेतावनी’ दी गई और 3,003 के खिलाफ 1,706 एफआइआर दर्ज किए गए. यह सब मात्र नौ महीने के भीतर हो गया.

यानी, जो कभी एक मुक्त समाज था उसका क्या हश्र हुआ है, इस पर गौर कीजिए- तरह-तरह के पुलिस दस्ते बन गए हैं; एक दारोगा तथा दो सिपाही को मिलाकर बनाए गए ये दस्ते उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालय परिसरों, कॉलेजों, सिनेमाघरों, पार्कों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर ‘रोमियो’ की तलाश करते गश्त लगाते रहते हैं. ‘रोमियो’ की परिभाषा काफी ढीलीढाली है इसलिए ये पुलिसवाले किसी भी युवा जोड़े को रोक कर पूछताछ कर सकते हैं. एक समय में इसका मकसद सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं से ‘छेड़छाड़’ करने वाले लफंगों पर लगाम लगाना रहा होगा, मगर धरे जाने वालों की इतनी बड़ी संख्या से तो यही लगता है कि अधिकारी लोग ही मुख्य तौर से परेशान कर रहे हैं, न कि वे जिन्हें ये दस्ते निशाना बना रहे हैं.

‘ऐंटी रोमियो दस्ता’- नाम ही सब कुछ कह देता है. इसके मूल स्रोत मेरे जवानी के दिनों के गली-चौराहे वाले ‘रोडसाइड रोमियो’ हैं, जो ड्रेनपाइप पतलून पहनने वाले, लहराती जुल्फें और शोहदों की तरह मूंछें रखने वाले आमतौर पर बेरोजगार बदचलन लौंडे होते थे जो आती-जाती लड़कियों पर सीटी बजाते थे या किसी फिल्मी गाने का टुकड़ा उछाला करते थे. इन लोगों पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता था, और ये प्रायः कोई नुकसान भी नही पहुंचाते थे.

आज उत्तर प्रदेश पुलिस के निशाने पर एक बड़ा शिकार होता है- रोमियो वह युवा है जो अपनी जूलियट को रिझाने के सपने देखता है. आखिर, शेक्सपियर का रोमियो तो वही था न, जिसने एक गलत परिवार की लड़की के प्रति अपने प्यार की खातिर परंपरा को तोड़ा, अपने असहमत माता-पिता की बात नहीं मानी थी. और योगी आदित्यनाथ यही नहीं चाहते. वे नहीं चाहते कि 21वीं सदी के रोमियो गलत परिवार के चक्कर में पड़ें.

ऐंटी रोमियो दस्ते दरअसल भारतीय संस्कृति के स्वयंभु पहरेदारो द्वारा घोषित गैर-हिंदू किस्म की सांस्कृतिक चलन पर निरंतर जारी हमले का नया उदाहरण हैं.

आसन्न वैलेंटाइन डे के मद्देनजर इन दस्तों की गश्त तेज हो गई है और गिरफ्तारियों का नया सिलसिला शुरू हो सकता है. योगी की ताजपोशी से पहले वैलेटाइन डे के प्रेमियों की निगरानी तरह-तरह की सेनाओं तथा दलों के लंपट कार्यकर्ता किया करते थे लेकिन योगी के आने के बाद यह काम निजी क्षेत्रों की जगह भाजपा शासित सरकारी अमले के जिम्मे आ गया है.

तो रोमांस के दुश्मन स्वतंत्र हंगामाबाजों का क्या हुआ? वर्षों से 14 फरवरी को एक-दूसरे का हाथ थामे जोड़ों की पिटाई करते, वैलेंटाइन डे के ग्रीटिंग कार्ड वगैरह बेचने वालों पर हमले करते और मस्ती कर रहे जोड़ों से भरे रेस्तराओं के आगे नारे लगाते थक चुके इन हिंदुत्ववादियों ने पिछले साल अपनी चाल बदल दी. हिंदू महासभा ने घोषणा कर दी कि वैलेंटाइन डे पर मौज-मस्ती के लिए निकले अविवाहित जोड़े को पकड़ने के लिए दस्ते निकलेंगे और वे उन्हें विवाह कराने के लिए मंदिर में ले जाएंगे. (और हिंदुत्ववादी सांसद तथा गोडसे प्रशंसक साक्षी महाराज की चली, तो वे ऐसे जोड़े को चार से दस तक बच्चे पैदा करने का उपदेश देंगे ताकि हिंदुओं के वोट घटें नहीं).

पुलिस की वर्दी से झांकता असहिष्णुता का यह चेहरा मजाकिया लग सकता है लेकिन दिक्कत यह है कि यह बेहद गंभीर चेहरा है. देसी लोगों का कहना है कि वैलेंटाइन डे तो आयातित पर्व है, ऐसा है भी, लेकिन क्रिस्मस, मिलाद-उल-नबी, या अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आदि भी तो ऐसे ही आयोजन हैं. उन पर हमला करने की इनकी हिम्मत नहीं है. ये यह भी तर्क देते हैं कि यह गैर-भारतीय पर्व है क्योंकि यह रोमानी प्रेम का उत्सव मनाता है. लेकिन इनका यह तर्क एकदम गलत है.

इतिहासकार बताते हैं कि प्रेम के देवता कामदेव की पूजा की हिंदू परंपरा बहुत पुरानी है, जो मध्ययुग में मुस्लिम आक्रमणों के बाद टूट गई. लेकिन हिंदू महासभा वालों को शायद इस हिंदू परंपरा का ज्ञान नहीं है. भारतीय मूल्यों की उनकी परिभाषा न केवल आदिम तथा संकीर्ण किस्म की है बल्कि इतिहास सम्मत भी नहीं है.

दरअसल, आज युवा लोग जिसे ‘पीडीए’ (लगाव का सार्वजनिक प्रदर्शन) कहते हैं, वह प्राचीन भारत में काफी प्रचलित था. यहां तक कि 11वीं सदी में भारत आए मुस्लिम यात्रियों ने हिंदुओं की सेक्स संबंधी आजादी पर हैरत भरी टिप्पणियां की हैं.

आज वैलेंटाइन डे मनाने वाले युवा दरअसल मुस्लिम दौर से पहले की प्राचीन भारतीय संस्कृति का ही पालन कर रहे हैं, लेकिन खजुराहो जैसी जगहों पर प्रदर्शित प्रेम के मुकाबले काफी संयमित ढंग से. एक तरह से वे 14 फरवरी को कामदेव दिवस के तौर पर ही मनाते हैं. और यह कैसा विरोधाभास है कि हिदू संस्कृति के स्वयंभु रखवाले इसे आपत्तिजनक मानते हैं.

लेकिन जरा इस पहलू पर गौर करें कि यह मामला डेटिंग कर रहे किशारों का उतना नहीं है जितना धर्मनिरपेक्ष भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने के शासक दल के राजनीतिक मकसद का है. परंपरा को संस्कृति के नाम पर जायज ठहराने की कोशिश की जा रही है. दरअसल, परंपरावाद से उन्हीं लोगों को फायदा होता है, जो सामाजिक व्यवस्था, अनुशासन और एकरूपता को बनाए रखना चाहते हैं और बुनियादी परिवर्तन नहीं होने देना चाहतें. जाति या धर्म की सीमाओं को तोड़ने वाले प्रेम संबंधों को इसलिए अस्वीकार किया जाता है क्योंकि उनसे सामाजिक व्यवस्था भंग होती है. इससे भी बुरी बात यह कि ये व्यक्ति की स्वाधीनता, चुनाव करने के उसके अधिकार को प्रतिबिंबित करते हैं, जो कि उन लोगों के लिए एक अभिशाप है जो हम सबको गुमनाम गौ-पूजकों में तब्दील करना चाहते हैं.

यह सब भारतीय संस्कृति के बारे में उस धारणा के नाम पर हो रहा है, जो भारत के वास्तविक अतीत के इनकार पर आधारित है, और एक काल्पनिक अतीत को प्रस्तुत करना चाहती है. भारतीय संस्कृति का वितान बहुत विशाल रहा है जिसने यूनानी आक्रमण (जिसने हिंदुओं को अपने देवताओं की पूजा के लिए मंदिर बनाना सिखाया) से लेकर अंग्रेजों (जिन्होंने हमारे प्रतिबंधात्मक कानून बनाए) तक तमाम नए तथा विविध प्रभावों को अपने अंदर समेटा. समकालीन भारतीय सभ्यता का मुख्य संघर्ष दो तरह के लोगों के बीच है, जिसमें एक तरफ वे लोग हैं जो (वाल्ट व्हिटमैन के मुताबिक) यह स्वीकार करते हैं कि हमारे अपने ऐतिहासिक अनुभवों के कारण हम विशाल हैं, विधिताओं को समेटे हैं, और दूसरी तरफ वे हैं जिन्होंने अहंकारवश यह परिभाषित करने- वह भी संकीर्ण अर्थों में- का जिम्मा अोढ़ लिया है कि ‘सच्ची’ भारतीयता क्या है.

हमारा संविधान सच्ची भारतीयता की एकमात्र कसौटी है. इसमें दर्ज स्वाधीनताओं की आकांक्षा रखने वालों को इन ऐंटी रोमियो दस्तों के घातक खतरे का प्रतिरोध करना ही चाहिए.

शेक्सपियर की नायिका पूछती है- ‘आप किसके पक्ष में हैं?’ यह सवाल हमारे लिए भी है- हम किसके पक्ष में हैं? हमें जूलियट के पक्ष में खड़ा होना ही होगा.

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