ये बहुत ही अनुचित है। मीडिया यह भूलते हुए दिखाई देती है कि वो पिंक को नहीं 102 नॉट आउट को बढ़ावा दे रहे हैं। ये 2016 में था और क्या अमित जी ने इसके लिए अपनी मध्यम आवाज़ का सर्वोत्तम योगदान दिया था कमजोर अमिताभ बच्चन।लोग उनसे बहुत ज्यादा अपेक्षा रखते हैं।
इसके बारे में सोचिये। ज़ंजीर 1973 में आई थी। यानि कि 45 साल पहले।
आप निर्बल अमित जी से उसी प्रकार के ताव की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। वो कोई लगातार क्रुद्ध रहने वाली मशीन नहीं हैं।पहले वो पर्दे पर संस्थानों को लताड़ सकते थे। अब वो खुद संस्थान हैं। एंग्री यंग मैन अब बूढ़ा हो चुका है, दादा बन चुका है, एक ट्विटर सुपरस्टार बन चुका है, और हम लगातार यही इच्छा रखते हैं कि वो क्रोध में आयें और देश की उग्र अन्तश्चेतना बनें जबकि वो हमसे बस ये चाहते हैं कि गुजरात की खुशबू में सांस लीजिये और कल्याण ज्वैलरी खरीदिए।
वहां वह अपनी नयी फिल्म 102 नॉट आउट के गीत को प्रमोट करने की कोशिश कर रहे थे और मीडिया उनसे कठुआ और उन्नाव में हुए बलात्कार के बारे में सवाल पूछने के लिए घात लगाये बैठी थी। मीडिया ने उनसे पूछा, महिलाओं पर एक के बाद एक लगातार हो रहे यौन हमलों पर आप क्या सोचते हैं?
बच्चन ने जवाब दिया, “कृपया मुझसे इस मुद्दे के बारे में न पूछें, क्योंकि इस पर बात करने से मैं घृणा से भर जाता हूँ”। “इस पर बात करना भी बहुत ज्यादा भयावह है”।
ये बस बहुत ही अनुचित है।मीडिया यह भूलते हुए दिखाई देती है कि वो पिंक को नहीं 102 नॉट आउट को बढ़ावा दे रहे हैं।ये 2016 में था और क्या अमित जी ने इसके लिए अपनी मध्यम आवाज़ का सर्वोत्तम योगदान दिया था?
पर्दे पर उनका व्यक्तित्व, तुनक मिजाज़ पुराने वकील दीपक सहगल के चरित्र ने हमें अनुज्ञा 101 से अवगत कराया, एक भाषण, जिसने बॉलीवुड में अपनी तरफ जबरदस्त ध्यान आकर्षित किया। “ना का मतलब ना होता है। उसे बोलने वाली लड़की कोई परिचित हो, फ्रेंड हो, गर्लफ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो या अपनी बीवी ही क्यों न हो। नहीं का मतलब नहीं। और जब कोई ऐसा कहती है, तो आप रुक जाइये”।
जब निर्माता शूजीत सरकार उनके पास आईडिया लेकर पहुंचे, बच्चन ने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “विषय इतना कड़क था कि मैंने उनसे कहा कि हम इस पर काम करेंगे”। वह नहीं जानते थे कि इसमें उनकी भूमिका क्या है और इसे कौन निर्देशित करेगा। लेकिन वो काम करने के लिए तैयार थे। क्या ये उनकी प्रतिबद्धता के बारे में बहुत कुछ बयां नहीं करता है?
यदि हमें और भी अधिक ठोस प्रमाण की आवश्यकता है, तो उनकी पोती के लिए उनके मर्मभेदी वीडियो पत्र थे। “वे आपको बताएँगे क्या पहनें, कैसे बर्ताव करें, किससे आप मिल सकते हो और कहाँ आप जा सकते हो… किसी की बातों में आके विश्वास न करो कि आपके स्कर्ट की लम्बाई आपके चरित्र की माप है”।नकारात्मक सोच वाले और निंदक लोगों ने बनावटी टिप्पणी की कि यह पिंक की रिलीज़ की वज़ह से था, लेकिन शायद दीपक सहगल के चरित्र को निभाने में , ये मुद्दे मुख्य कारण थे जो उस समय उनके दिमाग पर जोर डाल रहे थे। अब, बदुम्बा, उन्हें अन्य अहम् मुद्दों जैसे ‘बाप कूल, बेटा ओल्ड स्कूल’ के बारे में जरूर सोचना चाहिए,तब भी मीडिया सिर्फ ये चाहती है कि वो पिंक को ही फिर से दोहराएँ।
कोई आश्चर्य नहीं कि वह अब इसके बारे में और बात नहीं करना चाहता। वह थक गया होगें। शायद वह पिंक के बाद से इन मुद्दों के बारे में बात नहीं कर रहें है। यह मीडिया है जो ध्यान नहीं दे रहा होगा।
उस समय, कुछ नुकताचीन आलोचकों को आश्चर्य हुआ कि इसका क्या मतलब है कि पिंक फिल्म की तरह एक फिल्म में पार्टी करने वाली लड़की को एक जंग लगे हथियारों से लैस सैनिक की आवश्यकता है संकट के समय लड़की को बचाने के लिये। उन्हें बताया गया था कि वह अधिक महत्वपूर्ण होता की अगर ये संदेश “लॉक किया जाए” वाले प्रभाव से प्रतिध्वनित होता, तो उसे अमिताभ बच्चन वाली गंभीरता के साथ आने की जरूरत थी। शबाना आजमी जैसे लोगो की तरफ से उन लाइनों की निंदा करना पोर्वानुमेय था, और उन लोगों के लिये इसे सुनाना आवश्यक था उन जो छोटी सोच से ग्रसित है, यहाँ तक कि वास्तविक जीवन में, दीपिका सिंह राजवत ने कठूआ बलात्कार के मामले को हाथ में लेकर अपने जीवन और स्वतंत्रता को जोखिम में डाल दिया है।
कुछ लोग सोचेंगे कि यह अजीब है कि एक आदमी जो ’बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ अभियान का ब्रांड एंबेसडर है और बलात्कार की इन कहानियों से इतनी ज्यादा घृणा रखता है वह कैसे इस सब के बारे में एक साधारण प्रश्न पर भी किसी को इन्टरटेन कर सकता है। वे कहेंगे कि ‘बेटी बचाओ’ नामक एक अभियान की अत्यावश्यकता पर बल देने के लिए यह एक शक्तिशाली अवसर हो सकता था।
लेकिन अब उपरोक्त शब्दों के आधार पर बलात्कार को जाहिर तौर पर राजनीतिक बनाया जा रहा है। क्या, यदि एक सुपरस्टार इस मामले पर आक्रोश व्यक्त करे और फिर उसे इसके अनुवर्ती प्रश्नों का सामना करने में अजीब हो जाये जैसे कि आईएमएफ के प्रमुख क्रिस्टीन लागर्ड ने कहा था कि “(भारत में) जो कुछ हुआ है वह वीभत्स है” और प्रधान मंत्री मोदी को इस पर अधिक ध्यान देना चाहिए “?
2012 दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले के बाद, अमिताभ बच्चन ने एक दुखद ट्वीट किया, उन्होंने हमें बताते हुए ‘निर्भया’, ‘अमानत’, ‘दामिनी’ के लिए हिंदी में कुछ शब्द लिखे, कि कैंडल मार्च में जलाई जाने वाली मोमबत्तियां पिघल जाएंगी, फिर भी निर्भयता या निडरता की आग हमेशा हमारे दिलों को जलाती रहेगी। सिर्फ इसलिए कि वे इसके बारे में और सवाल उठाना नहीं चाहते, इसका मतलब यह नहीं है कि आग अभी भी निडरता से जल नहीं रही है।
लेकिन फिर लोग बेचारे बच्चन को क्यों चुनते हैं?इन दिनों कई अन्य मोमबत्तियां यह जांच रही हैं कि हवा का रुख किस तरफ है। 2012 में, स्मृति ईरानी ने कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार से संसद का एक विशेष सत्र बुलाने की मांग कि थी ताकि वे “इस देश के लोगों को आश्वस्त करें कि इस दु:ख के समय में हम अपने संकल्प में एकजुट हैं और हम हमारे शब्दों से ऊपर उठकर इन मामलों पर कार्रवाई शुरू करेंगे”। इस बार, जब पत्रकारों ने उनसे पहली बार उन घटनाओं के बारे में पूछा, तो वे बस वहाँ से चली गईं। बाद में, उन्होंने कहा कि, “पीड़िता को शर्मिंदा करना और उस पर राजनीतिक करना बंद करो।”
श्रीमान बच्चन एक बुद्धिमान व्यक्ति हैं। यही कारण है कि वह महान उत्तरजीवी हैं। हम सभी के उनसे सीख लेनी चाहिए। वह जानते हैं कि कब उन्हें बोलना है और कब उनकी चुप्पी को बोलना है। याद करिए कठुआ प्रकरण के पीछे शोरगुल के शुरुआती दिनों में, किस तरह सरकार के कई बातूनी मंत्री भय के कारण चुप हो गए, जिन्होंने 2012 में बलात्कारियों के लिए मौत की सजा की मांग की थी। श्री बच्चन की तरह, उन्हें भी बहुत अधिक घृणित होना चाहिए था जो इसके बारे में बात करने में असमर्थ थे।
श्रीमान मोदी और श्रीमान बच्चन दोनों ही जानते हैं कि अच्छा वक्ता (प्रशंसनीय) होने की कीमत यह है कि निर्दयी लोग कोशिश करेंगे और उनकी चुप्पी में हर प्रकार की बकवास के माध्यमसे मुद्दा बनाएगें । लेकिन आज उन सभी की आलोचना करने वाले लोगों को याद रखना चाहिए कि यदि आप अपने दिल की सुनते हैं तो शहंशाह की खामोशी या असंतोष निश्चित रूप से 100 ट्वीट्स के लायक होना चाहिए।
जैसा कि उन्होंने हमें बहुत पहले अपनी फिल्म त्रिशूल में बताया था, “सही बात को सही वक्त पे किया जाये उसका मजा ही कुछ और है, और मैं सही वक्त का इंतजार करता हूँ।”
अभी स्पष्ट रूप से यह सही वक्ता नहीं है।
संदीप रॉय एक पत्रकार, समालोचक और लेखक हैं। विचार निजी हैं