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Monday, 25 November, 2024
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इंदिरा गांधी के बाद अब मोदी शासन में कमज़ोर दिखाई दे रही हैं भारतीय संस्थाएं

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एक सुव्यवस्थित समाज जो आर्थिक रूप से बेहतर करने की उम्मीद करता है और इसके नागरिकों द्वारा वह अपने मूलभूत संस्थानों को मजबूत करता है।

कुछ दिनों पहले अपने कॉलम में, शंकर आचार्य ने सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी (जो प्रवाह है) के बजाय सम्पत्ति ( जो स्टॉक है) पर ध्यान केन्द्रित किया था। उन्होंने सही तरीके से उत्पादन-संबंधी, प्राकृतिक / पर्यावरणीय और मानवीय महत्व पर विशेष जोर देने के साथ धन या पूँजी के तीन रूपों के महत्व पर जोर दिया। मैं और दो प्रकार की पूंजियों पर ध्यान केन्द्रित करूँगा, जिनको ध्यान में रखा जाना चाहिए – वह हैं सामाजिक पूँजी और संस्थागत पूँजी। विशेष रूप से यह वर्तमान भारतीय संदर्भ में काफी महत्वपूर्ण हैं।

यदि कोई संस्था-संबंधी स्थल का सर्वेक्षण करता है, तो अर्ध बजट सत्र की पूर्ण क्षति हो जाती है – अर्ध प्रासंगिकता के लिए लोकसभा को कम करना, जिसमें कई विधानसभाएं पहले ही कम हो गई हैं; इतना अधिक है कि चर्चा और मतदान के लिए अविश्वास प्रस्ताव भी नहीं उठाया जा सकता। कोई भी यह कह सकता है कि भाजपा इसके लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराती है।

A picture of TN Ninan, chairman of Business Standard Private Limitedसुप्रीम कोर्ट में होने वाले विवाद पर, जिसमें कुछ वरिष्ठ न्यायधीशों ने काफी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था, विचार किया जाए तो यह बात स्पष्ट होती है, कि उनको अदालत में होने वाले मामलों के बारे में चिंता है, और उनको डर है कि सरकार न्यायालय पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश कर रही है।
तीसरी बात यह है कि, हर किसी को देश की कानून व्यवस्था और इसकी स्थित पर विचार करना चाहिए। एक पार्टी के विधायक पर लगाए गए बलात्कार के आरोप पर एक ऐसे मुख्यमंत्री ने उसके खिलाफ दर्ज आरोप वापस लेने की माँग की जिसपर खुद कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, हमने खुद देखा है कि किस प्रकार लोगों की भीड़ ने उसको इन आरोपों से मुक्त कराने के लिए दबाव बनाया था, और इसी भीड़ ने अपराध को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को कानून तोड़कर किसी भी हद तक कार्यवाई करने के लिए प्रोत्साहित किया था। इन राजनेताओं के खिलाफ लगाए गए आरोपों को वापस भी ले लिया गया है, (आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि वे कौन हैं), आश्चर्य की बात तो यह है कि इन राजनेताओं के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाई भी नहीं की गई।

अंत में इतना ही कहना है कि, जब अनावश्यक कार्रवाई उत्तरी भारत के कुछ हिस्सों में सांप्रदायिक तनाव और हिंसा का कारण बनती है, जब देश की अल्पसंख्यक आबादी अपने ऊपर बहुसंख्यकों का दबाव महसूस करती है, जब पश्चिम बंगाल, केरल और अन्य स्थानों पर राजनीतिक दलों के मुद्दों को सुलझाने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है, जब विपक्ष द्वारा चुनाव आयोग को अविश्वसनीय बना दिया जाता है, जब आगामी चुनावों का नाम सुनकर लोगों में भय की भावना को देखी जाती है और जब संघीय राज्य बनने के दावों में अत्यधिक वृद्धि देखी जाती है तो किसी को तो सामाजिक पूंजी के क्षरण और आपसी विश्वास की कमी पर ध्यान से विचार करना होगा।

एक सुव्यवस्थित समाज जो अपनी आर्थिक स्थिति सुधरने की उम्मीद करता है और नागरिकों द्वारा अपने मूलभूत संस्थानों (संसद, न्यायपालिका, बड़ी न्याय व्यवस्था और प्रशासन) को मजबूत करना होता है। समाज इस बात से निश्चिंत रहे कि कानून और व्यवस्था के लिए मशीनरी और के कर संग्रहण कार्यों के लिए समुचित निरीक्षण की व्यवस्था है, जो कि उचित प्रक्रिया को दरकिनार नहीं करती है, चुनावी प्रक्रिया निष्पक्ष है और नागरिकों के लिए मूलभूत अधिकार वास्तव में उपलब्ध हैं। इन संस्थानों और अधिकारों में से कई, चार दशक से भी पहले एक व्यक्ति के राजनीतिक प्रभुत्व के घेरे में आ गए थे। गठबंधन या अल्पमत सरकारों के बाद के समय को कभी-कभी राजनीतिक अस्थिरता के रूप में माना जाता है, पर वास्तव में इस समय में प्रमुख संस्थान अधिक शक्ति के साथ उभरते हैं- जैसे कि चुनाव आयोग, न्यायपालिका, प्रेस, और बड़े पैमाने पर नागरिक समाज एवं अन्य। अब सवाल यह है कि क्या किसी नए राजनीतिक चरण में वह समय वापस आएगा या नहीं।

अड़तीस साल पहले पूरा भारत एक बार सदमे में आ गया था जब पता चला था कि भागलपुर में कुछ पुलिस वालों ने मामूली से अपराध में गिरफ्तार किए गए कुछ अपराधियों को मार-मार कर अंधा कर दिया था। लेकिन आज पुलिस केवल उनको मार रही है जिनको वाकई में अपराधी माना जाता है, लगा न झटका, भीड़भाड़ लेकर रैली या जुलूस निकालने को केवल जनता के समर्थन के मजे उड़ाने के लिए जाना जाता है। अराजकता भरे माहौल में भी कई वर्षों तक इसको एक समझदार और भली प्रक्रिया माना गया, लेकिन जब मूल सिद्धान्तों और कानून व्यवस्था को केवल दिखावा समझा जाता है तब समाज एक आक्रामक रवैया अपनाता है। विशेषकर तब जब कई देशों में अधिकारी वर्ग में दबंगई और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद अपने पैर पसारता है, तब सामाजिक और संस्थागत पूँजी के महत्व पर अधिक बल नहीं दिया जा सकता है।

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