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Friday, 15 November, 2024
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आखिर गुजरात में भाजपा क्यों ‘नरभसा’ गई है

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गुजरात में 22 सालों से सत्ता में रह चुकी पार्टी दोयम दर्जे के खिलाड़ी के तौर लड़ रही है, जो अपने उपलब्धियों की जगह गांधी परिवार को मुद्दा बना रही है

इन दिनों कुछ इस तरह के सवाल ‘चलन’ में हैं- क्या आप गुजरात हो आए? वहां जाकर जमीन पर आपने क्या महसूस किया? वहां की हवा में आपने क्या सूंघा? क्या वहां परिवर्तन होने जा रहा है?

पहले सवाल का तो सीधा जवाब यह है मेरे पास कि इस चुनावी दौर में मैं वहां नहीं गया हूं, कम-से-कम अभी तक तो नहीं ही. और मुझे वह घ्राणशक्ति नहीं हासिल है कि चुनाव अभियान की हवा में परिवर्तन को सूंघ सकूं. मुझे कुत्तों से प्यार तो है मगर मैं खुद वह नहीं हूं.

मैं राजनीतिक गतिविधियों, प्रतिक्रियाओं, चेहरों, बयानों, बदलती चालों तथा रणनीतियों, लक्ष्यों, अभियान की शब्दावली तथा व्याकरण, और बदले कायदों को जरूर पढ़-समझ सकता हूं. ये तमाम चीजें बताती हैं कि गुजरात की हवा में परिवर्तन की आहट है या नहीं. और, चाहे 18 दिसंबर को नतीजे कुछ भी आते हों, 2014 के बाद पहली बार भाजपा में वह घबराहट दिख रही है जैसी पहले नहीं दिखी थी.

वे गुजरात को लेकर चिंतित हैं, राहुल गांधी का नया प्रतिबद्ध रूप और उसके प्रति लोगों के आकर्षण को देखकर वे हैरान हैं. वे कबूल करते हैं कि जमीन पर लोगों में गुस्सा है, खासकर युवाओं में. उन्हें अपने ही प्रमुख जाति समीकरणों, खासकर पटेलों के साथ के समीकरण में ‘घालमेल’ को लेकर पछतावा है. उन्हें अपने स्थानीय नेतृत्व के निष्प्रभावी होने की शिकायत भी है. 2013 के जाड़ों में हुए चुनावों, जिनमें वे राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विजयी हुए थे, के बाद हुए किसी भी चुनाव में उनका ऐसा मूड नहीं दिखा था.

भाजपा में कोई भी यह बताने या मानने को कतई तैयार नहीं है कि वे हार सकते हैं. लेकिन वे जो दावा जोरदार तरीके से करते हैं वह एक तरह की नकारात्मक आत्मसांत्वना जैसी है- ओह, हम तो गुजरात में हार नहीं सकते. क्या आपको लगता है कि मोदीजी और अमितभाई ऐसी विपदा आने देंगे? जरा देखिए कि नरेंद्रभाई किस तरह प्रचार में जुटे हैं. और मतदाताओं में गुस्सा भले हो, 22 साल से चली आ रही सरकार के खिलाफ माहौल भले हो, क्या आप मानते हैं कि कांग्रेस के पास इतना बड़ा तंत्र है कि वह मतादाओं को बाहर निकालकर ला सके? बूथ की लड़ाई में अमितभाई उन्हें पछाड़ देंगे. जरा देखिए कि अमितभाई ने कैसी मशीनरी तैयार कर दी है.

यह सब बड़े आत्मविश्वास से कहा जाता है. लेकिन अगर आप ध्यान से पढ़ें और कान खुले रखे तो आप यही निष्कर्ष निकालेंगे कि यह सब खुद को भरोसा देने के लिए ही कहा जा रहा है. यह खुद को यकीन दिलाने के लिए ज्यादा है, बजाय एक बाहरी व्यक्ति को कायल करने के, जो संदेह रख सकता है. खुद को यकीन दिलाने की यह हताशा उनकी घबराहट को ही उजागर करती है.

मोदी-शाह दौर में भाजपा ने जो चुनाव लड़े हैं उनमें और गुजरात के इस अभियान में एक बड़ा फर्क है. यह एकमात्र ऐसा चुनाव है, जो वे दोयम दर्जे की स्थिति से नहीं लड़ रहे हैं बल्कि अग्रणी खिलाड़ी और सत्तासीन पार्टी के तौर पर लड़ रहे हैं. 2013 में मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के चुनावों को छोड़कर बाकी सभी चुनावों में वह सत्तासीन पार्टी को चुनौती दे रही थी. मैं पंजाब और गोवा को शामिल नहीं कर रहा हूं क्योंकि पंजाब में भाजपा जुनियर साझीदार थी और गोवा तो काफी छोटा राज्य है.

दूसरी ओर आप इसे चाहे जिस तरह देखें, गुजरात में भाजपा के साथ दो-दो सरकारों के प्रति गुस्से का बोझ जुड़ा है. न केवल यह केंद्र तथा राज्य, दोनों में सत्ता में है, बल्कि एक ही जोड़ी- मोदी-शाह- दोनों जगह बागडोर संभाले हुए है. भाजपा के नेतागण कह सकते हैं कि यही आज की वास्तविकता है कि गुजरात की तरह बाकी दूसरे भाजपाशासित राज्यों की भी बागडोर इसी नये आलाकमान के हाथों में है. लेकिन यह पूरी सच्चाई नहीं है. प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष, दोनों ही गुजरात से हैं, उन्होंने पूरे देश के मतादाओं को यह संदेश दिया कि गुजरात में करीब ढाई कार्यकाल में जो काम किया गया वह उनकी सीवी का अहम पहलू है, कि उन्होंने राज्य में इस तरह शासन चलाया मानो वहां राष्ट्रपति शासन लगा हो.

जाहिर है, यह प्रचार उतना कारगर नहीं रहा जितनी उन्होंने अपेक्षा की थी. आलाकमान के सीधे नियंत्रण में होने के बावजूद तीन साल के भीतर राज्य अपनी दिशा भूल गया. उसे दो मुख्यमंत्री मिले लेकिन दोनों अलोकप्रिय और निष्प्रभावी रहे. दूसरा तो पहले से भी बुरा. व्यापार तथा मैनुफैक्चरिंग के कारण फलती-फूलती उसकी अर्थव्यवस्था थम-सी गई. जाहिर है, युवा असंतुष्ट हैं.

दशकों से जो घिसी-पिटी बातें उभरी हैं उनके विपरीत, गुजराती युवा कभी भी राजनीतिक रूप से दब्बू या ऐसे नहीं रहे हैं, जो सवाल न उठाते हों. इमरजेंसी से पहले के दौर में नवनिर्माण आंदोलन ने यहीं अपनी जड़ जमाई थी. बाद में, 1985 में जब मंडल रिपोर्ट पर बवाल उभरा तो पहला विरोध प्रदर्शन गुजरात में ही हुआ. उन दिनों मैं पहली बार उस राज्य में तैनात किया गया था, और जैसा कि गुजरात में सभी आंदोलनों के साथ होता रहा है, तब भी जातिगत झगड़ो ने सांप्रदायिक रंग पकड़ लिया था.

हम केवल हिंदी पट्टी को राजनीतिक तौर पर विस्फोटक मानते रहे हैं. इसकी वजह शायद यह है कि गुजरात चिमनभाई पटेल और नरेंद्र मोदी सरीखे मजबूत नेताओं के राज में स्थिरता के दो लंबे दौर से गुजरा. हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी तथा अल्पेश ठाकुर जैसे जातीय गुटों के युवा नेताओं का उभार गुजरात की राजनीति में पहले चल चुकी फिल्म का ही विस्तार है. मोदी तथा शाह के दिल्ली चले जाने से पैदा हुए शून्य को इन युवा नेताओं ने भरा है. गुजरातियों की दो पीढ़ी दो ताकतवर नेताओं के राज में फल -फूल चुकी है. उन्हें वह व्यवस्था भा गई थी और अब उन्हें उसकी कमी खल रही है. मोदी के रूप में उन्हें एक ऐसा नेता मिला था जिससे पार्टी आलाकमान हर फैसला लेने से पहले सलाह लेता था- यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी सरीखा दिग्गज नेता लोकसभा की अपनी सीट के लिए उन पर निर्भर हो गया था.

गुजरातियों को अब ऐसा मुख्यमंत्री नहीं भा रहा, जो हर फैसला लेने के लिए दिल्ली का मुंह ताकता है. जो भी हो, यह भाजपा का नहीं, कांग्रेस का मॉडल ही रहा है. पार्टी के गुरुत्वाकर्षण केंद्र में बदलाव ने गुजरात में भाजपा की हालत खराब कर दी है. अचरज नहीं कि उसमें फूट पड़ चुकी है, गुटबाजी और खींचतान हावी है. इसलिए उसमें घबराहट है, तो यह भी कोई अचरज नहीं है.

2014 में उनके ‘गुजरात मॉडल’ के वादे और नारे ने मोदी को शिखर तक पहुंचा दिया था. उनके राज में उद्योग, कृषि तथा बुनियादी सुविधाओं में अभूतपूर्व विकास हुआ. प्रशासनिक सुधार तथा नये प्रयोग भी खूब हुए, खासकर बिजली तथा सिंचाई के क्षेत्रों में. मोदी को व्यवसायियों से खूब सम्मान तथा समर्थन मिला, और संकटग्रस्त यूपीए के पांच साल के बाद देश ने उन्हें सत्ता सौंप दी. लोग 2002 के दंगों को भूल गए, विपक्ष द्वारा मोदी के लिए प्रयुक्त जुमले ‘विनाश पुरुष’ को खारिज करके नये ब्रांड मोदी को ‘विकास पुरुष’ के रूप में स्वीकार कर लिया.

पिछले दो सप्ताह में गुजरात में भाजपा तथा मोदी के चुनाव अभियान से अगर कोई चीज गायब हुई है, तो वह है ‘विकास’. ‘गुजरात मॉडल’ ने मोदी को वह ताकत दिलाई, जो पिछले तीन दशक में किसी को हासिल नहीं हुई थी. लेकिन अब वह उनके गुजरात अभियान के एजेंडा का प्रमुख तत्व नहीं रह गया है. अब तो बस राहुल गांधी और उनकी गलतियां, पहचान, औरंगज़ेब, खिल्जी, नेहरू, सोमनाथ मंदिर, राहुल ने किस रजिस्टर पर दस्तखत किया, सुप्रीम कोर्ट में सिब्बल अयोध्या मसले पर क्या बयान दे रहे हैं, यही सब रह गया है. कमांडो चालित टीवी चैनलों पर रहस्यमय पुराने पाकिस्तानी जनरल दिख रहे हैं, जो कांग्रेस पार्टी के समर्थन में बयान दे रहे हैं और अहमद पटेल को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं. फिर से वही पहचान की राजनीति (मैं और मेरे प्रतिद्वंद्वी), अल्पसंख्यक विरोध, गांधी परिवार हावी है. लगभग 2002 के चुनाव वाला समां है, सिवा ‘मियां मुशर्रफ’ की दुहाई के.

यह एक बदलाव है. हमारी चुनावी राजनीति में प्रचार अौर मतादाओं तक पहुंच बनाने का प्रमुख सहारा सरकार विरोध की भावना ही है. मौजूदा सरकार के पक्ष में हो या विरोध में. यह एक दुर्लभ संयोग है कि सरकार विरोध की दोहरी भावना झेल रही पार्टी (राज्य में 22 साल के शासन और केंद्र में पूर्ण बहुमत के साथ सत्तासीन) ऐसे चुनाव लड़ रही है मानो वह दोयम दर्जे में हो और कांग्रेस सरकार चला रही हो. हम जानते हैं कि कांग्रेस गुजरात में करीब तीन दशक से पराजित होती रही है लेकिन दो दलों को बारी-बारी से सत्ता सौपने वाले इस राज्य में उसे हमेशा लगभग 40 प्रतिशत प्रतिबद्ध वोट मिलते रहे हैं. इसलिए, वह हमेशा एक ताकत रही है. अब जरा 2007, ’12, ’14 के चुनाव अभियानों की रिपोर्टों, वीडियो पर नजर डालिए. जैसे-जैसे मोदी की बार-बार जीत के साथ उनकी ताकत बढ़ती गई, जोर उनके प्रतिद्वंद्वियों से हटकर उनकी उपलब्धियों पर बढ़ता गया.

आर्थिक मोर्चे पर गलत कदम, कमजोर स्थानीय नेतृत्व, और रिमोट कंट्रोल से चलने वाली सरकार की विफलताओं ने उस राज्य में भाजपा के लिए गड़बड़झाला पैदा कर दिया है, जहां उसे चलते-चलते ही जीत जाना चाहिए था. लेकिन उसके लिए चढ़ाई कठिन हो गई है. इस लिहाज से देखें तो 18 दिसंबर को जो भी नतीजा आए, राहुल सफल हो गए हैं. उन्होंने प्रतिद्वंद्वी को उसके मैदान में जाकर ललकारा है और उसे मजबूर किया है कि वह उन्हें अब तक भले गंभीरता से न लेता रहा हो या न लेना चाहता रहा हो, लेकिन अब उन्हें गंभीरता से ले. भाजपा जैसी हावी तथा ताकतवर पार्टी अब उस पार्टी के नेता पर हमले करने में ही अपना पूरा समय लगा रही है, जिस पार्टी को लोकसभा में मात्र 46 सीटें हासिल हैं और जो गुजरात में 22 साल से वनवास भोग रही है.

भाजपा ने तो अपने तईं यह पटकथा नहीं लिखी थी. यही वजह है कि वह आज इतने गुस्से में है, इतनी घबराई हुई है.

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