बयानबाजी से बचने की न्यायपालिका की अघोषित अचार संहिता को तोड़कर जजों ने जो संकट पैदा किया है वह क्या मोड़ लेगा, यह मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर निर्भर है.
‘राजनीति में एक सप्ताह भी बहुत लंबा समय साबित हो सकता है.’ ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे हैरोल्ड विल्सन की इस मशहूर पंक्ति को इस निर्णायक मौके पर थोड़ा बदल देने का लालच हो रहा है. इसलिए, मैं कहना चाहूंगा कि भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक सप्ताहांत बहुत लंबा समय साबित हो सकता है. और मैं इसी सप्ताहांत की बात कर रहा हूं.
इसकी वजह यह है कि अपनी संस्था से जुड़े सवालों को सार्वजनिक करने वाले चार जजों से जब यह पूछा गया कि उनके कदम से सुप्रीम कोर्ट के कामकाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा, तो उनका जवाब था कि सोमवार को वे काम पर लौटेंगे और सब कुछ जैसे चलता रहा है वैसे ही चलता रहेगा.
लेकिन इससे पहले के 48 घंटों में बहुत कुछ हो जाएगा. परदे के पीछे सुलह की कोशिशें होंगी, राजनीतिक गतिविधियां तेज हो जाएंगी, मोर्चे पर सामने आए चार जजों के अलावा मुख्य न्यायाधीश (जो अपने ही बंधुओं के कोप को महसूस करेगे) और बाकी 20 जज भी गहन आत्मचिंतन करेंगे. याद रहे कि हमारी व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट के सभी जज समान हैं. अदालत में मुख्य न्यायाधीश भी इन समान जजों में शामिल हैं. प्रशासन के लिहाज से बेशक वे प्रभारी है. और पेंच यहीं फंसा है.
सोमवार से सब कुछ जस का तस चलता रहे, इसके लिए दोनों ‘पक्षों’ के बीच काफी सुलह-सफाई की जरूरत पड़ेगी. मैंने पक्षों शब्द पर विशेष जोर देकर लिखा है, क्योंकि अपने सबसे आला जजों को दो खेमों में बंटा हुआ बताना काफी दुर्भाग्यपूर्ण है. यह दोगुना ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए है कि हम बाकी सारे नश्वर प्राणी तो इस उम्मीद में इन जजों के पास जाते हैं कि हमारे ऊपर पूर्ण अधिकार रखने वाले ये महामहिम हमारे झगड़ों पर इंसाफ करेंगे, परंतु इन सम्माननीय जजों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है. न्यायाधीशों के साथ कौन न्याय करेगा? यह जुमला खूब इस्तेमाल होता रहा है. लेकिन इस मामले में तो यह विकल्प भी उपलब्ध नहीं है. इन मसलों का आकलन और इन पर फैसला करने के लिए ज्यादा पुरानी, ज्यादा ऊंची और ज्यादा निष्पक्ष मानसिकता की जरूरत होगी.
वैसा कोई पितृपुरुष सरीखा व्यक्तित्व आज सामने नहीं है. पिछले करीब ढाई दशकों से सुप्रीम कोर्ट ने खुद को अपनी संस्थागत सीमाओं में अगर कैद नहीं किया है, तो बांध जरूर लिया है. उसके मामलों में कानून मंत्री की बहुत चलती नहीं है, कम-से-कम तब से तो नहीं ही जब कांग्रेस के हंसराज भारद्वाज कानून मंत्री थे. यह और बात है कि कानून के मामले में उनके कौशल और कद पर उनकी राजनीतिक चतुराई अकसर हावी रहती थी. इस बात की भी संभावना नहीं लगती कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, जो अभी नये ही हैं, जजों को सलाह देने लायक वजन रखते हैं, हालांकि यह भी संभव है कि यह उनके लिए एक ऐसे मौंके के रूप में सामने आया है जब वे अपना कद इतना ऊंचा दिखा सकें जो कि गणतंत्र के राष्ट्रपति पद के अनुरूप होना चाहिए. इस खेल को रोकने के लिए किसी-न-किसी को तो सीटी बजानी पड़ेगी और खिलाड़ियों को समझाना पड़ेगा कि वे सब एक ही टीम के खिलाड़ी हैं.
हमने जिस पुरानी ब्रिटिश प्रणाली को अपनाया है उसमें न्यायिक प्रक्रिया परंपरागत मिसालों से निर्देशित होती है. दुर्भाग्य से इस मामले में ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती है. वरिष्ठता क्रम लांघने की या अंतःपुर की राजनीति की, या अच्छा जज होने के कारण सताए जाने की अथवा दोस्ताना के कारण पुरस्कृत किए जाने की मिसालें जरूर मिलती हैं, खासकर इंदिरा गांधी के दौर की. हालांकि उस दौर ने हमें अब तक का सबसे सम्माननीय जज भी दिया, न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना के रूप में. यह जरूर है कि उन्हें मुख्य न्यायाधीश के पद से वंचित किया गया, जबकि वे इसके हकदार थे. सुप्रीम कोर्ट में भारी आंतरिक असहमतियों की मिसालें भी हैं लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ था कि हर चीज दशकों से कॉलोजियम के दायरे में सिमट गई हो.
यहां कुछ भी पारदर्शी नहीं है, कुछ भी सार्वजनिक नहीं किया जाता. क्यों किसी को जज नियुक्त किया गया, क्यों किसी को नहीं किया गया, इस पर कोई असहमति नहीं, कोई विरोध नहीं. कुछ भी रेकॉर्ड में दर्ज नहीं किया जाता. कुछ भी नहीं. न तो नागरिकों के लिए कुछ है, न संसद के लिए और न इतिहासकारों के लिए. इस सर्वशक्तिमान क्लब के वरिष्ठतम जजों ने चुप रहने और गोपनीयता बरतने की शपथ ले रखी है. इससे पहले कभी यह शपथ तोड़ी नहीं गई. मैं इसके लिए ‘माफिया वाली चुप्पी’ जैसा जुमला इस्तेमाल नहीं करना चाहूंगा. हम इसे इस तरह कह सकते हैं कि ‘घर की बात घर में ही रहनी चाहिए’. लेकिन यह आपसी सहमति अब टूट गई है. पहले इसे वरिष्ठता क्रम में मुख्य न्यायाधीश के ठीक नीचे स्थित न्यायमूर्ति जस्ति चेलामेश्वर ने तोड़ी और उनके बाद अब अन्य तीन जजों ने.
राजनीतिक हलके से मुकाबले के लिए न्यायपालिका ने जब कॉेलोजियम का गठन किया तब यह समझना मुश्किल नहीं था कि उसका मकसद क्या है. मेरे जैसे असंख्य लोगों ने इन संघर्षपूर्ण वर्षों में उसे पूरा समर्थन दिया है. तर्क यह था कि इस व्यवस्था में चाहे जो भी खामी हो, नेताओं के घालमेल से तो यह बेहतर ही होगा. हम नहीं चाहते थे कि इन तमाम वर्षों में सीबीआइ और दूसरी एजेंसियों का जो हश्र हुआ वैसा ही कुछ फिर से हो.
सही बात तो यह है कि न्यायपालिका ने हमें निराश नहीं किया है. जब भी संवैधानिक मर्यादा या स्वाधीनता का मसला पेश हुआ है, जैसा कि हाल ही में प्राइवेसी यानी निजता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने का सवाल उठा, न्यायपालिका ने हमेशा सही फैसला सुनाया है. लेकिन इस प्रक्रिया में उसने खुद को सात तालों में कैद भी किया है. लेकिन आज के दौर के साथ इसका कोई मेल नहीं बैठता, क्योंकि यह दौर अति-पारदर्शिता, संसदीय कार्यवाहियों के सीधे प्रसारण, सूचना के अधिकार, और बड़े पैमाने पर हैकिंग तथा फोन टैपिंग का है, जिन्हें अदालतें भी जायज ठहरा चुकी हैं.
वर्षों में ऐसी स्थिति बन गई है कि न्यायपालिका अपने विशिष्ट महकमे को लेकर बेहद रक्षात्मक हो गई है. कॉलोजियम की सदस्यता भी व्यक्ति के दर्जे और प्रोटोकॉल का संकेत देने लगी है. इसकी कार्यवाहियों पर किसी भी सवाल को या इसमें पारदर्शिता की मांग का प्रतिकार किया जाता रहा है. न्यायमूर्ति चेलामेश्वर का विद्रोह अचानक नहीं उभर आया है. वे कॉलोजियम में खुलेपन की और उसकी कार्यवाहियों के ब्यौरे दर्ज करने की मांग अरसे से कर रहे थे. उनकी मांग नहीं मानी गई तो कुछ समय से उन्हंने इसकी बैठकों में भाग लेना बंद कर दिया था. ताजा विस्फोट कुछ ‘संवेदनशील’ मामलों के लिए संवैधानिक पीठों के गठन के सवाल पर हुआ. ये मामले आज सार्वजनिक जानकारी में हैं और उन पर खूब चर्चाएं भी हो रही हैं.
न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने इसे निर्णायक क्षण कहा. हमारे राजनीतिक इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं जब एक व्यक्ति का विद्रोह या उसकी कार्रवाई निर्णायक साबित हुई और उसने किसी सर्वशक्तिमान नेता या मजबूत सरकार की सत्ता को हिला कर रख दिया. इंदिरा गांधी जब अपनी सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर थीं, तब इलाहाबाद हाइकोर्ट के एक जज जगमोहनलाल सिन्हा ने उनके अश्वमेध रथ को रोक दिया था. इसी तरह, एक व्यक्ति वी.पी. सिंह की बगावत ने राजीव गांधी को चोंट पहुंचाई थी. सीएजी विनोद राय के प्रतिकार के बिना क्या यूपीए को 2014 में इतनी बुरी शिकस्त मिल पाती? हालांकि सच तो यह है कि इसका श्रेय न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी को भी दिया जाना चाहिए, जिन्होंने बड़े घोटाले, खासकर 2जी घोटाले पर सख्त फैसला सुनाया था.
हकीकत यह है कि न तो न्यायमूर्ति चेलामेश्वर के पास, और न ही उनके सहयोगी तीन जजों के पास इतनी ताकत है कि वे मोदी सरकार पर फिलहाल कोई नकेल डाल सकें. जगमोहनलाल सिन्हा की तरह ये लोग सरकार या इसके किसी प्रमुख नेता से संबंधित किसी मामले को नहीं देख रहे हैं. फिलहाल तो उनका संघर्ष अपनी ही संस्था के भीतर का है. इसलिए सरकार भी कम-से-कम फिलहाल तो बुद्धिमानी दिखाते हुए इससे अलगथलग है. इस संघर्ष की आगे क्या दिशा होगी, इसका अंत क्या होगा, यह सब इस पर निर्भर है कि मुख्य न्यायाधीश क्या जवाबी कार्रवाई करते हैं.
मेडिकल कॉलेजों के मामले की तरह कई विवादास्पद मामले ऐसे हैं जिनका ताल्लुक सिर्फ न्यायपालिका से है. उनका क्या होता है, यह महत्वपूर्ण तो है ही मगर इनका महत्व न्यायपालिका की हैसियत तथा प्रतिष्ठा से जुड़ा है. लेकिन कुछ दूसरे मामले उच्चस्तरीय राजनीति से जुड़े हैं. और इन्हीं के मामले में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विवेक तथा न्यायप्रियता की परीक्षा होगी. इस लंबे सप्ताहांत के दौरान वे इन दोनों का किस तरह इस्तेमाल करते हैं, उसी पर यह निर्भर होगा कि सोमवार से सारा कामकाज पहले की तरह ही चलता रहेगा या नहीं.
शेखर गुप्ता दिप्रिंट के एडिटर इन चीफ हैं.