साल 2020 ऐसा था जब हमने विज्ञान को अपनी सबसे तेज़ गति से आगे बढ़ते देखा. कोरोनावायरस जिनोम के त्वरित अनुक्रमण से लेकर, तेज़ी से विकसित होते टेस्ट और अब इसके लिए वैक्सीन, हमने देखा कि कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में रिसर्चर्स, महामारी विज्ञानी, जीव-विज्ञानी और वायरस विज्ञानी हमारे हीरो बन गए.
अगर कोरोनावायरस सबसे बड़ा न्यूज़मेकर था तो विज्ञान और खासकर एमआरएनए टेक्नोलॉजी इसकी नेमसिस थी. यही कारण है कि एमआरएनए दिप्रिंट का साल का न्यूज़मेकर है.
दुनिया में सबसे पहले स्वीकृत कोविड-19 वैक्सीन्स, जो ज़ाहिरी तौर पर कारगर हैं और जिन्हें फाइज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना ने तैयार किया है, एमआरएनए टेक्नोलॉजी पर आधारित हैं. एमआरएनए या मैसेंजर एमआरएनए (रीबोन्यूक्लेक एसिड) सिर्फ एक माध्यम है, जो हमारे शरीर को प्रोटीन्स पैदा करने का निर्देश देता है और जिसे पहली बार वैक्सीन्स में प्रयोग किया जा रहा है.
भारत भी अपनी पहली एमआरएनए पर आधारित कोविड-19 वैक्सीन तैयार करने की राह पर है और पुणे स्थित जेनोवा बायोफार्मास्यूटिकल्स को इसकी कैंडिटेट एचजीसीओ19 के इंसानी क्लीनिकल ट्रायल्स के लिए सरकार की अनुमति मिल गई है.
स्वीकृत कोविड-19 वैक्सीन्स में सिंथेटिक एमआरएनए असली वायरस के किसी अंश को इंसानी शरीर में घुसाए बिना, शरीर को वायरस के स्पाइक प्रोटीन पैदा करने का संकेत भेजता है. हमारे शरीर के उन निर्देशों को प्रोसेस कर लेने के बाद, एमआरएनए मॉलीक्यूल विघटित हो जाता है.
हमारे शरीर का इम्यून सिस्टम इस नए पैदा हुए प्रोटीन को एक ‘पराए’ के तौर पर पहचानता है और अपना इम्यून रेस्पॉन्स शुरू कर देता है, जिससे वो असली वायरस को पहचान जाता है, जब इंसानी शरीर में घुसने के लिए वो अपना स्पाइक प्रोटीन इस्तेमाल करता है.
वैक्सीन के विकास में इस टेक्नोलॉजी को एक खेल परिवर्तक और जीवन रक्षक के तौर पर देखा गया है जिसने महामारी से बाहर कदम निकालने में हमारी मदद की है.
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एमआरएनए रिसर्च का इतिहास
एक नाम जो एमआरएनए के साथ नज़दीकी से जुड़ा है, वो है कैटलिन कारिको. हंगरी की 65 वर्षीय बायोकेमिस्ट, जिन्होंने चार दशक तक इस टेक्नोलॉजी पर काम किया. उनके काम को एमआरएनए चिकित्साविधान और वैक्सीन्स का आधार माना जाता है.
हंगरी में, कारिको गरीबी में पलकर बड़ी हुईं और 1985 में अमेरिका के फिलाडेल्फिया की टेम्पल यूनिवर्सिटी जाने के लिए उन्हें ब्लैक मार्केट में अपनी कार बेचनी पड़ी. 1990 में कारिको ने पेंसिलवेनिया यूनिवर्सिटी में एमआरएनए पर आधारित इलाज के लिए पहली ग्रांट एप्लिकेशन पेश की.
David, you have a huge role in this. We have performe and published together the first mRNA transfection studies https://t.co/9JuQDWmb9c and you saved me many times after I was demoted from my faculty position and subject of termination. Thanks so much believing me and the mRNA! https://t.co/5YMY97P3fk
— Katalin Kariko (@kkariko) July 24, 2020
लेकिन कारिको को यूनिवर्सिटी फैकल्टी में अपनी पोज़ीशन बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ा. फंडिंग के लिए एमआरएनए की बार-बार अनदेखी कर दी जाती थी, चूंकि दुनिया भर का ध्यान डीएनए की जिनेटिक इंजीनियरिंग पर केंद्रित था. उनसे कहा गया कि वो फैकल्टी के लायक नहीं हैं, फिर उनका पद घटा दिया गया, अनुदान मना कर दिया गया और उन्हें निर्वासित तक करने की धमकी दी गई.
आखिरकार 1995 में कारिको ने एमआरएनए पर काम जारी रखने के लिए एक कम वेतन वाली रिसर्च पोज़ीशन स्वीकर कर ली.
बहुत से वैज्ञानिक लैब जीवों में सिंथेटिक एमआरएनए पर काम कर रहे थे लेकिन वो हतोत्साहित महसूस कर रहे थे, चूंकि जानवरों का इम्यून सिस्टम, एमआरएनए को एक पराया मॉलीक्यूल समझते हुए उसपर हमला कर रहा था जिससे सूजन और मौतें हो रहीं थीं.
लेकिन कारिको ने 2005 में अपने साथी पेन इम्यूनोलॉजिस्ट 61 वर्षीय ड्रियू वीज़मेन के साथ मिलकर दिखा दिया कि सिंथेटिक एमआरएनए में बदलाव करके इम्यून सिस्टम की पकड़ से बचा जा सकता है. इसके नतीजे में चिकित्सीय अनुसंधान का काम बढ़ गया.
कारिको और वीज़मेन दोनों को इस हफ्ते कोविड वैक्सीन दी गई.
2013 में जब मॉडर्ना ने एमआरएनए पर आधारित इलाज विकसित करने के लिए एस्त्राज़ेनेका के साथ समझौता किया तो कारिको बायोएनटेक आरएनए फार्मास्यूटिकल्स में सीनियर वाइस-प्रेसिडेंट बन गईं जिसने अब फाइज़र के साथ मिलकर वैक्सीन बनाई है. उन्हें मॉडर्ना में भी एक भूमिका की पेशकश हुई लेकिन ये कहा गया कि उन्हें किसी समय भी बाहर किया जा सकता है.
मॉडर्ना को अब व्यापक रूप से एमआरएनए चिकित्सा विधान को ‘नक़्शे पर लाने’ का श्रेय दिया जाता है.
दुनिया को बचाने वाली रिसर्च से कारिको को सिर्फ करीब 30 लाख डॉलर्स का फायदा होने वाला है, जबकि मॉडर्ना के सीईओ स्टीफेन बैंसल और एमआईटी के बॉब लैंगर, हॉर्वर्ड के टिम स्प्रिंगर तथा बायोएनटेक के मालिक ऊगर साहिन जैसे निवेशक स्टॉक के आसमान छूते मूल्यों की बदौलत पहले ही अरबपति बन गए हैं.
उम्मीद है कि अब कारिको और वीज़मेन को केमिस्ट्री के लिए साझा नोबल पुरस्कार मिल सकता है.
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एमआरएनए का भविष्य
पिछले कुछ सालों से वैक्सीन्स में एमआरएनए पर एक स्थापित सुरक्षा प्रोफाइल के साथ सक्रिय रूप से रिसर्च होती रही है. फिलहाल क्लीनिकल ट्रायल्स से गुज़र रहीं दूसरी एमआरएनए वैक्सीन्स, एचआईवी, ज़ीका, रैबीज़, हर्पीज़ और इनफ्लुएंज़ा के लिए हैं.
एमआरएनए को कैंसर के इलाज में प्रतिरक्षा चिकित्सा के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है जिसमें शरीर के इम्यून सिस्टम को फिर से प्रोग्राम कर कैंसर सेल्स से लड़ा जा सकता है.
दशकों तक वैज्ञानिक विशेष रूप से निर्मित, एमआरएनए की संभावना से उत्साहित होते रहे हैं जिससे बीमारियों के इलाज में मदद मिल सके.
एमआरएनए टेक्नोलॉजी प्रोटीन्स पैदा करने में हमारे शरीर की मदद करती है लेकिन ये हमारे जिनेटिक कोड या भावी पीढ़ियों के जिनोम में नहीं जाती. इसके नतीजे में टेक्नोलॉजी के अंदर काफी संभावना है कि इंसानी डीएनए में बदलाव किए बिना वो सुरक्षित तरीके से बीमारियों का इलाज कर सकती है.
हालांकि ये टेक्नोलॉजी महंगी नहीं है और इसे बनाना आसान है लेकिन महामारी से पहले इसे किसी दवा या वैक्सीन में मंज़ूरी नहीं मिली.
लेकिन वैक्सीन्स को मंज़ूरी के बाद से उम्मीद है कि ये टेक्नोलॉजी तेज़ी से विकसित होगी और भविष्य में आसान, सस्ते और सुरक्षित चिकित्साविधान का रास्ता साफ करेगी.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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