असम के हिमंत बिस्वा सरमा और उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ यकीनन रूप से आज के दिन में भारतीय जनता पार्टी के सबसे प्रमुख, मुखर और प्रचारित मुख्यमंत्री हैं और संयोग से, दोनों के पास वह योग्यता – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) वाली पृष्ठभूमि- नहीं है जो भाजपा में किसी भी शक्तिशाली पद को ग्रहण करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता मानी जाती है.
फिर भी, दोनों नेताओं ने पूरी तरह से यह सुनिश्चित किया है कि वे जितना संभव हो सके संघ की संस्कृति में पूरी तरह से आत्मसात होकर आरएसएस के साथ एकरूप हो सके. इस कार्य में उन्होने अपनी-अलग पृष्ठभूमि को भी बाधा नहीं बनने देना और मातृ संस्था के रूपकों का हरसंभव पालन करने का प्रयास किया है.
संक्षेप में कहें तो इन दो मुख्यमंत्रियों की कहानी हमें भाजपा-आरएसएस संस्कृति के क्रमिक विकास की गाथा बयान करती है. आरएसएस की सफलता के लिए अब यह जरूरी नहीं कि आरएसएस द्वारा अधिक से अधिक संख्या में नये नेताओं को खड़ा कर सके, बल्कि यह आरएसएस प्रचारकों के नए और इच्छुक प्रतिरूप खोजने में निहित है. भाजपा की राजनीति में सफल होने और शक्तिशाली पदों पर आसीन होने के लिए संघ की पृष्ठभूमि का दावा करना अब कोई आवश्यक शर्त नहीं रही है.
लेकिन, इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि आरएसएस-भाजपा संबंध का मूल स्वरूप बदल रहा है या दोनों एक दूसरे से अलग हो रहे हैं. यह केवल इस ओर इशारा करता है कि जैसे-जैसे पार्टी का विस्तार होता जा रहा है, विशेष रूप से गैर-परंपरागत और नए-नए क्षेत्रों में, भाजपा राष्टीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के द्वारा इसके नेताओं को राजनैतिक रूप से संवारने की सीमाओं के बारे में सजग हो रही है.
अतः अब, नयी रणनीति आरएसएस द्वारा ‘बाहरी’ लोगों को अपनाने और उन्हें अपना (संघिकृत) बनाने की है.
संघिकृत मुख्यमंत्री
यह वाकई आश्चर्यजनक है कि संघ के कार्यकर्ता या प्रचारक न होने के बावजूद, योगी आदित्यनाथ और हिमंत बिस्वा सरमा दोनों उन्हीं की भाषा बोलते हैं और आरएसएस के एजेंडे का वैसे ही प्रचार करते हैं.
1955 के गोहत्या विरोधी कानून को और अधिक सख्त करने से लेकर गैरकानूनी धर्मांतरण पर रोक लगाने वाले उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश (प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल कन्वर्षन ऑफ रिलिजियस ऑर्डिनन्स) 2020,जिसे आमतौर पर ‘लव जिहाद’ विरोधी कानून के रूप में जाना जाता है, को लागू करने एवं एक सख्त जनसंख्या नियंत्रण नीति की शुरुआत करके योगी आदित्यनाथ ने एक तरह से भाजपा के अन्य मुख्यमंत्रियों का आरएसएस के एजेंडे को पूरी तरह से पूरा करने के मामले में नेतृत्व किया है.
वास्तव में, हमारे मेरे सहयोगी डीके सिंह ने वास्तव में एक सही तर्क दिया था कि कैसे आदित्यनाथ, शिवराज सिंह चौहान जैसे दिग्गजों सहित अन्य भाजपा मुख्यमंत्रियों के लिए एक ‘रोल मॉडल’ बन गए हैं.
भाजपा के स्टार प्रचारक के रूप में आदित्यनाथ ने अपने भाषणों में ‘अली-बजरंग बली’ वाली विभाजनकारी बयानबाजी करते रहते हैं और वह एक तरह से हिंदुत्व की राजनीति के भगवाधारी पथ प्रदर्शक बन गये हैं.
हालांकि, इससे भी बड़ा आश्चर्य हिमंत बिस्वा सरमा ने दिया हैं. एक ऐसा नेता जिसने कांग्रेस में अपनी राजनीति सीखी, कई वर्षों तक असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के करीबी सहयोगी रहे, वह अब एक उन्मादी बहुसंख्यकवादी राजनेता में बदल गया है. ऐसा लगता है कि वह जिस भाषा मे बोल रहे हैं – राजनीतिक और नीतिगत दोनों रूप से – उसके द्वारा वे ‘सिपाही के राजा से भी अधिक वफ़ादार’ होने वाली कहावत को सच करने पर तुले हैं.
ऐसे में अगर आदित्यनाथ के पास गोरक्षा की बारे में कोई योजना है तो भला हिमंत उनसे पीछे कैसे रह सकते हैं? और अगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुसलमानों की प्रजनन दर को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण सुनिश्चित करना चाहते हैं, तो असम में उनके समकक्ष व्यक्ति को भी इसका पालन क्यों नहीं करना चाहिए?
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हिमंत ने आरएसएस-भाजपा को प्रिय माने जाने वाले नागरिकता (संशोधन) अधिनियम की हिमायत करने से भी परहेज नही किया है, चाहें क्यों न यह बात असम के जातीय संघर्ष के मूल सिद्धांतों के खिलाफ जाती हो.
‘जिन्ना वाली विरासत’ की अपनी टिप्पणी से लेकर असम में हिंदुओं के ‘अल्पसंख्यक‘ बनने के प्रति चिंता व्यक्त करने तक – असम के इस मुख्यमंत्री, जिन्होंने हाल ही में अपने कार्यालय के 100 दिन पूरे किए हैं, ने नागपुर का पसंदीदा चेहरा बनने के लिए हर संभव प्रयास किया है. असम में सरमा के पूर्ववर्ती सर्बानंद सोनोवाल भी गैर- संघी पृष्ठभूमि से ही आते हैं.
ऐसे हीं अन्य प्रमुख उदाहरणों के रूप में राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया और अनुभवी नेता स्वर्गीय सुषमा स्वराज का नाम आता है, जिनकी आरएसएस वाली पृष्ठभूमि नहीं थी. लेकिन उनके मामले में यह नियम की बजाए अपवाद ज़्यादा माना जाता था
ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे भाजपा के अन्य आयातित नेते भी धीरे-धीरे अपने आप को आरएसएस-भाजपा की विश्वदृष्टि (वर्ल्ड व्यू) और संस्कृति से आत्मसात कर रहे हैं.
एक आमूलचूल परिवर्तन
भाजपा में इस तरह की प्रवृत्ति का बढ़ना संघ द्वारा इसके नेताओं को संवारने पर जोर देने से उलट एक महत्वपूर्ण बदलाव है. पहले ऐसी धारणा थी कि अगर आपको भाजपा में जगह मिल भी जाती है, तो भी गैर-आरएसएस पृष्ठभूमि से आने के कारण आप इसके उच्च पदों पर नहीं पहुंच पाएंगे.
मेरे सहयोगियों शंकर अर्निमेश और नीलम पांडे ने 2020 की शुरुआत में कुछ गणना कार्य के बाद यह पता लगाया था कि नरेंद्र मोदी सरकार में चार में से तीन मंत्री संघ की परंपरा मे रचे बसे थे. उन्होंने यह भी पाया कि आरएसएस से जुड़े हर पांच भाजपा सांसदों में से एक को 2019 में नरेंद्र मोदी कैबिनेट में मंत्री नियुक्त किया गया था. यह आंकड़ा भाजपा में एक बड़े, अलिखित लेकिन पूरी तरह से स्थापित नियम का प्रतिनिधित्व करता है.
बेशक,ऐसे भी कई नाम हैं – जिनमें केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, एस जयशंकर और पीयूष गोयल शामिल हैं – जिनके पास संघ का कोई आधार अथवा समर्थन नहीं है, लेकिन फिर भी उन्होंने भाजपा में अपने लिए अच्छा मुकाम हासिल किया है.
लेकिन हिमंत बिस्वा सरमा और योगी आदित्यनाथ की कहानियां इन सबसे अलग नज़र आती हैं क्योंकि इन दोनों ने यह दिखाया है कि कैसे आरएसएस की पृष्ठभूमि के बिना भी न केवल भाजपा में शीर्ष पदों पर पहुंचना संभव है, बल्कि पार्टी में हावी होना और इसका पोस्टर बॉय एवं ध्वजवाहक बनना भी संभव है.
ऐसे नेताओं को शामिल करना संघ-भाजपा के अपने पारिस्थितिकी तंत्र में बढ़ती हुई व्यवहारिक प्रवृति की ओर संकेत करता है. जब आप अपना राजनैतिक विस्तार करते हैं और इस तरह की राष्ट्रीय पार्टी का स्वरूप धारण करते हैं, तो आपको ‘बाहरी लोगों’ को अपने अंदर शामिल होने और उन्हें आगे बढ़ने की अनुमति देने की आवश्यकता होती है.
मैंने एक बार तर्क दिया था कि हिमंत बिस्वा सरमा के पास आरएसएस की पृष्ठभूमि को छोड़कर अगला अमित शाह बनने के लिए सारी योग्यताएं मौजूद है. लेकिन भाजपा में जिस तरह से चीजें बदल रही हैं, उसे देखते हुए लगता है कि योगी आदित्यनाथ और सरमा दोनों के पास पार्टी का नेतृत्व करने के लिए राष्ट्रीय परिदृश्य में आने का पूरा-पूरा मौका है.
(व्यक्त विचार पूरी तरह से निजी हैं)
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