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Sunday, 3 November, 2024
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कांग्रेस का घोषणापत्र गलत वक्त पर पेश हुआ एक सही दस्तावेज़ है: योगेंद्र यादव

राहुल गांधी ने पांच मुख्य बिन्दु गिनाये हैं जिसमें गरीबी, कृषि-संकट, बेरोजगारी, स्वास्थ्य तथा भय का चौतरफा माहौल ऐसे मुद्दे हैं, जिससे राष्ट्र को निपटना है.

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लोकसभा के इस ऐतिहासिक महत्व वाले चुनाव में कांग्रेस का घोषणापत्र निशाना चूक जाने वाले किसी तीर की तरह है. शुरू में ही स्पष्ट कर दूं कि घोषणापत्र बुरा नहीं है- जहां तक मुख्यधारा की पार्टियों के घोषणापत्र का सवाल है, कांग्रेस का घोषणापत्र कहीं ज्यादा संगत और सुचिन्तित है. इसे पेश भी अच्छे तरीके से किया गया- कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने घोषणापत्र को पेश करते वक्त अपनी क्षमता भर बहुत अच्छा बोला.

लेकिन मुश्किल ये है कि कांग्रेस का घोषणापत्र गलत वक्त पर पेश हुआ एक सही दस्तावेज है. राजनीति दरअसल वक्त की नब्ज को पहचानकर दांव चलने का नाम है. कांग्रेस फिलहाल चुनावी अखाड़े के सामान्य दांव-पेंच से काम ले रही है लेकिन यह चुनाव कोई आम ढर्रे पर होने वाला चुनाव नहीं है. अभी तो सत्ता पर कब्जा करने का खेल चल रहा है और इसके लिए तरकीब कुछ ऐसी अपनायी जा रही है कि ऊपरी तौर पर देखने पर लोगों को लगे कि चुनाव बिल्कुल निष्पक्ष और जनतांत्रिक रीति से हो रहे हैं.

बारीक बुनाई-कताई वाला कोई नीतिगत दस्तावेज आम वक्त में बेशक आपको बढ़त देने वाला साबित होता है लेकिन ऐसे वक्त में नहीं जब कोई आपके सामने एक दम से दांत भींचकर पूरे जतन के साथ संवैधानिक लोकतंत्र पर चोट मारने पर तुला हो. जो संस्थाएं और मूल्य हमारे संविधान की एक तरह से आत्मा हैं- आज उन्हीं पर अप्रत्याशित तरीके से हमला हो रहा है.

ऐसे वक्त में ये बहुत अहम हो जाता है कि कांग्रेस क्या कदम उठाती है और किन कदमों को उठाने से परहेज करती है. इस चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टियों पर लोकतंत्र की रक्षा का महत्तर दायित्व है. लेकिन वक्त की नजाकत के हिसाब से जिस किस्म की दृष्टि और दृढ़ता की जरुरत है, वह देखने में नहीं आ रहा. विपक्षी खेमे का हर कोई चुनावी स्लेट पर अपने स्वार्थों का जोड़-जमा बैठाने में लगा है जबकि वक्त ऐसे किसी गणित से परे हटकर सामने उभरकर खड़ी बड़ी तस्वीर पर नजर डालने का है. कांग्रेस इस देश की मुख्य विपक्षी पार्टी है और इस नाते उसपर अपेक्षाओं का भार ज्यादा है- उससे कहीं ज्यादा उम्मीदें हैं.


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ईमानदारी से कहें तो यह बात सही है कि कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में वास्तविक मुद्दे उठाये हैं, कोशिश की है कि ये चुनाव फिर से सही लीक पर चले. राहुल गांधी ने पांच मुख्य बिन्दु गिनाये और सोचकर देखें तो वो ही पांच बिन्दु यानि गरीबी, कृषि-संकट, बेरोजगारी, स्वास्थ्य तथा भय का चौतरफा माहौल ऐसे मुद्दे हैं जिससे राष्ट्र को निपटना है.

कांग्रेस के घोषणापत्र के ज्यादातर प्रस्ताव अपने स्वभाव में गंभीर किस्म के हैं. बेशक न्याय (न्यूनतम आय योजना) के साथ यह सवाल लगा हुआ है कि यह योजना कैसे लागू होगी और इसके लिए धन कहां से आयेगा लेकिन देश के सबसे गरीब परिवारों के खाते में सीधे नकदी पहुंचाने का विचार ऐसा नहीं कि आप झटके से खारिज कर दें. कुछ मशहूर अर्थशास्त्रियों ने इस किस्म के प्रस्ताव पर विचार किया है. ऐसे प्रस्ताव को भारी गरीबी या कह लें दुर्वह किस्म की दरिद्रता को दूर करने के उपायों की अच्छी शुरुआत माना जा सकता है.

कांग्रेस ने अपने मेनिफेस्टों में खेती-बाड़ी के मोर्चे पर जो वादे किये हैं उनसे किसान आंदोलन के मेरे साथी भले संतुष्ट ना हों, लेकिन किसान-आंदोलन की मुख्य मांगों जैसे- एकमुश्त कर्जमाफी तथा उपज का लाभकारी दाम देने के संस्थागत इंतजाम- को कांग्रेस के घोषणापत्र में जगह मिली है. हां, जिस रूप में ये मांग पेश की गई थी, उस रूप में जगह नहीं मिल पायी है. किसान-बजट का प्रस्ताव भले ही फौरी तौर पर मानीखेज ना लगे लेकिन देश के रोजमर्रा के जीवन में किसानों के मुद्दे पर जागरुकता लाने के लिहाज से ‘किसान-बजट’ एक कारगर युक्ति साबित हो सकता है.

केंद्र और राज्य सरकारों को एक साथ मिलाकर देखें तो अलग-अलग विभागों में अभी 20 लाख से ज्यादा पद रिक्त हैं और किसी भी सरकार के लिए इतने सारे पदों पर भर्ती लेना मुश्किल साबित होगा. लेकिन नरेन्द्र मोदी ने चुनावों के वक्त जो बात कही थी कि हर साल दो करोड़ नौकरियां दी जायेंगी उसकी तुलना में 20 लाख पदों पर बहाली करने का कांग्रेस का वादा कहीं ज्यादा तर्कसंगत दिखता है.


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घोषणापत्र में एक प्रस्ताव हर पंचायत में सेवामित्र रखने का है. बेशक यह रोजगार देने का एक अतिरिक्त विकल्प साबित हो सकता है लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि स्थानीय स्तर पर प्रशासन की गुणवत्ता बेहतर बनाने में यह कदम सहायक साबित होगा. घोषणापत्र में स्वास्थ्य के अधिकार की बात कही गई है- इस अधिकार को साकार करने का कोई नक्शा नहीं बताया गया है लेकिन निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियों के सहारे स्वास्थ्य के मोर्चे पर सेवा प्रदान करने का जो मॉडल खड़ा किया गया है उसकी तुलना में स्वास्थ्य के अधिकार को रेखांकित करता यह प्रस्ताव सही दिशा में उठा कदम माना जायेगा.

इसके अतिरिक्त भी कांग्रेस के घोषणापत्र में बहुत से युक्तिसंगत और मानीखेज प्रस्ताव हैं भले ही इन्हें समाचारों की सुर्खियों में जगह नहीं मिली, जैसे : हर परिवार को घराड़ी (घर बनाने की) जमीन, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए आजीविका केंद्र, बड़े आकार के गांवों के लिए एक अतिरिक्त आशाकर्मी का इंतजाम, जलागारों के संरक्षण के जरिये रोजगार सृजन, शिक्षा के अधिकार का विस्तार 12वीं कक्षा तक करना, सामाजिक न्याय के लिए सामाजिक विविधता सूचकांक का उपयोग तथा समान अवसर आयोग की स्थापना ( यहां स्पष्ट करता चलूं कि इन पंक्तियों का लेखक बहुत पहले यानि 2007 में उस रिपोर्ट की तैयारी से जुड़ा था जिसमें ऐसे आयोग की स्थापना का सुझाव दिया गया है.)

घोषणापत्र में ऐसे कई वादे किये गये हैं जो हमारे संवैधानिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए जरुरी हैं, जैसे: राजद्रोह के कानून का खात्मा, मानहानि के कानून की समाप्ति, अफ्स्पा के तहत प्रदान किये गये कुछ विशेषाधिकारों की पुनर्समीक्षा तथा कुख्यात चुनावी बांड योजना की समाप्ति. नागरिक अधिकारों की बात कहने वाले संगठन बरसों से कुछ सुझाव दे रहे हैं, जैसे कि जजों की नियुक्ति के लिए एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बने, ऐसा ही एक आयोग और बने जो जजों के विरुद्ध आने वाली शिकायतों की सुनवाई करें, शिकायत निवारण विधेयक पारित हो तथा पर्यावरण सुरक्षा के मोर्चे पर व्यापक अधिकारों वाला एक प्राधिकरण बनाया जाय. कांग्रेस के घोषणापत्र में इन सुझावों के मद्देनजर भी कुछ सकारात्मक वादे किये गये हैं.

अब अरुण जेटली चाहें जितनी अफवाह फैलायें लेकिन कांग्रेस के घोषणापत्र में मात्र इतनी भर बात कही गई है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर राष्ट्रीय आम सहमति कायम की जानी चाहिए. अफ्सपा में कुछ पहलुओं के पुनरावलोकन की जो बात घोषणापत्र में कही गई है उससे कहीं ज्यादा सख्त बात तो बीजेपी ने कही थी. बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर के चुनावों के वक्त वादा किया था कि सूबे में अफ्सपा का इस्तेमाल नहीं होगा.

जाहिर है, कांग्रेस बहुत फूंक-फूंक कर कदम उठा रही है. बच-बचाकर कदम बढ़ाने का भाव उसपर इतना हावी है कि मोदीराज में मुस्लिम जनता को जो दुख उठाने पड़े उसके बारे में कांग्रेस के घोषणापत्र में हल्का सा जिक्र तक नहीं आया है.


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अगर घोषणापत्र में नीतियों को लेकर हुई इन तमाम बातों के बावजूद चुनाव का अजेंडा अपनी असली धुरी पर नहीं लौटता तो फिर हमें इसके कारण घोषणापत्र से अलग खोजने चाहिए. एक मामला तो यही है कि वक्त माकूल है या नहीं: कांग्रेस जनहितैषी अजेंडा लेकर आयी जरूर लेकिन ठीक उस घड़ी जब पहले दौर के चुनाव होने में बस दस दिन शेष थे और इस बात की संभावना बड़ी कम रह गई कि उसके वादे उन लोगों के कानों तक पहुंचेंगे जिनको सुनाने के लिए उन्हें रचा गया है. मुझे नहीं लगता कि ज्यादातर किसानों तक घोषणापत्र की यह बात पहुंचेगी कि कांग्रेस देशभर में किसानों की कर्जमाफी करेगी.

दूसरा मसला पहुंच का है : कांग्रेस इधर अपने संदेश के सुर-ताल सुधारने में लगी है जबकि जरुरत जोर-जोर से बोलकर अपनी बात सुनाने की है. आखिर, अभी उसका सामना कानफोड़ू प्रचार की एक मशीन से है. टीवी के स्टुडियो बीजेपी के दफ्तर बन चले हैं और चुनाव आयोग अभी प्रधानमंत्री कार्यालय की एक शाखा की तरह काम कर रहा है- ऐसे में लगता तो नहीं कि कांग्रेस के घोषणापत्र का कोई वादा लोगों के कानों तक पहुंच पायेगा.

इसके अलावा एक मसला साख का भी है: जिम्मा इस देश के लोकतंत्र को बचाने का आन पड़ा है लेकिन कांग्रेस या फिर राहुल फिलहाल वैसा भरोसा नहीं जगा पा रहे जो लगे कि इतनी बड़ी जिम्मेवारी निभा ले जायेंगे. राहुल गांधी खुद भी कांग्रेस की विरासत को याद कर रहे हैं और बाकी हर एक को इस विरासत की याद दिलाने में लगे हैं लेकिन अभी कांग्रेस के लिए उसकी विरासत ही सबसे बड़ा बोझ साबित हो रही है.

मुश्किल ये नहीं कि कांग्रेस का घोषणापत्र गड़बड़ है- समस्या यह है कि घोषणापत्र बस कागजी पुलिन्दा भर है, आशा और विश्वास जगाने वाला वह जोरदार और भरोसेमंद राजनीतिक संदेश नहीं जिसकी अभी हमारे देश में बड़ी जरुरत है !

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)

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