scorecardresearch
Thursday, 14 November, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टयोगेंद्र यादव ने साम्यवाद के प्रति मेरी कुढ़न को सही पकड़ा है लेकिन देश का इलाज सांप के तेल से नहीं हो सकता: शेखर...

योगेंद्र यादव ने साम्यवाद के प्रति मेरी कुढ़न को सही पकड़ा है लेकिन देश का इलाज सांप के तेल से नहीं हो सकता: शेखर गुप्ता

मेरे तर्क साम्यवाद अथवा वामपंथ के विरुद्ध नहीं है. बल्कि वे उस राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विरुद्ध हैं जिसमें मिशन जय हिंद के ये प्रख्यात प्रस्तावक विश्वास करते हैं.

Text Size:

योगेंद्र यादव ने मिशन जय हिंद के सात सूत्री (या कहें तो, 7.1 सूत्रीय) चार्टर (कार्यक्रम) के बारे में मेरी आलोचनात्मक टिप्पणी को एक ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति के रूप में चिन्हित किया है जिसका मूल साम्यवाद और शीत युद्ध के शिकार के रूप में मेरी कुढ़न में छिपा है.

मैं किसी भी ऐसे अनुभवी मनोविज्ञानी के विचारों को पूर्ण रूप से स्वीकार कर सकता हूं. खासकर, अगर वह कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने मेरे अब तक के प्रकाशित लेखों के माध्यम से स्पष्ट रूप से प्रतिलिक्षित मेरे लक्षणों और अवस्थितियों पर करीबी नज़र रखी है. योगेंद्र का यह मानना सत्य के अत्यंत निकट है कि कम्युनिज्म के प्रति मेरी शिकायत काफ़ी गहरी रही है.

दरअसल अज्ञानता से बुरा कोई भय है हीं नहीं. साम्यवाद के प्रति मेरे डर के मूल मे भी यही कारण है. एक राजनीतिक पत्रकार के रूप में दशकों के मेरे अनुभव में कम्युनिज़्म हीं वह विषय है जिसके बारे में मैंने सबसे कम सीखा/जाना है. स्कूल और कॉलेज के वर्षों में मेरा ज़्यादातर समय बॉटनी-जूलॉजी-केमिस्ट्री से संघर्ष करते हुए हीं बीता था. (शुक्र है ग्यारहवीं कक्षा में हीं मैंने गणित और भौतिकी से पीछा छुड़ा लिया था). और फिर योगेंद्र और मेरे गृह राज्य के छोटे शहरों में चौधरी बंसीलाल के तत्कालीन कार्यकाल में छात्र राजनीति की कल्पना भी दुरूह थी.

अतः सत्य तो यही है कि अपने कॉलेज के दिनों में वामपंथी विचारधारा से अवगत किए जाने की सामान्य परंपरा से मैं अछूता हीं रहा. मुझे यह भी पक्का पता नहीं है कि वामपंथियों ने भारत के इस सबसे गैर-क्रान्तिकारी राज्य- हरियाणा में कभी भी किसी चुनाव में एक भी सीट जीती हो. यहां तो कोई बुरी लगने जैसी बात है हीं नही.


यह भी पढ़ें: मोदी 2.0 का एक साल पूरा होने पर भाजपा कर रही है नया प्रयोग, पार्टी प्रवक्ता कर रहे हैं केंद्रीय मंत्रियों से सवाल


इस काल की जो बात मेरे दिमाग पर चस्पा हो गयी थी- और जिसे मैंने अपने संस्मरणों के लिए हमेशा याद रखा है- वह है बंसीलाल द्वारा रोहतक में एक सार्वजनिक रैली के दौरान दिया गया वह बयान जो उन्होंने उस वक्त दिया था जब दिवंगत नेता जॉर्ज फर्नांडीस साल 1974 की शुरुआत में रेलवे में एक महाहड़ताल का नेतृत्व कर रहे थे.

तब किसी को भी यह भी नहीं पता था कि फर्नांडीस के यूनियन के झंडे का रंग क्या है- और मुझे वामपंथ और लोहिया के बीच अंतर ना कर पाने के ख़तरों का अब पूरी तरह से अंदाज़ा है- लेकिन बंसीलाल के विचार कुछ इस तरह प्रकट हुए.

दरअसल, कुछ वामपंथी नेतागण एक महत्वपूर्ण चुनावी रैली कर रहे थे, लेकिन उनके मुख्य वक्ता का पेट गड़बड़ सा था. उनके साथी कामरेडों का कहना था कि यदि वह बोलने के लिए नहीं आतें हैं तो चुनाव तो गया हाथ से. इसके बाद एक अन्य दिमागदार कॉमरेड ने एक और जुगाड़ लगाया.

उन्होंने उन महान वक्ता माने जाने वाले नेता जी को लाल कपड़े का एक टुकड़ा देते हुए, कहा ‘इसे अपनी धोती के नीचे लंगोट की तरह बांधो, और रैली में आओ. तुम्हे कुछ नहीं होगा.’

सीनियर कामरेड ने भड़कते हुए कहा, ‘तेरा क्या दिमाग खराब हो लिया है, भाई’. लेकिन दिमागदार कॉमरेड ने कहा, ‘ये लाल झंडा है. इसको देख के बिरला-टाटा की बड़ी-बड़ी फ़ैक्टरियां बंद हो गयीं, तो तेरा पेट क्या चीज है.’

आप इसे बचकाना बयान कह सकते हैं. लेकिन हर कोई हमें ‘हरियाणवी’ की तरह हीं तो देखता और परखता है. इसके अलावा, एक 17 साल के युवा मे मन में साम्यवाद के बारे में गहरी आशंकाओं के बीज बोने का इससे बेहतर और क्या तरीका हो सकता है?

बाद में चलकर मामला और बिगड़ गया. तब शीत युद्ध अपने चरम पर था, इसलिए डाकिये नियमित रूप से कई भारतीय परिवारों को अमेरिकी और सोवियत दूतावासों से जारी प्रोपगैंडा साहित्य बांटा करते थे.

हमें मार्क्स, एंगेल्स आदि के चुनिंदा आलेखों वाली सोवियत सामग्री का बेसब्री से इंतजार रहता था क्योंकि उनसे हमारी छोटी-सी किताबों की अलमारी (बुकशेल्फ) सज जाती थी. ख़ासकर तब जब हम हार्डकवर के रूप में लुगदी साहित्य के अलावा और कुछ भी नहीं खरीद पाते थे. इसलिए, कम्युनिस्टों के लिए बाइबिल के समकक्ष माने जाने वाले कम्युनिस्ट साहित्य की एक पूरी पंक्ति हमारी बुकशेल्फ के उपरी खाने में शान से सजी होती थी और इसने साथ-साथ जॉन एफ कैनेडी की फ़्रेमयुक्त तस्वीर – जो कई साल पहले अमेरिकी दूतावास से मेल में आई थी- विराजमान होती थी. चूंकि कम्युनिज्म साहित्य के भारी-भरकम संस्करण काफ़ी भयावह से दिखते थे इसलिए कैनेडी की वह तस्वीर हमें अपने मन का डर भगाने के लिए बटुए में रखे छोटे से हनुमान चालीसा पुस्तिका की तरह लगती थी.

मेरा यह डर और शिकार होने की भावना तब और गहरी हो गयी जब मैं पंजाब विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए गया. वही विश्वविद्यालय जहां बाद में योगेन्द्र ने भी पढ़ाया था. हालांकि उन्होने मुझे नहीं पढ़ाया था, इसलिए इस सब में उनका कोई दोष नहीं.

वह इमरजेंसी का समय था (असली वाली, वह नहीं जिसे इस 7.1-सूत्री चार्टर को बनाने वाले 31 विद्वान इमरजेंसी मानते हैं), इसलिए उस वक्त शैक्षणिक परिसरों में राजनीति का कोई स्थान नहीं था. लेकिन हमारे सहपाठियों में से एक पक्की दाढ़ी (सोच) वाले कॉमरेड भी थे और महिलाओं में उनके प्रति एक चुंबकीय आकर्षण था. मैंने एक बार उनसे इस बात पर 10 रुपये की बाजी लगाई कि क्या ईएमएस नंबूदरीपाद मर चुके थे या जीवित थे और मैं हार गया. आख़िर क्यों मुझे जीवन भर इसका डर नहीं लगेगा? 1975 में दस रुपये में बहुत सारे आमलेट मिलते थे.


यह भी पढ़ें: पाकिस्तानी ना केवल कोरोनावायरस से डर रहे हैं बल्कि ‘कर्नल की बीवी’ से भी


तकरीबन सोलह साल बाद 1991 में मैं ईएमएस से त्रिवेंद्रम में मिला. मैं अपने सहकर्मी रमेश मेनन के साथ उस वक्त की वाम मोर्चे की सरकार के द्वारा शुरू किए गये साक्षरता अभियान के बारे में एक आलेख लिख रहा था. तब मैंने ईएमएस को अपनी हारी हुई बाजी के बारे में बताया. उन्होंने इसे बड़ी बखूबी से लिया. मुझे बनावटी गुस्से और भय से देखते हुए अपनी बांह आगे बढ़ाई और बोले, ‘लो खुद ही चेक कर लो (उनकी पल्स). हो सकता है तुम हीं सही हो और मैं मर चुका होऊं.’

अंततः तब जा कर मैंने जाना कि वामपंथी भी मजाकिया हो सकते हैं और अपने-आप पर भी हंस सकते हैं. 1998 में कोलकाता में तकरीबन एक महीने बिताने के बाद मैंने वामपंथी राजनीति के बारे में मेरा पहला आलेख लिखा. मैंने उस समय में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के राज्य प्रमुख सरोज मुखर्जी से उनके कार्यालय में सवाल पूछा था कि जब मिखाइल गोर्बचेव और डेंग वाइंपिंग सोवियत यूनियन और चीन में वामपंथ की कायापलट कर सकते हैं तो भारत के वामपंथी क्यों नहीं बदल पा रहें हैं? उन्होने गर्व से अपने बाहें ऊंची करते हुए कहा था, ‘क्योंकि मेरा कम्यूनिज्म डेंग और गोर्बचेव के कम्यूनिज्म से कहीं अधिक खरा है.’ वह वार्तालाप आज भी इंडिया टुडे द्वारा शानदार तरीके से रखे गये आर्काइव्स में सुरक्षित है. साथ हीं में वह तस्वीर भी हैं जिसमे मैं और सरोज लेनिन, मार्क्स और स्टालिन की बड़ी-बड़ी तस्वीरों के नीचे बात कर रहें हैं.

इस तरह मेरे मन में अपनी तरुणाई के दिनों से लेकर बीस और तीस के दशक में भी लगे कई दंश छिपे हैं. इसलिए, योगेंद्र आप बिल्कुल सही हो.

आधा-अधूरा निदान

लगभग, उसी समय कई मानसिक बीमारियों में कारगर साबित होने वाली पहली दवाओं में से एक प्रोज़ॉक, बाजार में आई थी और इसी से मिलते-जुलते समय काल में साम्यवाद और वामपंथी सोच के लिए चिकित्सा भी सामने आ चुकी थी. शीत युद्ध समाप्त हो चुका था. सोवियत संघ नक्शे से हीं गायब हो गया, बर्लिन की दीवार गिर गई, गोर्बाचेव अमेरिकी उदारवादी कैम्पसों की शरण में चले गए थे और डेंग ने इस कथन के साथ अपने आप को अमर बना दिया कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बिल्ली का रंग काला है या सफेद तब तक, जब तक कि वह चूहे सही तरह से पकड़ लेती है.

अगर कुछ नहीं बदला था तो वह था भारतीय कम्युनिज्म. लेकिन यह हमारे लिए कभी मायने भी नहीं रखता था. भारत का असल राजनैतिक अभिशाप इसका राजनीतिक समाजवाद था. इसीलिए जब शीत युद्ध समाप्त हो रहा था और सोवियत ब्लाक से मुक्त हुए देश पश्चिमी, ‘पूंजीवादी’ निवेश की तलाश में लगे थे, भारत में वी.पी. सिंह, के नेतृत्व में हमारे इतिहास में सबसे विनाशकारी और दैनिक-मजदूरी की तरह का लगने वाला गठबंधन, ‘रेड राज’ की फंतासी को पुनर्जीवित कर रहा था. वित्त मंत्री के रूप में मधु दंडवते ने 1990 में एक ऐसा बयान दिया जिसे कोई भारतीय समाजवादी हीं (यहां तक ​​कि कोई भारतीय कम्युनिस्ट भी नहीं) दे सकता था, ‘मैं एफडीआई के खिलाफ नहीं हूं. लेकिन मैं इसकी तलाश में नहीं जाऊंगा.’ वे, भारत के प्रमुख उद्योग संघ की बैठक को संबोधित कर रहे थे.

1990 के अंत-अंत तक, भारत में भुगतान संतुलन का संकट खड़ा हो चुका था. शुक्र है कि चन्द्रशेखर जैसे पुराने समाजवादी के पास लोन के डिफ़ॉल्ट से बचने के लिए भारत के सोने को गिरवी रखने जितनी बुद्धिमता बाकी थी. जल्द ही, नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह की अल्पसंख्यक सरकार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के सामने घुटने टेक खड़े थे. उन्होंने भारत के 43 साल के समाजवादी अवसाद को दूर करने के लिए, 1991 के आर्थिक सुधार के रूप में प्रोज़ॉक का प्रयोग किया.

योगेन्द्र यादव का इस बारे में मनोविश्लेषण बिल्कुल सही है कि मुझे कौन सी बीमारी है. बस उनकी वायरोलॉजी में यह कमी रह गयी है कि वो पहचान नहीं पाए कि इस बीमारी को पैदा करने वाला कीड़ा या वायरस कौन सा है?

साम्यवादी परी कथा

इसे भारत का सौभाग्य कह लें या दुर्भाग्य कि यह कभी भी कम्युनिस्टों द्वारा शासित नहीं रहा. मेरा मानना है कि यह बुरा ही था क्योंकि अगर ऐसा होता, शायद थोड़े समय के लिए हीं सही, तो भारतीयों की कई पीढ़ियों को उनकी आर्थिक ज्यादतियों को याद रखना होता, वैसे हीं जैसे कि हम आपातकाल के राजनीतिक लोगों को याद करते हैं, और कसम खाते हैं, फिर कभी ऐसा होने नहीं देंगे.

यह सबक मुझे 1990 में प्राग में एक अवैध टैक्सी के रूप ट्रैबंट को चलाने वाले एक प्रतिभाशाली, किंतु बेरोजगार कंप्यूटर इंजीनियर द्वारा सिखाया गया था. यह वह समय था जब वैक्लेव हैवेल के लिए उमड़ी भीड़ ‘एट जेज हवल (हवल जिंदाबाद)’ के नारे लगा रही थी और मैं प्राग में इंडिया टुडे के लिए सोवियत ब्लॉक के बिखराव को कवर कर रहा था.

वे कम्युनिस्टों को गाली दे रहे थे और मुझे याद दिलाना पड़ा कि वे अभी भी भारत में कुछ चुनाव जीत रहे थे, विशेष रूप से हमारे कुछ सबसे बौद्धिक रूप से संपन्न राज्यों में, और यह कि इस विचारधारा का अभी भी हमारे कुछ शैक्षणिक परिसरों में चुंबकीय आकर्षण कायम है.

उसका जवाब था ‘ऐसा इसलिए क्योंकि आपका कभी कम्युनिस्टों के शासन से साबका नहीं हुआ. आपके आपातकाल ने आपकी राजनीतिक स्वतंत्रता छीन ली और फिर आपको एहसास हुआ कि ये कितनी कीमती है और फिर आपने उन्हें वापस हासिल करने के लिए संघर्ष किया. आपकी आर्थिक स्वतंत्रता तो पहले ही दिन से नेहरू-इंदिरा द्वारा ओढ़ाये गये समाजवादी नैतिकता की आड़ में चोरी हो गई थी, आप आर्थिक स्वतंत्रता के लिए लड़ने के बारे में सोचते हीं नहीं हैं, क्योंकि आपके देश ने कभी इसे अनुभव हीं नहीं किया है. हमारे पास पहले आर्थिक स्वतंत्रता थीं, कम्युनिस्टों ने उन्हें चुरा लिया, इसलिए हम उसके मूल्य को महत्व देते हैं जो हमने इसे वापस जीता है.’


यह भी पढ़ें: शेखर गुप्ता को गुस्सा क्यों आता है, वह कम्युनिज्म और कोल्ड वॉर की चिंताओं का शिकार हैं


मैंने पहले हीं इस 7.1-सूत्री चार्टर की कल्पना पर अपना मत व्यक्त कर दिया है. अब मुझे इसमें कुछ भी बदलने की जरूरत नहीं, सिवाय यह जोड़ने के कि इसके हस्ताक्षरकर्ताओं में 11 अर्थशास्त्री हैं. सभी प्रख्यात, बहु-प्रकाशित, और सहमकर्मियों द्वारा समीक्षित. योगेंद्र ने शायद उन सभी को पढ़ा है. वह उनको किस श्रेणी में रखेगे: वामपंथी, दक्षिणपंथी, समाजवादी? यदि, वे इस वायरस को 1991 के सुधारों को पलट सकने में समर्थ सहयोगी के रूप में देखते हैं जिसका उन्होंने लगभग तीन दशकों से इंतजार किया है, तो उनके मुखर विरोध की आवश्यकता है. खासतौर पर उन भारतीयों की पीढ़ी से जिन्हें भारत की नकली, पुराने समाजवाद वाली व्यवस्था में उलट-पलट का फायदा हुआ है.

भारत को और अधिक संसाधनों की आवश्यकता है और समझदार अर्थशास्त्रियों को यह पता होना चाहिए की यह कहां से हासिल होगा. आय कर की दरें बढ़ाने से अब काम नहीं चलने वाला क्योंकि आप 43.5 प्रतिशत के आय कर दर में ऊपर से डीडीटी, एलटीसीजी और 18 प्रतिशत जीएसटी जैसे अधिक कर लगाते हैं, इस सब के बाद हो सकता है कि ईंधन पर 150 प्रतिशत का कर चुकाने के बाद मंदी के इस वर्ष में कर देने योग्य अधिक आय हो ही नहीं. अगर आप उन संपत्तियों के पीछे पड़ते हैं जो उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से, कर-भुगतान वाली आय के साथ अर्जित की हैं तो आपको माओत्से तुंग, गैंग ऑफ़ फोर, कल्चरल रेवोल्यूशन और गोपनीय रेड गार्ड्स जैसे बदनाम व्यक्तियों या संस्थाओं की आवश्यकता होगी. भयावह मंदी के दौर में कोई सनकी हीं कर की दरों में वृद्धि कर सकता है.

मेरी लड़ाई कम्युनिज्म से नहीं है. मैं कभी भी किसी भी आड़ के पीछे नहीं छिपता, विशेष रूप से एक मित्र और दोस्ताना मुकाबला करने को तत्पर साथी के साथ जो असहमति के प्रति खुला नज़रिया रखता है. मुझे भारत में साम्यवाद खतरनाक से अधिक मनोरंजक लगता है. मेरा तर्क उस राजनीतिक अर्थव्यवस्था से है जिसमें आप और आपके सह-हस्ताक्षरकर्ता विश्वास करते हैं. आप कतई पाखंडी नहीं हैं. आपने ईमानदारी से अपने मन की बात कही है और एक दस्तावेज़ पर अपने हस्ताक्षर किए हैं.

अंत में एक बार फिर से मेरा मानना ​​है कि आप अपने निदान में बिल्कुल सही हैं, लेकिन मर्ज का इलाज आपका नुस्खा सांप के तेल जैसे जंगली और भद्दे प्रयोग जैसा है. भारत की समस्या यह नहीं है कि यहां अमीरों की संख्या बहुत अधिक है. न ही इस बात की समस्या है कि यहां बहुत अधिक गरीब हैं. दरअसल हमारी असल समस्या यह है कि भारत के पास बहुत कम अमीर हैं. इसे क्यों, कैसे और कहां ठीक करना है, यह एक सतत तर्क का विषय है. ‘पॉवेर्टरियानिज्म’ भारत में केवल एक आर्थिक विचार नहीं है, बल्कि सभी पक्षों पर हावी एक प्रमुख राजनीतिक विचारधारा है. अगर आप हमारे बौद्धिक और राजनीतिक अभिजात वर्ग के गरीबी के आत्म-परोपकारी महिमागान और संपन्नता के दानवीय रूप में प्रदर्शन के बारे में अधिक जानना चाहते हैं, कृपया फरहान अख्तर की फिल्म ‘दिल चाहता है’ से प्रेरित 2001 में प्रकाशित इस नेशनल इंटरेस्ट आलेख को ज़रूर पढ़ें.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments

1 टिप्पणी

  1. सर जी, जो रूपक आपने इस्तेमाल किये हैं वे आपकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं हैं – जैसे लाल लंगोट बाँधनेवाला, लड़कियों वाला आदि. बात तर्क और विचार की है. इस देश में समाजवाद और भ्रष्टाचार की युति हानिकारक है तो पूँजीवाद और भ्रष्टाचार की युति विनाशकारी है. आप कभी बढती आर्थिक असमानता पर कट-द-क्लटर क्यों नहीं करते ? क्यों ऐसा है कि पूंजीपतियों ने इस महामारी के दौर में एक धेले का सहयोग नहीं दिया है – जो दिया उसे CSR में वर्गीकृत करा लिया. आम आदमी और गरीबों ने तो हैसियत से ज्यादा दान दिया. संपत्ति बनानेवाले कितने निष्ठुर हैं ये २२ मार्च के बाद देश के सामने हैं. वेल्थ क्रियेतर्स क्या जानें गरीब की जान की क्या कीमत होती है.

Comments are closed.