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Thursday, 19 December, 2024
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स्वामी विवेकानंद आज होते तो क्या नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ खड़े होते

स्वामी विवेकानंद ने हिंदुत्व, इस्लाम और धार्मिक शरणार्थियों को लेकर जिस साफगोई से अपनी बातें दुनिया के सामने रखी हैं, उन्हें इस मौजूदा परिस्थितियों में एक बार फिर से पढ़ने और समझने की जरूरत दिखती है.

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देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बीते दो महीनों से नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर व्यापक विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. इस कानून के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हुए गैर-मुसलमान शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की बात कही गई है. केंद्र सरकार का कहना है कि इन देशों में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों को राहत देने की कोशिश है. केंद्र में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस कानून पर लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए पूरे देश में व्यापक जन अभियान चला रही है.

वहीं, इस कानून की खिलाफत करने वालों का कहना है ये कानून गैर-संवैधानिक है. साथ ही, धर्मनिरपेक्ष भारत की छवि के ठीक उलट है. इस कानून का विरोध करने वालों के खिलाफ न केवल राज्य सरकारों द्वारा कानूनी कार्रवाई की जा रही है बल्कि, इनके प्रदर्शनों को देशहित के खिलाफ भी बताया जा रहा है. उधर, वैश्विक स्तर पर देखें तो संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) ने इस कानून की आलोचना की है. इसके चलते माना जा रहा है कि बतौर धर्मनिरपेक्ष देश भारत की छवि धूमिल हुई है.

इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो इस छवि को बनाने में आजादी से पहले भी देश की कई बड़ी शख्सियतों ने अपना अमूल्य योगदान दिया था. इनमें स्वामी विवेकानंद का भी नाम शामिल है. उन्हें आधुनिक भारत के इतिहास में ‘हिंदू धर्म का प्रवक्ता’ माना जाता है. लेकिन, उनका ‘हिंदुत्व’ आज के दौर में प्रचारित हिंदुत्व से कहीं अलग दिखता है. साथ ही, उन्होंने इस्लाम और धार्मिक शरणार्थियों को लेकर जिस साफगोई से अपनी बातें दुनिया के सामने रखी हैं, उन्हें इन मौजूदा परिस्थितियों में एक बार फिर से पढ़ने और समझने की जरूरत दिखती है.

साल 1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने पूरी दुनिया के सामने हिंदू धर्म के विशाल रूप को रखा था. उन्होंने इस सम्मेलन के अपने एक भाषण में कहा था, ‘हिंदू धर्म का समूचा लक्ष्य मनुष्य के परिपूर्णता पर पहुंचने का सतत संघर्ष है. यह आत्मबोध से कम कुछ भी नहीं है. हमें यह कभी नहीं सिखाया जा सकता कि इन सिद्धांतों पर विश्वास करो तो तुम सुरक्षित रहोगे. हम इसमें विश्वास नहीं रखते. आप वही हो जो आप खुद को बना लेते हो. धर्म एक बोध है. यह सुनने की चीज नहीं है. न ही यह तोते की तरह किसी सिद्धांत को रटने की चीज है.’


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वहीं, देश में समय-समय पर जिस तरह से हिंदू संगठनों से हिंदुत्व के खतरे में होने की आवाजें उठती रही हैं, स्वामी विवेकानंद की बातें उन्हें भी खारिज करती हैं. नौ नवंबर, 1897 को लाहौर में आयोजित एक कार्यक्रम में उनका कहना था, ‘इस देश में पर्याप्त पंथ या संप्रदाय हुए हैं. आज भी ये पंथ पर्याप्त संख्या में हैं और भविष्य में भी पर्याप्त संख्या में रहेंगे, क्योंकि हमारे धर्म की विशेषता रही है. इन सभी के तत्व हमारे सिर पर फैले हुए इस अनंत आकाश के समान विशाल है. खुद प्रकृति की भांति नित्य और सनातन है. अत: संप्रदायों का होना आवश्यक है.’

हालांकि, इसके आगे वे सांप्रदायिकता को लेकर देशवासियों को सावधान भी करते हैं और एक तरह से चेतावनी भी देते हैं. स्वामी विवेकानंद का मानना था कि इन सारी बातों के साथ जिसका होना जरूरी नहीं है वह है, इन संप्रदायों के बीच झगड़े-झमेले. संप्रदाय जरूर रहे लेकिन, सांप्रदायिकता दूर हो जाए. उनका कहना था, ‘सांप्रदायिकता से संसार की कोई उन्नति नहीं होगी. लेकिन, संप्रदायों के न रहने से संसार का काम नहीं चल सकता है. एक ही सांप्रदायिक विचार के लोग सब काम नहीं कर सकते. संसार की यह अनंत शक्ति कुछ थोड़े से लोगों से नहीं चल सकती है.’

वहीं, लोकसभा सांसद और लेखक शशि थरूर की मानें तो स्वामी विवेकानंद हिंदूवाद की भव्य और विविधतापूर्ण परंपराओं के उत्तराधिकारी होने के साथ इसके विकास के चरमोत्कर्ष के प्रतीक भी थे. साथ ही, उन्हें हिंदू धर्म में मौजूद विविधता और चयनशीलता इसकी सबसे बड़ी शक्ति प्रतीत होती थी. शशि थरूर ने अपनी किताब ‘मैं हिंदू क्यों हूं’ में इस बात का जिक्र किया है कि स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में दुनियाभर के लोगों को बताया कि किस तरह हिंदुओं ने अन्य धर्मों के दमन के शिकार व्यक्तियों का शरणार्थी के रूप में स्वागत किया. साथ ही, अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुतापूर्ण व्यवहार किया.

स्वामीजी ने इस धर्मसभा में बताया कि भारत ने रोम के अत्याचारों से जान बचाकर भारत पहुंचे यहूदी शरणार्थियों का और फारस के मुस्लिम शासन से भागे पारसियों का अपने देश में कितनी सहानुभूति और उदारता के साथ स्वागत किया था.
स्वामी विवेकानंद का साफ मानना था कि विविधता में एकता प्रकृति की स्वाभाविक योजना है और हिंदू ने इसे समझ लिया. साथ ही, उन्होंने इसे अपने लिए गर्व के एक विषय के रूप में भी जाहिर किया. उन्होंने कहा था, ‘मुझे एक ऐसे देश का वासी होने पर गर्व है जिसने दमन के शिकार सभी धर्मों और सभी देशों के शरणार्थियों को हमेशा शरण दी है.’ यानी माना जा सकता है कि नागरिकता संशोधन कानून को जिस रूप में लाया गया है, वह स्वामीजी के विचारों से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता है. साथ ही, इस बात की भी कल्पना की जा सकती है कि यदि आज स्वामीजी होते तो वे किनके साथ खड़े होते.

इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि हिंदुत्व के प्रबल समर्थक होने के बावजूद स्वामी विवेकानंद में इस्लाम के प्रति कोई द्वेष नहीं था. रामधारी सिंह दिनकर अपनी किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखते हैं, ‘उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने तो छह महीनों तक विधिवत मुसलमान होकर इस्लाम की साधना भी की थी. इसके चलते इस्लाम के प्रति उनका (स्वामी विवेकानंद) दृष्टिकोण उदार था.


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इसके आगे दिनकर लिखते हैं, ‘मुसलमानों को लेकर स्वामीजी का मानना था, ‘यह तो कर्म का फल था कि भारत को दूसरी जातियों ने गुलाम बनाया. लेकिन, भारत ने भी अपने विजेताओं में से प्रत्येक पर सांस्कृतिक विजय हासिल की. मुसलमान इस प्रक्रिया में अपवाद नहीं हैं. शिक्षित मुसलमान प्राय: सूफी होते हैं जिनके विश्वास हिंदुओं के विश्वास से अलग नहीं हैं. इस्लामी संस्कृति के भीतर भी हिंदू-विचार प्रविष्ट हो गये हैं. विख्यात मुगल सम्राट अकबर हिंदुत्व के काफी समीप था.’

देश में हिंदुओं के भीतर मुसलमानों के खिलाफ नफरत घोलने के एक तथ्य का लगातार इस्तेमाल किया जाता है कि उन्होंने मंदिरों को तोड़ा. साथ ही, देवी-देवताओं की मूर्तियों को नष्ट किया. इस बारे में स्वामीजी की शिष्या सिस्टर निवेदिता अपनी किताब ‘माई मास्टर’ में एक घटना का जिक्र करती हैं. उन्होंने बताया कि एक बार स्वामी विवेकानंद तीन-चार दिनों की एकांत समाधि से लौटकर उनसे बोले कि इस बारे में सोचकर उनके भीतर क्षोभ उठता है. इसके आगे वे निवेदिता से कहते हैं, ‘किंतु, आज माता (काली) ने मेरे मन को आश्वस्त कर दिया है. उन्होंने मुझसे (ध्यान में) कहा-अपनी मूर्तियों को मैं कायम रखूं या तुड़वा दूं, यह मेरी इच्छा है. इन बातों पर सोच-सोच कर तू क्यों दु:खी होता है?’

वहीं, रामधारी सिंह दिनकर की मानें तो स्वामीजी ने इस्लाम और हिंदुत्व के मिलन के महत्व को एक और उच्च स्तर पर बतलाया है. दिनकर कहते हैं, ‘आम तौर पर वेदांत को ज्ञान का विषय समझा जाता है, जिसमें त्याग और वैराग्य की बातें अनिवार्य रूप से आ जाती हैं. लेकिन, इस्लाम मुख्यत: भक्ति का मार्ग है और हज़रत मुहम्मद का पंथ देह-दंडन, संन्यास और वैराग्य को महत्व नहीं देता. स्वामीजी की कल्पना थी कि इस्लाम की व्यावहारिकता को आत्मसात किये बिना वेदांत के सिद्धांत जनता के लिए उपयोगी नहीं हो सकते.’ रामधारी सिंह दिनकर के मुताबिक साल 1898 में उन्होंने एक पत्र में यह भी लिखा था कि- हमारी जन्मभूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके दो धर्म- हिंदुत्व और इस्लाम दोनों मिलकर एक हो जाएं. वेदांती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खड़ा होगा, वही भारत की उम्मीद है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं)

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