हर साल करीब आठ लाख. हर 40 सेकेंड पर एक मौत. ये मौत भी साधारण नहीं, खुद के हाथों. क्या पूरी दुनिया में इस कदर निराशा, हताशा और अकेलापन है कि जिंदा रहने की चाहत इतनी कम हो गई है! इसको महामारी की सूरत में देखने के लिए ही दस सितंबर को विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाया जाता है. हालांकि, कई देशों की सरकारें इन मौतों को रोकने की जगह पर्दा डाले रखना चाहती हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट दो मामलों में खास है. एक, निम्न मध्यम आय वाले देशों में आत्महत्या की दर सबसे ज्यादा है. ऐसे देशों में भारत भी है, जहां विकास प्रक्रिया जिस तरह चल रही है, तनाव अवसाद ग्रस्त बना रहा है. बेरोजगारी से लेकर दैनिक जीवन के संकट गहरा रहे हैं.
दूसरी चौंकाने वाली बात ये सामने आई है कि युद्ध से तबाह सीरिया, अफगानिस्तान और इराक में आत्महत्या की दर बहुत कम है. एक लाख लोगों में अफगानिस्तान में पांच से कम, इराक में तीन और सीरिया में दो से कम लोगों के आत्महत्या करने की दर है. इसका कारण नहीं समझा जा सका है.
बहरहाल, भारत के हालात इस मामले में बहुत खराब हैं. पूरी दुनिया में शीर्ष 20 देशों में शुमार था और अब 21वें नंबर पर है. यहां से बेहतर स्थिति पड़ोसी देशों की है. डब्ल्यूएचओ की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक आत्महत्या की दर में श्रीलंका 29वें, भूटान 57वें, नेपाल 81वें, म्यांमार 94वें, चीन 69वें, बांग्लादेश 120वें और पाकिस्तान 169वें पायदान पर हैं. नेपाल और बांग्लादेश की स्थिति जस की तस है. भारत ने मामूली सुधार किया है. जबकि बाकी पड़ोसी देशों में हालात खराब हुए हैं. चीन इस मामले में बहुत खराब स्थिति में आया है, 103 से सीधे 69वें पायदान पर.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जताई गई है कि विश्व स्तर पर आत्महत्या और आत्महत्या के प्रयासों पर डेटा की उपलब्धता और गुणवत्ता खराब है. केवल 80 सदस्य देशों ने ही बेहतर डाटा दिया है जिससे आत्महत्या की दर का अनुमान लगाया जा सका है.
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डेटा मुहैया कराने में भारत भी गंभीर नहीं दिखता, जबकि आबादी के हिसाब से यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है. ताजा आंकड़े या फिर पुराने आंकड़ों को लेकर कोई हिसाब किताब साफ ही नहीं है. ऐसे में रोकथाम कैसे होगी, ये सवाल है.
जबकि डब्ल्यूएचओ का मानना है कि आत्महत्या की प्रभावी रोकथाम और रणनीति के लिए निगरानी की आवश्यकता है. आत्महत्या के पैटर्न में अंतरराष्ट्रीय अंतर, आत्महत्या की दरों, विशेषताओं और तरीकों में बदलाव, प्रत्येक देश को उनके आत्महत्या संबंधी डेटा से ही कोई ठोस लक्ष्य तय हो सकता है.
2014 में प्रकाशित पहली डब्ल्यूएचओ विश्व सुसाइड रिपोर्ट इसी मकसद से जारी की गई. मेंटल हेल्थ एक्शन प्लान 2013-20 में डब्ल्यूएचओ सदस्य देशों ने 2020 तक देशों में आत्महत्या दर को 10 प्रतिशत तक कम करने के वैश्विक लक्ष्य की दिशा में काम करने को प्रतिबद्ध किया है. हालांकि ऐसा होता नहीं दिखता.
ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी 1990-2016 में भारत के राज्यों के बीच आत्महत्या से हुई मौतों को लेकर बहुत अस्पष्टता है. 2016 में भारत में 230,314 आत्महत्या से मौतें हुईं. देखे गए रुझान जारी रहे तो वैश्विक लक्ष्य को हासिल करने में भारत की संभावना कम हो गई है.
उल्टी बात है, आत्महत्या से होने वाली मौतों में भारत का आनुपातिक योगदान बढ़ता जा रहा है. यहां का आंकड़ा महामारी की शक्ल अख्तियार किए हुए है. राष्ट्रीय स्तर पर हुए सैंपल सर्वे में ये बात सामने आई है, जिसको अंतिम रूप से 31 मार्च 2018 को तय की गई कमेटी में रखा गया. अनुमान लगाया गया कि आत्महत्या की दर में 95 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है.
इसी सर्वे के आधार पर सामने आया है कि सबसे ज्यादा विवाहित महिलाएं इस असामयिक मौत का शिकार हुई हैं. अध्ययन में ये तथ्य भी बताए गए हैं कि विवाह के बाद असुरक्षित होने का भाव, कम उम्र में विवाह, कम उम्र में मातृत्व, कमज़ोर सामाजिक पायदान पर होना, आर्थिक निर्भरता, घरेलू हिंसा इसके कारण बने हैं.
किशोरियों की आत्महत्या की दर चौंकानेवाली है, ये मातृ मृत्यु दर को भी पार कर चुकी है. इसके पीछे लैंगिक भेदभाव, यौन उत्पीड़न, यौन हिंसा के साथ सामाजिक जोखिम से पैदा अवसाद होना सामने आया है. उनकी आकांक्षा को नजरंदाज करना भी एक कारण है. गंभीर बात ये है कि बुजुर्गों में आत्महत्या के बारे में बहुत कुछ जाना ही नहीं जाता है, जबकि ये आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास उपलब्ध 2014 के डाटा के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा आत्महत्याओं का कारण पारिवारिक उलझनें, शादीशुदा जिंदगी की उठापटक या फिर उससे जुड़े विवाद हैं. 2014 में लगभग सात हजार से ज्यादा आत्महत्याएं हुईं. अन्य पारिवारिक समस्याओं के चलते 28 हज़ार से ज्यादा लोगों ने मौत को गले लगा लिया. कृषि संकट, बेरोजगारी, बीमारी या अन्य कारण भी बड़े कारण हैं, जो घटने की जगह बढ़ रहे हैं.
(लेखकस्वतंत्र पत्रकार हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)