पिछले कुछ दिनों में जो सैन्य कार्रवाइयां हुईं उनकी सबसे बड़ी सकारात्मक उपलब्धि यह रही कि भारत की नई कूटनीतिक शक्ति का सबूत मिल गया. उम्रदराज़ लोगों को याद होगा कि 1960 वाले दशक में युद्ध या तनाव के हालात में निर्गुट देश भारत के पक्ष में बोलने से किस कदर परहेज़ करते थे, हालांकि भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापकों में था और उसका सूत्रधार था. यहां तक कि 1971 में भी केवल सोवियत संघ ही भारत के साथ खड़ा हुआ था और उसने सुरक्षा परिषद में भारत के पक्ष में दो बार वीटो का प्रयोग किया था.
इसकी तुलना में आज भारत को न केवल पश्चिमी शक्तियों का, बल्कि ऑस्ट्रेलिया सरीखी मझौली शक्तियों का भी समर्थन हासिल है, रूस के साथ दोस्ताना है और मार्के की बात यह है कि अरब देश हमारे पक्ष में मददगार दखल दे रहे हैं. और तो और, किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) अपने सम्मेलन में भारतीय विदेश मंत्री को सम्मानित वक्ता के तौर पर आमंत्रित करेगा और पाकिस्तानी विदेश मंत्री इसका बायकाट करेंगे.
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कूटनीतिक समीकरण में बदलाव पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और 1999 में करगिल युद्ध के कारण शुरू हुआ. इसका श्रेय वर्तमान सरकार व प्रधानमंत्री समेत पिछली सरकारों व प्रधानमंत्रियों के सतत कूटनीतिक प्रयासों को जाता है; और बाज़ार के तौर पर भारत की बढ़ती अहमियत के साथ-साथ ‘एक अंतर्राष्ट्रीय सिरदर्द’ (अमेरिका के एक पूर्व विदेश मंत्री का जुमला) के रूप में पाकिस्तान के बारे में मजबूत होती धारणा को भी जाता है. अमेरिका में कभी पाकिस्तान के राजदूत रहे हुसैन हक्कानी को यह कड़वी हकीकत कबूलनी पड़ी कि भारत ने जब अपने मिराजों को पाकिस्तान में भेजा तो कोई भी देश इस्लामाबाद के पक्ष में बोलने के लिए सामने नहीं आया.
पिछले सप्ताह की सबसे नकारात्मक उपलब्धि थी टीआरपी के भूखे टीवी चैनलों का खबरों से खिलवाड़ करता राष्ट्रवाद, जिनमें बड़बोले एंकर अपने सुरक्षित स्टूडियो में बैठकर युद्ध की घोषणा कर रहे थे, जबकि शहीद सैनिकों की विधवाएं संवाद और शांति की अपील कर रही थीं, लेकिन उनकी पीड़ाओं का अपमान किया जा रहा था. एक पुरानी सीख है कि अपने ही प्रोपोगेंडा का शिकार होने से बचो.
उम्मीद की जाती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की कमान संभालने वाले लोग टीवी के टॉक शो में अपना पांडित्य बघारने वालों के मुक़ाबले ठंडे दिमाग से काम करेंगे. याद कीजिए कि इन खबरिया टीवी चैनलों ने वाजपेयी सरकार पर ऐसा दबाव बनाया था कि उसे कंधार हाइजैकरों के आगे हथियार डालना पड़ा था और जैश-ए-मोहम्मद के नेता समेत दूसरे आतंकवादियों को रिहा करना पड़ा था. देश आज उसका खामियाजा भुगत रहा है.
दो दिनों की सैन्य कार्रवाई का सच यह है कि इसमें भारत की स्पष्ट विजय नहीं हुई. मोदी सरकार ने सीमा पार से आतंकवाद के खिलाफ ज़्यादा आक्रामक जवाब देकर और पाकिस्तान में उनके ठिकानों पर हमला करके एक कदम तो उठाया, लेकिन देश को अपना एक लड़ाकू विमान गंवाना पड़ा. हालांकि प्रधानमंत्री ने ‘पायलट प्रोजेक्ट’ और ‘असली चीज़ अभी बाकी है’ सरीखे अनावश्यक बयान ज़रूर दिए मगर किसी पूर्ण युद्ध— भले ही इसमें उलझने की वजह मौजूद हो— की स्थिति में भारत स्पष्ट विजय को लेकर आश्वस्त नहीं हो सकता.
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दरअसल, मिग-21 के नुकसान से एक आवश्यक सवाल उभरता है कि भारतीय वायुसेना को आज भी पुराने विमान को उड़ाने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है, जबकि इससे विमान और पायलट दोनों को खतरा है. सेना को पर्याप्त संख्या में आधुनिक साजोसामान से लैस करने की, ताकि उससे दुश्मन भय खाए, विफलता इस कड़वे सच को उजागर करती है कि वर्षों से हमारे रक्षा बजट में कटौती जारी है. वित्त मंत्री ने सही सवाल उठाया है कि भारत वह क्यों नहीं कर सकता, जो अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन के मामले में किया. इसका एक ही जवाब है कि यह क्षमता में अंतर का मामला है. इस अंतर को पाटने की ज़रूरत है.
एक घरेलू मसला और है— क्या हमारी जम्मू-कश्मीर नीति कारगर है? आंकड़े बताते हैं कि हिंसा और मौतें बढ़ती जा रही हैं, और खबर है कि कश्मीर घाटी क्षेत्र में अलगाव की भावना भी बढ़ती जा रही है. बेमेल गठबंधन की सरकार चलाने का बेमानी प्रयोग ज़्यादा चल नहीं पाया और राज्य को राष्ट्रपति शासन के हवाले कर दिया गया. राज्य में आतंकवाद बिना स्थानीय समर्थन के चल नहीं सकता. इस तथ्य की अनदेखी से कुछ हासिल नहीं होने वाला. अगर कश्मीरी छात्रों और कामगारों को दूसरे राज्यों से खदेड़ा गया तो हालात और बुरे ही हो सकते हैं. कश्मीरियों का दिल जीते बिना कश्मीर मसला हल नहीं होने वाला.
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