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Friday, 19 April, 2024
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बिना सोचे-समझे भाजपा ने मोहम्मद अली जिन्ना के सुपुर्द किया भारत

हिंदुत्व आंदोलन 1947 में मुस्लिम साम्प्रदायिकता की हूबहू परछाई है. इसमें उस कट्टरता की गूंज है, जिसको भारत ने तभी नकार दिया था.

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भारतीय जनता पार्टी सरकार द्वारा हाल ही में पास किये गए नागरिकता संशोधन विधेयक ने विवादों का भंवर तैयार कर दिया है, सिर्फ असम में ही नहीं जहां असम गण परिषद सरकार के खिलाफ रोष जताते हुए राज्य सरकार से अलग हो गई और वहां सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं ने वृद्धि दर्ज की है. रोषकर्ताओं को जिस बात से सबसे ज्यादा नाराज़गी है वो है 1985 के असम समझौते के साथ हुआ धोखा, जो 1971 के बाद आए प्रवासियों को भारतीय नागरिकता प्राप्त करने की अनुमति मिलने की वजह से हुआ जो इस समझौते के नियमों का उल्लंघन था. लेकिन इस बिल के साथ जुड़ा और भी बड़ा मुद्दा जिसके ऊपर और भी ज़्यादा ध्यान जाना चाहिए- इस गहरे विश्वासघात से भी कई गुना ज़्यादा, वो है इस बिल के भारतीय राष्ट्रीयता का होने का आधार.

नागरिकता (संशोधन) बिल जो 1955 के एक एक्ट को संशोधित करता है, पड़ोसी देश- अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भाग रहे हिन्दुओं, सिखों, बुद्धिस्टों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने का हक़ देता है. ऐसा पहली बार हुआ है जब इस तरह के किसी कानून ने धर्मों के नाम उल्लिखित किये हैं और सबसे ज़्यादा अनोखी बात यह कि इसमें एक समुदाय का नाम शामिल नहीं है. यदि भारत ने पिछले 3,000 सालों से ज़ुल्म सहन कर रहे कई देशों के शरणार्थियों की पनाह दी है, इसने कभी किसी विशिष्ट धर्म के लोगों को मना नहीं किया. लेकिन मुसलमानों को जान बूझकर इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है.


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इस बिल का समर्थन करने वाले भाजपाई अपनी कट्टरता को लेकर लड़ाकू हैं. उनका तकिया कलाम है ‘यदि हिन्दुओं को भारत में घर नहीं मिलेगा तो कहां मिलेगा?’ अप्रत्यक्ष रूप से तर्क यह है कि भारत स्वाभिक रूप से हिन्दुओं का देश है. मुसलमानों के पास दूसरे देश हैं, जहां वे अपना हक़ जता सकते हैं.

इस तर्क की चौंका देने वाली बात यह है कि इस एक धर्मार्थ कानून से भारतीय राष्ट्रवाद के मौलिक आधार के चीथड़े ही उड़ जाते हैं. जब 1947 में देश विभाजित हुआ था और पाकिस्तान मुसलमानों की मातृभूमि बनाया गया, तब भारतीय राष्ट्रवादी- सबसे अहम महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू, लेकिन इसके साथ उनके कई सारे सहकर्मी – कभी विभाजन के इस कपटी तर्क के जाल में न फंसे जिसमें यह बहाल हो कि क्योंकि मुसलमानों के लिए एक राष्ट्र का निर्माण हो चुका था, तो बाक़ी का देश हिन्दुओं के हाथ रहेगा. भारत के विचार को स्वीकारने के लिए आपको उस विचार को अस्वीकारना होगा, जिससे देश का विभाजन हुआ था.

जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक इंडिया फ्रॉम मिडनाइट टू दि मिलेनियम (पेंगुइन) में तर्क दिया है, हमारे लिए यही सबसे ज़्यादा गालियों के शिकार हुए शब्द ‘सेकुलरिज्म (धर्मनिरपेक्षता) की परिभाषा है. पश्चिमी शब्दकोश धर्मनिरपेक्षता को धर्म की अनुपस्थिति कहें, लेकिन ऐसी धारणा भारत के लिए अजनबी है: भारतीयों की खुद की बूझ से बिलकुल ही गायब होने के विपरीत धर्म हमारे सभी समुदायों की जड़ों में कूट-कूट कर भरा है.

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अधार्मिकता हमारे देश में कभी प्रचलित हो ही नहीं सकती: यहां तक कि खुले तौर पर नास्तिक पार्टियां जैसे कम्युनिस्ट या दक्षिण भारत की द्रमुक पार्टियां भी समझौते कर चुकी हैं. (कोलकाता में दुर्गा पूजा के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के लोग शानदार पंडाल बनाने का कम्पटीशन करते हैं). मुझे याद है कोलकाता में बिताए गए वो हाई स्कूल के दिन जब कैसे अज़ान देने वालों की आवाज़ें जो इस्लाम की धार्मिक प्रार्थनाएं शिव मंदिर से आने वाले मंत्रों की ध्वनि से मिल जाती थीं और कैसे एक तीखे से लाउडस्पीकर से गुरुद्वारों में से गुरु ग्रन्थ साहिब के छंदों के पाठ की आवाज़ आती थी.

तो अधर्म  मुद्दा नहीं था; भारत में सभी धर्म पनपते हैं. लेकिन भारत की धर्मनिरपेक्षता का पश्चिमी विचारों वाले अध्यात्मिक से ज़्यादा लौकिक को फायदा पहुंचाने वाले विचारों से लेना-देना नहीं है. और तो और यह विचारधारा भी 1920 के दशक में सांप्रदायिकता के विकल्प के रूप में आई. धर्मनिरपेक्ष राजनीति ने राष्ट्रवादी आंदोलन के भीतर ही इस विचार को ख़ारिज कर दिया कि धर्म राजनीतिक पहचान बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व है. भारतीय धर्मनिरपेक्षता का मतलब भारत को सभी धर्मों का बाहुल्य दर्शाना था, जिसमें सरकार किसी भी धर्म को फायदा नहीं पहुंचाएगी

सारे ‘असली’ और ‘नकली’ धर्मनिरपेक्षता के पाखण्ड अंत में यहीं पक कर गल जाते हैं. प्रोफेसर और अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने बहुत तरीके से घोषित किया है कि राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता केवल ‘बुनियादी रूप से सभी धार्मिक समुदायों के बीच समरूपता बनाए रखती है’. इस तरह की धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी देशों की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के विपरीत है, क्योंकि किसी भी धर्म के खिलाफ भेदभाव चाहे अच्छा हो या बुरा न करके यह सभी धर्मों को ऊपर उठने में मदद करती है. इसका मतलब है सभी धर्मों को एक आंख से देखना, जो स्वामी विवेकानंद की उक्ति ‘एकम सत, विप्रा बहुदा वदन्ति’,(वो जिसका अस्तित्व है, एक है: ऐसा बहुत से विद्वान कहते हैं)  का अनुसरण करती है.

भारत जैसे देश में, हमारी धर्मनिरपेक्षता लोगों में मौजूद विविधता को अच्छे से जानती है और किसी भी धर्म को न फायदा, न नुकसान पहुंचा कर लोगों की देशभक्ति को कायम रखती है. किसी भी भारतीय को ऐसा महसूस करने की ज़रूरत नहीं कि उनका किसी विशेष परिवार में जन्म लेने से वे किसी व्यवसाय या कार्य करने से अपने आप ही वंचित हो जाएंगे.

ऐसे ही हमारे देश का राजनीतिक ढांचा धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं और रवैयों को दर्शाता है. हालांकि भारत में 80 प्रतिशत आबादी हिन्दुओं की है और वो भी तब जब मुसलमानों के लिए एक भिन्न देश बनाने के लिए देश का बंटवारा भी हुआ था, लेकिन इस सब के बावजूद, भारत के तीन राष्ट्रपति मुसलमान रहे हैं; और कई सारे राज्यपाल भी मुसलमान रहे हैं, कैबिनेट मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री, राजदूत, जनरल, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस और मुख्य न्यायाधीश भी रहे हैं.

1971 में पाकिस्तान के साथ हुए बांग्लादेश युद्ध में भारतीय वायु सेना के उत्तरी सेक्टर को एक मुस्लिम (एयर मार्शल लतीफ) ही कमांड कर रहे थे, आर्मी के कमांडर एक पारसी (जेन. मानेकशॉ) थे, बांग्लादेश की ओर मार्च करने वाली टुकड़ी को कमांड कर रहे जनरल ऑफिसर सिख (Lt Gen अरोरा) थे और पूर्वी बंगाल में पाकिस्तानी फ़ौज का आत्मसमर्पण करा कर मामले को निपटाने के लिए गए जनरल एक यहूदी (Maj Gen जैकब) थे.

जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक दि एलिफेंट, दि टाइगर, एंड दि सेल फ़ोन: रेफ्लेक्शंस ऑन इंडिया, दि इमर्जिंग 21st – सेंचुरी पावर (पेंगुइन) में लिखा है, सत्ता में मौजूद धर्मनिरपेक्षता के आलोचक उस भारत का अंत करना चाहते हैं जो इस तरीके की धर्मनिरपेक्षता का अनुसरण करता आया है. हिन्दू कौमपरस्ती में खुद को मुस्लिम सम्प्रदायवाद से भिन्न दर्शाने की प्रवृत्ति है. जहां तक 1958 की बात है, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दू साम्प्रदायिकता के खतरों के बारे में चेताया था, और इसके लिए उन्होंने यह तर्क दिया कि बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता इसलिए खतरनाक है क्योंकि यह खुद को राष्ट्रवादी दिखा सकती है: क्योंकि हममें से ज़्यादातर लोग हिन्दू हैं, हिन्दू राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के बीच की लकीरें बड़े ही आराम से धुंधला जाएंगी.

अवश्य ही, बहुसंख्यकों को कभी भी ‘अलगाववादी’ के तौर पर नहीं देखा जाता क्योंकि परिभाषा के अनुसार अलगाववाद का अनुसरण अल्पसंख्यकों द्वारा ही किया जाता है. लेकिन ज़्यादातर साम्प्रदायिकता, असल में, अलगाववाद का अतिवादी रूप ही है, क्योंकि यह बाकी भारतीयों, भारत के अभिन्न हिस्सों को देश से विभाजित करने का काम करती है. और यह हमें मुसलमान नाम वाली जगहों के नाम बदलीकरण के चल रहे घिनौने अभियान के रूप में देखने को मिलता है और इसलिए नेहरू ने कसम खाई थी, जिसको मैं भी थोड़ी सी कुख्याति के साथ दोहराता हूं, कि भारत को कभी भी हिन्दू पाकिस्तान नहीं बनना चाहिए.

नागरिकता बिल में हिंदुत्व के समर्थकों के तर्क, एक पाकिस्तान बनाने के तर्कों से बहुत मेल खाते हैं जिसका भारतीय राष्ट्रवाद ही मौजूदा बहिष्कार है. हिंदुत्व आंदोलन 1947 में हुए मुस्लिम साम्प्रदायिकता की हूबहू परछाई है. इसकी भाषा में उस कट्टरता की गूंज है जिसको भारत ने तभी नकार दिया था. इस विचारधारा की विजय भारतीय होने के विचार को समाप्त कर देगा.


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परिवर्तित होने से भरे उत्साह में, पूर्व कांग्रेसी जो अब भाजपा की पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्य रणनीतिकार हैं, हिमंता बिस्वा शर्मा ने यह घोषित कर दिया था कि यह बिल इसलिए ज़रूरी था ताकि यह क्षेत्र ‘जिन्ना के पास’ न पहुंच जाए. भारत को एक गैर-मुसलमान देश बनाना दरअसल पाकिस्तान बनाने की अवधारणा ही है, जिसमें धर्म को ही राष्ट्र बनाने का उचित निर्धारक माना गया.

अब जो हम 21वीं सदी में आए हैं, भिन्न-भिन्न गुटों की आशाओं को एक राष्ट्रीय धागे में पिरोना एक मुख्य चुनौती है. हिन्दू धर्म के आचार- समावेश, लचीलापन और संचय- ने राष्ट्र को इस चुनौती से लड़ने की शक्ति दी. इसी वजह से नागरिकता बिल इतना खतरनाक है. भारत का एकमात्र विचार है- एक देश, जो इसके हिस्सों के जुड़ने से भी बड़ा हो. जो भारत आज कुछ लोगों को खारिज करता है, हो सकता है हम सबसे भी कभी छीन लिया जाए.

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डॉ शशि थरूर तिरुवनंतपुरम से संसद सदस्य हैं और विदेश मामलों एवं मानव संसाधन मंत्रालय के लिए राज्यमंत्री की भूमिका निभा चुके हैं। उन्होंने तीन दशकों तक एक प्रशासक और एक शांतिदूत के रूप में संयुक्त राष्ट्र के लिए काम भी किया है । उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफन कॉलेज में इतिहास और टफट्स यूनिवर्सिटी में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन किया। थरूर ने फिक्शन एवं नॉन फिक्शन मिलाकर कुल सत्रह लिताबें लिखीं हैं और उनकी सबसे हालिया किताब ‘व्हाय आय एम अ हिन्दू’ है । आप उनके ट्विट्टर हैंडल, @ShashiTharoor पर उन्हें फॉलो भी कर सकते हैं।

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