भारत में रोज़गार की स्थिति युवा भारतीयों और उनके माता-पिता दोनों के लिए चिंता का विषय है, जो अपनी जीवन भर की कमाई बच्चों को पढ़ाने में लगा देते हैं. भारत नौकरियों की मांग को पूरा नहीं कर पा रहा है, क्योंकि अर्थव्यवस्था लंबे समय से मंदी की गिरफ्त में है. कोविड ने हालात को और बिगाड़ दिया है, ख़ासकर निजी क्षेत्र के लिए जिसमें पिछले दो वर्षों में भारी छटनी देखी गई है. स्वरोज़गार और उद्यमिता के लिए भी लोगों के पास खरीद फरोख्त की शक्ति होनी चाहिए और नौकरियां ख़त्म होने के कारण उसमें भी कमी आई है.
सरकारी क्षेत्र का आकर्षण
ऐसे समय में, सरकारी नौकरियां, चाहें वो शिक्षा, स्वास्थ्य, इंजीनियरिंग, सिविल सर्विसेज़ में हों या सशस्त्र बलों में, एक बार फिर सबसे लोकप्रिय विकल्प बन गई हैं. अपने स्वभाव से ही इन सेवाओं के लिए चयन बेहद प्रतिस्पर्धात्मक होता है, जिसमें बेहद सीमित पदों के लिए बेशुमार उम्मीदवार होते हैं. ये सवाल पूछा जाना लाज़िमी है कि बाक़ी बचे उम्मीदवारों का क्या होता है, ख़ासकर वो जो तमाम प्रयासों का फायदा उठाने के बाद भी नाकाम रहते हैं, या जो आयु सीमा को पार कर जाते हैं.
बहुत से उम्मीदवार जानना चाहेंगे, कि इन लोकप्रिय नौकरियों को पाने के लिए, वो अपनी सफलता की संभावनाओं को कैसे बेहतर कर सकते हैं. एक ज़ाहिर जवाब है कड़ी मेहनत और केंद्रित तैयारी. देश भर में कोचिंग सेंटर्स की बाढ़ सी आ गई है और बहुत से राज्य अब ऐसे उम्मीदवारों को वित्तीय सहायता देते हैं जो केंद्र तथा राज्य सरकारों दोनों में, सार्वजनिक क्षेत्र में वरिष्ठ-स्तर की नौकरियां पाने के लिए कंपटीशन में बैठते हैं. इन उपायों से उम्मीदवारों की कामयाबी की संभावनाएं बढ़ सकती हैं, लेकिन गारंटी कोई नहीं होती. इस उपाय से उन लाखों उम्मीदवारों की स्थिति में कोई सुधार नहीं होता, जो अपनी मेहनत और पैरेंट्स तथा राज्य के समर्थन के बाद भी सफल नहीं हो पाते.
क्या हमें अपने युवा लोगों को दी जा रही सलाह पर फिर से विचार करना चाहिए? मैं कहूंगा हां. ज़्यादातर उम्मीदवार अकसर कई साल लगा देते हैं और कई प्रयास करते हैं जिसके बाद उनका चयन होता है. अगर वो इसमें पास नहीं होते हैं तो उनके कई कीमती वर्ष बेकार चले जाते हैं. तो, हमें अपने पुरुषों और महिलाओं को क्या सलाह देनी चाहिए?
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सही सलाह
सामान्य सोच के विपरीत, उन्हें ये सलाह दी जानी चाहिए कि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी को, उन्हें अपनी रुचि और शौक़ के साथ जोड़ना चाहिए. इसलिए उम्मीदवारों को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए, ख़ासकर यूपीएससी सिविल सर्विसेज़ दाख़िला परीक्षा लिखने वालों को, वैकल्पिक विषयों का चुनाव अपने शिक्षकों, दोस्तों, पैरेंट्स या ट्यूटर्स की सलाह पर नहीं, बल्कि अपनी पसंद के हिसाब से करना चाहिए.
इसके पीछे आइडिया ये है कि छात्रों को अपनी रुचि के विषयों में अपनी निपुणता को बढ़ाते रहना चाहिए, जिससे कि अगर वो प्रतियोगी परीक्षा पास नहीं कर पाते, तो भी इस समय का इस्तेमाल करके वो कम से कम, अपनी पसंद के विषय पर महारत हासिल कर सकें. गहरे ज्ञान के साथ वो ख़ुद को ज़्यादा सशक्त महसूस करेंगे और उन्हें ये संतोष रहेगा कि उन्होंने अपना क़ीमती समय, उस चीज़ को सीखने में लगाया जिसे वो वास्तव में चाहते थे. ऐसी स्थिति में उनका समय ‘बेकार’ नहीं जाएगा. उनके ज्ञान का आधार बढ़ेगा और उनमें अपने साथियों की अपेक्षा ज़्यादा आत्म-विश्वास नज़र आएगा. एक ऐसा युवा पुरुष या महिला जिसके पास अधिक ज्ञान है, समाज या नौकरी के बाज़ार में अलग ही नज़र आएगा.
अकसर देखा गया है कि नौकरी खोजने वाले उम्मीदवार, जिनके पास पहले से कोई दूसरी नौकरी है, या वो जिन्होंने किन्हीं विषयों या पेशों में महारत हासिल की है, उन लोगों की अपेक्षा परीक्षाओं तथा इंटरव्यू का सामना कहीं ज़्यादा आत्म-विश्वास के साथ करते हैं, जो केवल प्रतियोगी परीक्षाएं पास करने के सहारे रहते हैं. इस दृष्टिकोण के चलते वो खेल, फाइन आर्ट्स और ऐसे विषयों को पढ़ सकते हैं, जिनका प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए गए विषयों से कोई संबंध नहीं होता.
इस तरह, ये एक ग़लत सलाह होती है कि छात्रों से कहा जाए, कि परीक्षाएं पास करने की ख़ातिर वो अपनी सह पाठ्यक्रम गतिविधियों को त्याग दें. युवाओं को सलाह दी जानी चाहिए, कि वो खेल खेलें, किताबें पढ़ें, थिएटर करें, लिखें, डांस करें, सामाजिक कार्य करें और परीक्षाओं की तैयारी करते हुए वो सब करें, जो वो करना चाहते हैं. उन्हें पर्यावरण, मानवाधिकार, सामाजिक तथा आर्थिक समानता, सार्वभौमिक शिक्षा या ऐसे किसी भी कार्य में समय लगाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जो उनके दिल के क़रीब हो.
युवा लोग, जिन्होंने अपने जुनून को पूरा किया है और उन विषयों में महारत हासिल की है जिनमें उन्हें मज़ा आता है, जीवन में कहीं ज़्यादा कामयाब होते हैं. अपेक्षाकृत उनके जो कई वर्षों तक हठीलेपन के साथ नौकरियों की परीक्षाएं देते रहते हैं और सफल नहीं हो पाते. वो समाज की संपत्ति होते हैं, क्योंकि उनका व्यक्तित्व पूरी तरह विकसित होता है.
अरविंद सक्सेना यूपीएससी के पूर्व अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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