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Saturday, 20 April, 2024
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क्या बहुजन समाज कभी शासक बन पायेगा ?

सदियों से शोषण करने वाला और शोषित समुदाय अब सब भूलकर एक साथ थे. मीडिया, समाचार पत्र और शैक्षिक प्लेटफार्माें पर प्रशंसा कम और आलोचना ज्यादा हुई.

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लखनऊ: 17वीं लोकसभा के लिए हुआ आम चुनाव संपन्न हो चुका है, यह चुनाव कुछ मामलों में ऐतिहासिक तो कुछ मामलों में अभूतपूर्व रहा. ऐतिहासिक इस मायने में कि भाजपा के प्रति ये दृष्टिकोण कि यह भावनात्मक मु़द्दे उठाकर हिन्दी भाषी राज्यों जो कि अधिक भावुक होते हैं उनका मत लेने में कामयाब हो जाती है, यह मिथक अब टूट रहा है, और भाजपा ने न सिर्फ हिन्दी भाषी राज्यों में बल्कि उत्तर भारत, पूर्वोत्तर भारत के साथ-साथ बंगाल, कर्नाटक और उड़ीसा में भी उम्मीद से अधिक सफलता प्राप्त किया और अपने पिछले पुराने रिकार्ड को तोड़ते हुए एक बार फिर अकेले दम पर सरकार बनाने की स्थिति प्राप्त कर ली.

इसके लिए इस पर यह आरोप भी लगाये गये कि भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए परम्परागत रूप से स्थापित लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का अत्यधिक उल्लंघन किया और अपने चुनावी लाभ के लिए इसका दुरुपयोग किया, फिर वो चाहे चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन हो या निर्वाचन आयोग को प्रभावित कर अपने पक्ष में फैसला लेना हो. इसके साथ ही साथ सीबीआई, ईडी और ईवीएम मशीन के दुरुपयोग का भी आक्षेप लगता आया है. दूसरी तरफ सैनिक कार्यवाही का मत प्राप्त करने के लिए मतदाताओं से सीधा अपील पर भी, भाजपा की लगभग सारे विपक्षी दलों द्वारा आलोचना की गयी.

अभूतपूर्व होने के भी कई कारण हैं, इस आम चुनाव में असंसदीय भाषा का निर्वाचन के दौरान जितना इस्तेमाल किया गया उतना कभी भी नहीं देखा गया था, व्यक्तिगत आक्षेपों का तो ऐसा दौर गुजरा कि जैसे लगने लगा कि यही चुनाव का मुख्य मुद्दा हो, साथ ही साथ इस चुनावी राजनीति में जाति का भरपूर दोहन किया गया. दूसरी तरफ चुनाव में दलों के द्वारा किये गये गठबन्धन भी अभूतपूर्व ही रहे, इतने गठबन्धन आधारित चुनाव कभी नहीं हुए.

चुनाव में गठबन्धन छोटी-छोटी पार्टियां करती रहती हैं क्योंकि उनका मुकाबला एक अपेक्षाकृत बड़ी, सशक्त, संगठित एवं सत्ताधारी राजनीतिक दल से होता है लेकिन 17वीं लोकसभा चुनाव तो गठबन्धनों का ही चुनाव था. सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी भाजपा, जिसको हराने के लिए विविध और विभिन्न प्रकार के गठबन्धनों की शुरुआत हुई वह स्वयं सर्वाधिक, लगभग 45 दलों के गठबन्धन के साथ चुनावी नईया पार करने के जुगत में लगी हुई थी.

उत्तर प्रदेश में गठबन्धन, बिहार में महागठबन्धन जैसे शब्दावली चुनाव के दौरान प्रचलन में आ गये थे. खैर भाजपा ने तो अपना चुनावी सफर सशक्त ढंग से पूरा किया लेकिन चुनाव के बाद विपक्ष की नाव न सिर्फ बीच में ही फंस गई बल्कि चुनाव परिणाम के बाद ऐसा आभास भी होने लगा कि बहुतों की नाव टूट गयी है.

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चुनाव के पहले उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबन्धन के आकार लेने के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा को बड़े नुकसान की बातें शुरू हो गयी थी, ये बात दबी जुबान से लगभग सभी, चाहे वो भाजपा के ही लोग क्यों न हों स्वीकार करने लगे थे. इसके पीछे कारण भी ठोस था, आम चुनाव से दो साल पहले जिस तरह से गोरखपुर, फूलपुर, और कैराना की सीट को सपा ने बसपा के अघोषित समर्थन से भाजपा को हराया था वो मिशाल के तौर पर देखा जा रहा था. दूसरा 2014 के आम चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा को मिले अलग-अलग मतों को संयुक्त करने पर जो प्रतिबिम्ब उभर कर बाहर आ रहा था वो भाजपा के पक्ष में बिल्कुल नहीं था. लेकिन चुनाव परिणाम बिल्कुल विपरीत रहा और उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबन्धन की दुर्दशा हो गयी.

ऐसा क्या हुआ कि-गठबन्धन को अपेक्षित सफलता नहीं मिली? सपा-बसपा गठबन्धन की शुरुआत 1993 में हुई थी, लेकिन उस समय तक राजनीतिक परिदृश्य इतने बड़े बदलाव से नहीं गुजर रहा था. अब 26 साल बाद हुए गठबन्धन का प्रभाव अलग ही दिख रहा था. दोनों दलों के परम्परागत मतदाता के बारे में यह आकलन लगाया गया कि राजनीतिक जागरूकता गठबन्धन को पार लगा देगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं जिसके मेरे समझ से निम्नलिखित कई कारण हैं-

● 1995 और 2007 के बीच मायावती की छवि एक क्रान्तिकारी और सशक्त नेता की थी जो समाज में सभी के लिए प्रभावी थी. मायावती के छोटे-छोटे कार्यकाल ने उन्हें ‘आयरन लेडी’ की उपमा दिलवायी लेकिन 2007 में गठित बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार ने रोजगार और स्थायी रूप से जनहित के कार्याें को करने में उदासीनता का परिचय दिया. इससे लोगों में बसपा के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहा बल्कि थोड़ा बहुत जो काम हुए भी वो सिर्फ एक जाति विशेष के ही हित में होने की चर्चा थी.

● इसी प्रकार 2012 में पूर्ण बहुमत से बनने वाली समाजवादी पार्टी की भी सरकार के ऊपर माई,मुस्लिम,यादव के ही पक्ष में कार्य करने का आरोप लगता रहा. साथ में यह भी अवधारणा व्याप्त हो गयी कि अन्य पिछड़ा वर्ग का मतलब यादव. लोकसेवा आयोग पर ‘यादव लोकसेवा आयोग’ उन आन्दोलनकारियों द्वारा लिख दिया गया जिसमें गैर यादव सारे वर्ग और वर्ण के लोग थे. वास्तव में ऐसा था कि नहीं इसमें इंक्वायरी चल रही है लेकिन इन दोनों पार्टियों से गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव चमार दलित छिटकने लगे.

● गठबन्धन के ऊपर जातीय राजनीति करने के आरोप लगे. इसे बैकवर्ड, दलित एवं मुस्लिमों का गठबन्धन कहा गया. हालांकि सपा-बसपा दोनो ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण के असंवैधानिक होने के बावजूद समर्थन किया और न सिर्फ समर्थन किया बल्कि उत्तर प्रदेश की 78 लोकसभा सीट में से 20 टिकट सवर्णों को दे दिया बावजूद इसके कि लगभग 80 प्रतिशत सवर्ण इन दोनो पार्टियों को वोट नहीं देते, इसके प्रतिक्रिया में भी इनका परम्परागत वोट बैंक इनको मत नहीं दिया.

● राजनीतिक परसेप्शन की बहुत भूमिका होती है. दलित और ओबीसी मतदाताओं में सपा और बसपा के शासन काल में लिए जाने वाले निर्णय के बारे में यही धारणा घर कर गयी कि ये सरकार तो पिछड़े और दलितों की हैं. लेकिन सत्ता की मलाई सवर्ण ही खा रहें हैं. चाहे वो मलाईदार पोस्टिंग हो या सत्ता सम्बन्धी निर्णय, इसकी भी प्रतिक्रिया में मतदान हुआ.

● गठबन्धन ने 2017 के विधानसभा और 2014 के लोक सभा निर्वाचन में मिले मत प्रतिशत से आश्वस्त हो गया कि उसको भारी सफलता मिलेगी और सुनिश्चित विजय देखकर प्रत्याशियों को गंभीरता से नहीं चुना. गठबन्धन के नेताओं ने इसी भ्रम में कि गठबन्धन मजबूत है, इसलिए चुनाव प्रचार करने में भी इतनी शीघ्रता और गंभीरता नहीं दिखायी जितनी दिखनी चाहिए. जब गठबन्धन अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत भी नहीं किया था, तब तक भाजपा लगभग 20 बड़ी जनसभाएं कर चुकी थी और बसपा नेत्री सुश्री मायावती ने तो पहली जनसभा की शुरुआत ही उड़ीसा से किया ये मालूम होते हुए भी कि गठबन्धन के लिए उत्तर प्रदेश कितना महत्वपूर्ण है.

● उत्तर प्रदेश में भाजपा का मुख्य प्रतिद्वंदी गठबन्धन ही था, लेकिन भाजपा के विरुद्ध जिस तेजी और तथ्यों के साथ गठबन्धन को प्रचार-प्रसार जनसभा और भाषण करना चाहिए था वैसा हुआ नहीं. भाजपा की अराजकता, किसानों, गरीबों, भ्रष्टाचार, जातिवाद सवर्णवाद इत्यादि मुद्दों पर ये जनता के सामने अपनी बात सफाई से नहीं रख पाये. जिससे जनता भाजपा की कमियों और खामियों को समझ नहीं पायी.

● गठबन्धन को प्रिण्ट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया और भाजपा के नेताओं ने इस प्रकार फैलाया कि यह गठबन्धन पिछड़ों और दलितों का नहीं है बल्कि यादव, जाटव और मुस्लिमों का है. गोरखपुर में तों बकायदा यह नारा दिया गया ‘लाठी, हाथी, सात सौ छियासी’ इसकी प्रतिक्रिया में गैर यादव, पिछड़ा और गैर जाटवों के रुझान को भाजपा ने सफलतापूर्वक अपनी ओर आकर्षित करनें में सफल रही.

● सपा और बसपा के शासन काल की कुछ विसंगतियां थीं जैसे कि सपा ने यादवों अैर मुसलमानों को तथा बसपा ने जाटवों और ब्राम्हणों को अपने शासन काल में लाभ पहुंचाया. जिसके कारण जो पिछड़ें और दलित थे बड़ी तेजी से इनसे दूर जा रहे थे और 2014 के आम चुनाव, 2017 के विधानसभा चुनाव तथा 2019 के आम चुनाव में इन दोनों पार्टियों को भारी नुकसान हुआ, और इसका पुरा लाभ भाजपा को मिला.

● गठबन्धन के अन्तर्गत लगभग 40 सीटों पर सपा और 40 पर बसपा अपना उम्मीदवार नहीं उतार सकती थी. इसका परिणाम ये हुआ कि बसपा के हिस्से में आयी सीट पर सपा के नेता और सपा को मिली सीट पर बसपा के नेता बागी हो गये जिससे न सिर्फ गठबन्धन के मत प्रतिशत में कमी आयी बल्कि जनता के बीच गलत अवधारणा भी व्याप्त हुई जिससे भाजपा को लाभ मिला.

● उपरोक्त कारणों के अलावा भाजपा को सत्ताजनित सुविधाओं और अनेक प्रकार की संचालित योजनाओं का भी लाभ मिला. भाजपा के राष्ट्रवाद जैसी अमूर्त अवधारणा, साम्प्रदायवाद और बालाकोट, पुलवामा जैसे गैर राजनीतिक मुद्दों को भी चुनावी मुद्दा बनाने से भी गठबन्धन रोक नहीं पाया.

सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात ये कि अल्पसंख्यक होते हुए भी सवर्णों की समर्थक भाजपा के अन्दर परम्परागत रूप से शासन सत्ता चलाने की जो भूख और लालसा दिखी उसके मुकाबले बहुजनों की बहुमत वाली सदैव से शासित मानसिकता वाले पिछड़े और दलितों की आबादी में लोकतांत्रिक अधिकारों के बावजूद शासक बनने की वो भूख और लालसा नहीं दिखी.

चुनावी राजनीति में ऐसे कई महत्वपूर्ण मामले होते हैं जिसे प्रत्यक्ष रूप से न तो देखा जा सकता है और जिसका न ही कोई आधार होता है लेकिन छोटे-छोटे समूह में ये चुनाव को बखूबी प्रभावित करते हैं. तो क्या ऐसा मान लिया जाये कि बहुजन समाज जो पिछड़े दलितों और अल्पसंख्यकों का अम्ब्रेला नामकरण है, की राजनीति अब डगमगाने लगी है ? क्या अलग-अलग जातियों के संगठन और नेताओं से गठबन्धन तैयार कर चुनाव नहीं जीता जा सकता है ? क्या जातिय दौर की राजनीति खत्म हो चुकी है ? कम से कम हमें तों ऐसा नहीं लगता. तो क्या बहुजनों को सत्ता पाने के लिए एक नए शुरुआत की जरूरत है ?

हां बिल्कुल, दरअसल बहुजन की अवधारणा सबसे पहले ज्योतिबा फूले ने दी थी जिन्होने पिछड़े वर्ग, दलित वर्ग, अन्त्यज वर्ग, गरीब, मजदूर, किसान, वंचित, शोषित इत्यादि ऐसे ही परम्परागत और सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े और वंचित लोगों के समुदाय को बहुजन कहा था. बहुजन का हित मतलब इस सबका हित है 1970 के दशक में इस अवधारणा को बीएएमसीईएफ अधिक स्पष्टता के साथ डीएस-4 ने स्पष्ट किया जिसमे ब्राम्हण, बनिया, ठाकुर छोड़ बाकी सब हैं. डीएस-4 ने बहुजन की अवधारणा को राजनीतिक स्वरूप देते हुए आन्दोलन को आधार प्रदान किया.

बहुजन समाज पार्टी ने इन्ही तमाम विचारों को चुनावी स्वरूप में गढ़ा. बहुजन समाज या ये कहिए कि बहुजन समाज पार्टी की चुनावी यात्रा भी कम दिलचस्प नहीं है. कई बार असफल होने के बाद उत्तर प्रदेश में 1993 और 1995 में बहुजनों की सरकार बनी हालांकि दलितों की संख्या पंजाब, हिमाचल प्रदेश व बंगाल में उत्तर प्रदेश की तुलना में प्रतिशत रूप में ज्यादा है और महाराष्ट्र में बहुजन आन्दोलन बहुत पहले ही शुरू हो गया था फिर भी सरकार उत्तर प्रदेश में बनी शायद यह बीएएमसीईएफ (बैकवार्ड एण्ड मायनारिटी कम्यूनीटीज इम्पालायी फेडरेशन) और डीएस 4 -दलित, शोषित समाज संघर्ष समितिद्ध का मिला जुला प्रभाव था.

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज की चार बार सरकार बनी और इसी बीच बहुजन समाज का आधार कमजोर होने लगा या किया जाने लगा तो बहुजन समाज पार्टी के नेता ने एक अन्य फार्मूला अपनाया जिसे ‘सोशल इंजीनियरिंग’ कहा गया इस कदम से बसपा को सत्ता भले ही मिल गयी लेकिन बहुजन समाज के आन्दोलन के जड़ में दीमक लग गया, परिणामस्वरूप 2012, 2017 विधानसभा और 2014 आम चुनाव में बसपा को भारी शिकस्त झेलनी पड़ी.

‘सामाजिक अभियांत्रिकी’ एक ऐसी असमान्य, अस्वाभाविक एवं एक दूसरे के विपरीत विचारधारा की अवधारणा रही है. जिसमें शिकार व शिकारी को सहअस्तित्व के लिए बाध्य करती हुई प्रतीत होती है.


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सदियों से शोषण करने वाला और शोषित समुदाय अब सब भूलकर एक साथ थे. मीडिया, समाचार पत्र और शैक्षिक प्लेटफार्माें पर प्रशंसा कम और आलोचना ज्यादा हुई. सामाजिक अभियांत्रिकी बहुजन समाज पार्टी को आज भी भ्रमित किये हुए है और बहुजन समाज पार्टी जो बहुजनों की पार्टी का दावा करती है कि सामाजिक अभियांत्रिकी ने बहुजन समाज के आंदोलन को बहुत पीछे कर दिया ऐसा बहुजन चिन्तकों को तो लगता ही है. उन्हे ऐसा लगता है कि सवर्ण मतदाता लगभग 80 से 85 प्रतिशत भाजपा को मतदान करता है इसका प्रमाण 2019 के लोकसभा चुनाव का सर्वे भी हैं बावजूद इसके कि बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग करके बहुजन हित का नुकसान कर चुकी है. इसके पास आगे बढ़ने की अकुत और अखिल भारतीय सम्भावना विद्यमान है इससे पहले बहुजन समाज को अपने जातिय ठप्पे से हटकर वर्गीय अवधारणा अपनाना पड़ेगा और फिर जाटव (चमार) ही दलित हैं इस अहं और भ्रम से दूर होना पड़ेगा.

पिछड़ी जातियों का बहुत बड़ा समूह राजनीतिक रूप से अभी भी बिखरा हुआ है जिसको सहेज कर संगठित करना पडे़गा. बसपा, सपा के साथ रहे ना रहे उसे अन्य पिछड़ा वर्ग को विश्वास में लेना ही पड़ेगा, यह वर्ग बहुत बड़ा है परन्तु सामाजिक और राजनीतिक रूप से बटा है. जातियों में विभक्त यह असंगठित समुदाय राजनीतिक नजरिये से बहुजन समाज का ही भाग है और ये बात इसे यकीनन बताना होगा.

बहुजन समुदाय की अगुवाई करने वाले प्रतिनिधियों या राजनेताओं में विचारधारा के बजाय सत्तात्मक सुख की प्रवृत्ति ज्यादातर देखी गयी है.वो व्यक्तिगत हित को समुदाय के हित के ऊपर मानते हैं. ये यह भूल जाते हैं कि भाजपा जैसे सामन्तवाद, सवर्णवाद के वर्चस्व को स्थापित करने वाली पार्टी में पिछड़ा, दलित, और अल्पसंख्यक उस घर बनाने वाले दिहाड़ी की मजदूर की तरह हैं जिनके संख्या बल और श्रम के कारण एक विशालकाय घर बनता है और तैयार होने पर उस मकान का मालिक सामान्यतः सवर्ण समुदाय से होता है और श्रमजीवी या तो वहीं दासता करता है या फिर कहीं दूसरे ठोर की तलाश में यायावर की तरह घुमता रहता है लेकिन बार-बार वह भाजपा रूपी मकान में श्रमदान करता रहता है.

ऐसा 2019 के आम चुनाव में देखा गया हैं. इनके ऊपर राजनैतिक भ्रम इतना हावी होता है कि ये उस दल को समर्थन और मत दे देते हैं जिनके वजह से इनकी ये दुर्दशा हुई है. बहुजन समाज को अगर अपने परम्परागत अभिशप्त सामाजिक परम्पराओं के मकड़जाल से अपने आने वाली संततियों और पीढ़ियों को बचाना है और उनमें स्वाभिमान और गरिमा को आधार बनाकर जीवन जीना है तो व्यक्तिगत हित और जातीय हित से ऊपर उठकर समुदाय और वर्ग के हित को देखना ही पड़ेगा.

बसपा को एक मजबुत संगठनात्मक ढ़ाचे की जरूरत है क्योंकि उसका सामना कई तरफा है. बसपा की नीतियों या किसी अन्य वजह से बसपा से अलग बहुजन समाज के उन पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं को अब यह बताने का समय आ गया है कि उनका स्वाभाविक घर तो बसपा ही है, बाकि तो किराये के घर हैं और अन्य दलों में बहुजन तो केवल प्रतीकात्मक है वो अपने समुदाय का हित नहीं कर सकते, मात्र दिखावा है, शोरूम की तरह. समुदाय के रूप में बहुजन समाज भारत का सबसे बड़ा वर्ग है. बहुजन समुदाय का बड़ा हिस्सा दलित समुदाय की जनसंख्या अखिल भारतीय स्तर पर लगभग 21 प्रतिशत से अधिक है.

पिछड़े वर्ग को मिलाकर ये संख्या लगभग 80 प्रतिशत तक हो जाती है. जिस समाज का दायरा इतना विस्तृत और व्याप्त हो वह समाज आज भी शासित है. इस अधिकार के बावजूद कि यहां सबके मत का मूल्य बराबर है. बाबा साहेब अम्बेडकर का यह हर बहुजन समाज को दिया गया ब्रहमास्त्र है जिसके माध्यम से बिना खुन खराबे के बहुजनों के हित में क्रान्तिकारी सत्तात्मक परिवर्तन हो सकता है लेकिन इस परिवर्तन को उर्वरकता तभी मिलेगी जब यह सदियों से सवर्णों की सेवा करने वाला समुदाय वैचारिक दासता से मुक्त होगा और अपनी ताकत तथा संख्या बल का उपयोग सदियों से दबे कुचले और पिछड़े लोगों के हित में लगाने के लिए कृत संकल्पित होकर उठ खड़ा होगा.

(लेखक लखनऊ यूनिवर्सिटी के राजनीतिक शास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

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