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Thursday, 25 April, 2024
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तेल को लेकर सऊदी अरब के साथ क्या कोई नया करार करेगा अमेरिका, भारत भी बनाए हुए है करीबी नज़र

जेद्दा में हो रहे अमेरिका-सऊदी अरब शिखर वार्ता पर तमाम देशों की तरह भारत की भी नज़रें लगी हुई हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनकी किस्मत किंग सलमान और जो बाइडन के फैसलों से जुड़ी है.

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गुप्त कूटनीतिक उथल-पुथल के लिए वैसे कौशल की जरूरत पड़ती है, जो दुनिया के सबसे आला होटलों को भी हिला दे— समुद्र के बीच टिके शाही मेहमानों के लिए ताजा काटी गईं भेड़ें उपलब्ध करानी पड़ी, शाही हरम को भी वहां लाने की कोशिशों को नफासत से नाकाम करना पड़ा, कॉफी पेश करने वालों की फौज से लेकर रसोइयों, गुलामों और दरबारी ज्योतिष तक के लिए जगह बनानी पड़ी, युवा राजकुमारों के लिए ऐसी व्यवस्था करनी पड़ी कि सिनेमा देखते हुए वे पर्दे पर लगभग निर्वस्त्र अभिनेत्री ल्यूसीली बाल्ल को देखकर सीटी बजाने लगें तो उनके वालिद उन्हें देख-सुन न पाएं.

फरवरी 1945 में जब पूरी दुनिया युद्ध की आग में झुलस रही थी तब सऊदी बादशाह अब्द-अल-अज़ीज़ और अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट स्वेज़ नहर में खड़े अमेरिकी पोत ‘यूएसएस क्विन्सी’ के डेक पर पधारे थे और तब जो शिखर वार्ता हुई थी उसका यही नतीजा निकला था कि फारस की खाड़ी में तेल और गैस के विशाल भंडार की रक्षा और उसका नियंत्रण पीढ़ी-दर-पीढ़ी अमेरिका ही करता रहेगा.

आज जब राष्ट्रपति जो बाइडन सऊदी अरब की अपनी पहली राजकीय यात्रा और सऊदी बादशाह सलमान बिन अब्द’ अल-अज़ीज़ और उनके वारिस प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान से संभावित मुलाकात की तैयारी कर रहे हैं, तब भारत पूरे घटनाक्रम पर गहरी नज़र रखेगा कि दोनों देशों के बीच कोई नया करार तो नहीं होता. यूक्रेन युद्ध के बाद एनर्जी की कीमतें बढ़ गई हैं और इससे दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं को संकट का सामना करना पड़ रहा है.

सऊदी अरब अगर उत्पादन बढ़ाता है तो कीमतें गिर सकती हैं. लेकिन बाइडन को सौदा करने के लिए जेद्दा में कुछ कड़वे घूंट पीने के लिए तैयार रहना होगा. तीन साल पहले जब पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या कर दी गई थी तब बाइडन राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार थे और उन्होंने सऊदी अरब को हथियारों की बिक्री बंद करने की, ‘उसे अछूत बना देने की, जो कि वह है भी’ कसम खाई थी.

लेकिन समस्या आहत भावनाओं से कहीं गंभीर है, यह विश्व महाशक्ति और तेल साम्राज्य के बादशाह के रूप में अमेरिका की भूमिका के केंद्र को छूती है.

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बेहद खास रिश्ता

1945 के शिखर सम्मेलन की तैयारी के दौरान करिश्माई सीआईए एजेंट विलियम एड्डी ने किंग अब्द अल-अज़ीज़ का रुख अनुकूल करने के लिए काफी मेहनत की थी. विवादास्पद इजरायल मसले पर कोई समझौता तो नहीं हो पाया था मगर एड्डी की कोशिशों से दोनों नेताओं के बीच अच्छा रिश्ता बन गया था. अब्द अल-अज़ीज़ को डीसी-3 परिवहन विमान भेंट में दिया गया और बदले में उन्होंने हीरों से जड़ा एक छुरा, सोने के तारों से बुने हुए बेल्ट और कसीदाकारी वाले स्त्री परिधानों का उपहार दिया, जिसे वैवाहिक वफादारी के मामले में रूज़वेल्ट की असावधानियों की ओर संकेत करने की कोशिश माना गया. आभार प्रकट करने के लिए किंग ने अपने एक बेटे की शादी एड्डी की 11 साल की बेटी से करने की भी पेशकश की थी.

इस गर्मजोशी में तेल की चिकनाहट शामिल थी. इतिहासकर टाइलर प्रीस्ट ने लिखा है कि 1938 में सऊदी अरब में तेल का बड़ा भंडार पाए जाने के बाद से ही दुनिया का हाइड्रोकार्बन उद्योग पश्चिम एशिया में स्थानांतरित हो गया. अमेरिका से भारी निवेश आया. दूसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका ने यूरोप के अपने मित्र देशों की पेट्रोल की 80 प्रतिशत जरूरतें पूरी की थी. कीमतों पर नियंत्रण हटा देने से इन देशों को संकट महसूस होने लगा और सऊदी अरब में उत्पादन बढ़ने से कीमतों को नीचे लाने में मदद मिली.

1934 में रूज़वेल्ट ने एक ब्रिटिश राजनयिक से कहा, ‘फारस का तेल आपका है. हम इराक और कुवैत के तेल में हिस्सेदारी करें. जहां तक सऊदी के तेल की बात है, वह हमारा है.’

तेल का साम्राज्य सस्ते में नहीं हासिल हुआ. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ही अमेरिका ने ईरान, ओमान और सऊदी अरब में अपने अड्डे बना लिये थे. जब शीतयुद्ध शुरू हुआ तो उसने बहरीन, पाकिस्तान, इराक और उत्तरी अफ्रीका में भी अपने केंद्र बनाए. विद्वान जॉन गद्दीस का कहना है कि अमेरिकी साम्राज्य नहीं चाहता था लेकिन उसे हासिल हो गया. जाहिर है, साम्राज्य की अपनी कीमत होती है.

2014 में आर्थर हर्मन ने अपने विश्लेषण में अनुमान लगाया था कि ‘उस क्षेत्र के जलपोत मार्गों के साथ-साथ होर्मुज़ खाड़ी को टैंकरों की आवाजाही के लिए खुला रखने पर पेंटागन को सालाना औसतन 50 अरब डॉलर की कीमत अदा करनी पड़ती थी, इसके साथ उस क्षेत्र की आबादी की कभी खत्म न होने वाली दुश्मनी मोल लेनी पड़ी.’ कहा गया कि अमेरिकी सेना चीन जैसे बड़े एशियाई तेल आयातकों को सुरक्षा प्रदान करती रही.

कुछ विशेषज्ञों का कहना था कि कुछ कम उग्र तत्व भी थे. हर्मन का कहना है, ‘ईरान ने पाया कि अमेरिका की ओर से आयातित तेल की घटती मांग के कारण यूरोप को दूसरे स्रोतों से कम कीमत पर अपनी जरूरत पूरी होने लगी तो यूरोप को की जाने वाली तेल सप्लाई पर उसकी पकड़ खत्म हो गई.’

पिछले दशक के मध्य से, जब तेल के लिए खुदाई की तकनीक ने अमेरिका को दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक बना दिया तब यह खर्च अनावश्यक लगने लगा.


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यूक्रेन संकट

यूक्रेन युद्ध ने सब कुछ बदल दिया. अमेरिका ने रूसी तेल पर प्रतिबंध लगा दिया, जिससे तेल की कीमत आसमान छूने लगी. भारत और चीन ने देखा कि यूरोप तो रूस से प्राकृतिक गैस खरीदना जारी रखे हुए है तो उन्होंने अपनी कमजोर आबादी के हित में रियायती कीमत पर तेल खरीद में बढ़ोत्तरी कर दी. यूरोप ने घोषणा की कि वह प्रतिबंध लगाएगा, मगर इस बीच उसने तेल का भंडार जमा कर लिया. प्रतिबंधों का कुल नतीजा यही निकला कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की लॉटरी निकल गई.

अमेरिका से कच्चे तेल का निर्यात रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया लेकिन इतनी तेजी से नहीं कि कीमतों पर असर डाल सके. बाइडन की अपीलों के बावजूद उत्पादन 2020 के स्तर से काफी नीचे है. कोविड महामारी के बाद कीमतों में आई भारी गिरावट से हुए घाटे की भरपाई के लिए अमेरिकी उत्पादकों को ऊंची कीमत मुफीद लगती है इसलिए उन्हें उत्पादन बढ़ाने की कोई वजह नहीं दिखती.

औद्योगिक देशों के जी-7 ग्रुप ने पिछले सप्ताह दो विकल्पों पर विचार किया. इटली के प्रधानमंत्री मारियो द्रघी के नेतृत्व में एक प्रस्ताव यह दिया गया कि बड़े खरीदारों का एक गुट बनाकर या रूस से अभी भी तेल खरीद रहे देशों पर प्रतिबंध लगाकर वैश्विक कीमतों की सीमाबंदी की जाए.

इस बीच, फ्रांस ज़ोर दे रहा है कि अमेरिकी प्रतिबंधों से प्रभावित ईरान और वेनेजुएला को तेल बाजार में वापस लाया जाए. ईरान के परमाणु कार्यक्रमों पर अटकी तेहरान-वाशिंगटन वार्ता इस सप्ताह शुरू हो गई लेकिन प्रतिबंधों को हटाने में महीनों या सालों लग सकते हैं.

सबसे आसानी से हासिल किया जाने वाला समाधान यह है कि सऊदी अरब तेल के अपने पाइपों को खोल दे. यह विशाल परियोजनाओं को फंड उपलब्ध कराने की उसकी क्षमता को कमजोर कर सकता है. इन परियोजनाओं में शायद स्काई-रेंज के साथ ‘डेज़र्ट सिटी’ बनाना भी शामिल है, जिसके बारे में इस साम्राज्य का कहना है कि यह तेल-मुक्त भविष्य की कुंजी है. साम्राज्य कीमत मांगते हैं, जिसके बारे में अमेरिका को फैसला करना है कि वह कीमत देने को तैयार है या नहीं.


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रेत पर खिंची लकीर

पिछली बार जब ईरानी क्रांति या अफगानिस्तान पर सोवियत हमले के रूप में उभरे संकट ने सऊदी अरब को खतरे में डाल दिया था तब अमेरिका ने रेगिस्तान में एक लाल लकीर खींच दी थी. राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने घोषणा की थी कि ‘हम क्या चाहते हैं यह साफ है. फारस के खाड़ी क्षेत्र पर कब्जा करने की बाहरी किसी ताकत की कोशिश को अमेरिका के अहम हितों पर हमला माना जाएगा और उसका सैन्य ताकत के प्रयोग समेत हर जरूरी तरीके से जवाब दिया जाएगा.’

ये कोरे शब्द नहीं थे. 1980 के बाद अमेरिका पश्चिम एशियाई स्रोतों और जलपोत मार्गों को अपने लिए सुरक्षित रखने के लिए 18 लड़ाइयां लड़ चुका है. 2010 के एक दस्तावेज़ में अर्थशास्त्री रोजर स्टर्न ने अनुमान प्रस्तुत किया है कि तेल साम्राज्य को संभालने पर अमेरिका 1976 से 2007 के बीच सैन्य लागत के मद में 6.8 ट्रिलियन डॉलर खर्च कर चुका है. स्टर्न ने लिखा है, ‘सालाना खर्च के हिसाब से, खाड़ी मिशन उतना ही खर्चीला रहा है जितना शीतयुद्ध था.’

क्या अमेरिका अपना पुराना तेल साम्राज्य बचाने को तैयार है? इस सवाल का कोई आसान जवाब नहीं है. इराक के साथ दूसरी लड़ाई और अफगानिस्तान मिशन के कड़वे अनुभवों से गुजर चुकी अमेरिकी युवा पीढ़ी विदेश में सैन्य मिशनों को गहरे संदेह की नज़र से देखती है. यह भी संभावना दिखती है कि भावी अमेरिकी प्रशासन मानता है कि यूक्रेन में कभी खत्म न होने वाला युद्ध का कोई लाभ नहीं है या राष्ट्रपति पुतिन ही इससे पल्ला झाड़ ले सकते हैं.

तमाम दूसरे देशों की तरह भारत भी सऊदी अरब में होने वाली शिखर वार्ता पर गहरी नज़र रखेगा क्योंकि उसे मालूम है कि सऊदी किंग और अमेरिकी राष्ट्रपति के फैसलों से उनका भविष्य भी जुड़ा है.

(लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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