उत्तर प्रदेश शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के पूर्व चैयरमैन सैयद वसीम रिज़वी अब हिंदू बन चुके हैं. देश के संविधान और कानून की व्यवस्था के मुताबिक, उन्हें ऐसा करने का हक है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है. किसी भी धर्म को मानना, धर्म बदल लेना, यहां तक कि किसी भी धर्म को न मानना मौलिक अधिकारों के अध्याय में शामिल है. दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देश नागरिकों को ये आजादी देते हैं.
इस लेख में मैं रिज़वी के धर्म परिवर्तन के कानूनी नहीं बल्कि धार्मिक पहलुओं पर बात करूंगा. रिज़वी के धर्म परिवर्तन से जो भी सवाल उठ खड़े हुए हैं और इसका जो भी मतलब है, वह हिंदू धर्म के लिए है. कोई व्यक्ति जब अपना धर्म बदलकर क्रिश्चियनिटी या इस्लाम या सिख या यहूदी धर्म को अपनाता है, तो वो सवाल नहीं उठते जो रिज़वी के मामले में उठे हैं.
सबसे अहम मामला था कि रिज़वी हिंदू बनने के बाद किस जाति में माने जाएंगे. ये सवाल इसलिए उठा क्योंकि हर हिंदू की कोई न कोई जाति होनी चाहिए. ‘जातिमुक्त हिंदू’ एक विरोधाभासी या असंभव स्थिति है.
रिज़वी को हिंदू बनाने के लिए डासना देवी मंदिर, गाजियाबाद में जो आयोजन हुआ, उसके संचालक यति नरसिंहानंद सरस्वती ने इसका समाधान करते हुए रिज़वी को जितेंद्र नारायण सिंह त्यागी नाम दिया. इस तरह रिज़वी को हिंदू बनकर अपनी जाति मिल गई. उनके लिए ये बहुत राहत की बात होगी कि उनको हिंदू धर्म में अपना ठिकाना मिल गया लेकिन ये मामला इतना सीधा नहीं है, जितना नजर आता है.
वसीम रिज़वी सैयद थे, जो कि भारतीय मुसलमानों की समाज व्यवस्था में सबसे ऊपर आते हैं. फिर उन्हें त्यागी क्यों बनाया गया? सबसे श्रेष्ठ और उच्च मुसलमान को तो ब्राह्मण बनाया जाना चाहिए. वरना उच्च श्रेणी के मुसलमान धर्म परिवर्तन करके हिंदू क्यों बनेंगे?
समाज में अपना दर्जा खोने की कीमत पर धर्म परिवर्तन कौन करेगा? हिंदू बनकर अगर सैयद, ब्राह्मणों से नीचे हो जाएंगे, तो इसके लिए शायद ही कोई तैयार होगा. इसी तरह सिख धर्म में सबसे ऊपर मौजूद जाट या ईसाइयों में श्रेष्ठ माने जाने वाले सीरियन क्रिश्चियन भी अगर ब्राह्मण से नीचे रखे जाएंगे, तो उनमें से शायद ही कोई धर्म परिवर्तन करके हिंदू बनना चाहेगा.
बरसों से घर वापसी का प्रकल्प चला रहे आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद को इस बारे में सोचना चाहिए कि कहीं इसी वजह से घर वापसी का काम इतना सुस्त तो नहीं चल रहा है. अगर घर वापसी कामयाब होती तो जनगणना रिपोर्ट में धर्म के आंकड़ों में इसका असर नजर आता. ये बात समझनी होगी कि किसी भी धर्म में सामाजिक पायदान पर नीचे या बीच में मौजूद लोग, ऊपर की जातियों और बिरादरी के लोगों की नकल करते हैं. अगर उच्च जातियों ने धर्म परिवर्तन नहीं किया, तो नीचे के लोग धर्म नहीं बदलेंगे और ऐसी स्थिति में बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन संभव नहीं हो पाएगा.
बहरहाल, रिज़वी के हिंदू बनने से जो तीन बड़े सवाल सामने आए हैं, उन्हें देखिए.
1. सबसे बड़ा सवाल, जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है, कि सैयद को ब्राह्मण क्यों नहीं बनाया गया? इसमें बाधा क्या है? दरअसल समस्या ये है कि ब्राह्मण जन्मना यानी जन्म से ही बन सकते हैं. कर्म से या धर्म परिवर्तन से ब्राह्मण बनने की इतिहास में कोई मिसाल नहीं है. इसलिए रिज़वी को त्यागी जाति में एडजस्ट किया गया. त्यागी खुद को ब्राह्मण मानते हैं, लेकिन जब तक ब्राह्मण ऐसा न मानें, तब तक किसी और के मानने या न मानने से फर्क नहीं पड़ता. हिंदू धर्म का नियामक यानी रेगुलेटर तो ब्राह्मण ही है. त्यागी जाति क्रम में ब्राह्मणों से नीचे आते हैं. उनकी लगभग वही स्थिति है, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भूमिहारों की है.
2. दूसरा मामला ज्यादा जटिल है. यति नरसिंहानंद खुद त्यागी हैं और उनका पहले का नाम दीपक त्यागी है. इसलिए उन्होंने रिज़वी को अपनी जाति में शामिल कर लिया. लेकिन क्या त्यागी जाति नरसिंहानंद के इस फैसले को मानेगी. क्या नए बने त्यागी के परिवार में त्यागी जाति के लोग शादी-ब्याह करेंगे? इसके बिना रिज़वी को त्यागी बनना संपन्न नहीं माना जाएगा. इसके लिए एक रास्ता ये हो सकता है कि रिज़वी के बारे में ये मान लिया जाए कि मुसलमान बनने से पहले उनका परिवार त्यागी था और अब तो सिर्फ घर वापसी हुई है. लेकिन ऐसी कोई बात अब तक कही नहीं गई है.
3. तीसरी समस्या हिंदू धर्म के मूल आधारों से जुड़ी है. क्या रिज़वी से त्यागी बने व्यक्ति का उपनयन यानी यज्ञोपवित संस्कार होगा और उन्हें जनेऊ पहनने का अधिकार होगा? ये कोई साधारण धागा नहीं है कि कोई भी पहन ले. सनातन धर्म में जिनका उपनयन होता है, वे द्विज माने जाते हैं और ये संस्कार जन्म से ही निर्धारित होता है. ये अधिकार हासिल नहीं किया जा सकता. ये जन्म के आधार पर मिलता है. त्यागी जाति के लोग परंपरागत रूप से उपनयन का अधिकार रखते हैं. लेकिन क्या जितेंद्र त्यागी को भी ये सुविधा दी जाएगी?
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हिंदू बनना कितना मुश्किल है?
उपनयन यानी जनेऊ की व्यवस्था का क्या महत्व है, इस बारे में बाबा साहब डॉ. बीआर आंबेडकर ने अपनी किताब शूद्र कौन थे – में विस्तार से लिखा है. उन्होंने लिखा है, ‘बात पवित्र धागे को पहनने की नहीं, पवित्र धागा पहनने के अधिकार की है. अगर बात को सही ढंग से समझा जाए तो बिना किसी विवाद के ये कहा जा सकता है कि हिंदू धर्म में उपनयन से ही किसी व्यक्ति की हैसियत तय होती है.’ (मूल इंग्लिश से अनूदित)
धर्मशास्त्रों के मुताबिक, किसी व्यक्ति का उपनयन संस्कार सिर्फ ब्राह्मण ही कर सकते हैं. यानी वही तय करते हैं कि हिंदू धर्म में किसी व्यक्ति की धार्मिक और सामाजिक हैसियत क्या होगी. क्या वे जितेंद्र त्यागी का उपनयन संस्कार करेंगे? इस बारे में अब तक स्थिति स्पष्ट नहीं है. अगर त्यागी नाम रखने के बाद भी रिज़वी का उपनयन संस्कार नहीं होता है, तो उनकी स्थिति शूद्र या उससे भी नीचे पंचम या अंत्यज की मानी जाएगी.
आप अब समझ गए होंगे कि हिंदू बनना कोई हंसी खेल नहीं है कि कोई कहीं से उठकर आया और हिंदू बन गया.
कोई कह सकता है कि जाति तो बाकी धर्म वाले भी मानते हैं और ये तो दक्षिण एशिया में हर धर्म की बीमारी है. ये बात सही है कि यहां आकर इस्लाम और ईसाई धर्म भी अपने मतावलंबियों को जाति मानने से नहीं रोक पाए. जाति उनमें भी है. फर्क सिर्फ इतना है कि इस्लाम और ईसाई धर्म की धार्मिक पुस्तकें जाति को नहीं मानती, जबकि हिंदू धर्म शास्त्रों में जाति को मान्यता दी गई है. बल्कि जन्म आधारित ऊंच-नीच की स्थिर व्यवस्था ही हिंदू या सनातन धर्म की बुनियाद है. इसलिए बाकी धर्मों में जाति का बंधन अपेक्षाकृत कमजोर है, जबकि हिंदू इसका सख्ती से पालन करते हैं.
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हिंदू धर्म के फैलने में बाधा
डॉ. आंबेडकर तर्क देते हैं कि जाति के कारण, हिंदू धर्म एक मिशनरी धर्म नहीं है. उनका कहना है कि जाति और धर्म परिवर्तन एक साथ नहीं चल सकते. वे लिखते हैं, ‘समस्या ये आती है कि धर्म परिवर्तन करके हिंदू बने व्यक्ति को किस जाति में रखा जाए. जो भी हिंदू किसी और धर्म के व्यक्ति को हिंदू बनाना चाहता है, उसे इस सवाल से जूझना पड़ता है.’
यही वजह है कि वर्षों के प्रयास के बावजूद आर्य समाज से लेकर आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद मुट्ठी भर लोगों की ही घर वापसी करा पाए हैं. घर वापसी का उनका अभियान सिर्फ मध्य भारत के आदिवासी अंचलों में एक हद तक चल पाया है. वो इसलिए हुआ है कि आदिवासी समुदाय की अपनी परंपराओं में जाति नहीं है. किसी भी धर्म में रहकर वे जाति का उस तरह पालन नहीं करते, जिस तरह बाकी हिंदू करते हैं. ईसाई बनकर भी उनकी जाति नहीं बनी और ईसाई से हिंदू बन जाने के बाद भी वे जाति नहीं खोजते लेकिन बाकी समुदायों के साथ ऐसा नहीं है.
यानी स्थिति स्पष्ट है. अगर आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद चाहता है कि भारत एक शुद्ध हिंदू राष्ट्र बने और दूसरे धर्म के लोग शुद्धिकरण करके हिंदू बन जाएं, तो उसे जाति की समस्या से जूझना होगा और जाति का विनाश करना होगा. जाति मुक्ति के प्रोजेक्ट के बिना शुद्धिकरण या घर वापसी का प्रोजेक्ट नहीं चल सकता. इतने साल बाद तो उसे ये समझ में आ ही गया होगा.
आरएसएस की समस्या ये है कि जाति से मुक्ति का सवाल, धर्मग्रंथों की सत्ता से मुक्ति से जुड़ा हुआ है. जाति व्यवस्था को आधार देने वाले धर्म ग्रंथों– वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, श्रुति और स्मृतियों, गीता आदि को मानें और जाति को नहीं मानें, ये कैसे मुमकिन है? ये कैसे संभव है कि पुनर्जन्म का कर्म फल सिद्धांत मानें और उसके आधार पर होने वाला जाति का निर्धारण न मानें?
तो इस तरह मामला उलझा हुआ है. स्वराज्य वेबसाइट पर आर जगन्नाथन एक जरूरी सवाल पूछते हैं– क्या कारण है कि जो लोग जबरन किसी और धर्म में ले जाए गए, वे भी लौटकर हिंदू धर्म में नहीं आए.’ किसी अत्याचारी सत्ता के अवसान के बाद तो उन लोगों को हिंदू धर्म में वापस लौट आना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वे बताते हैं कि दूसरे धर्म के लोगों को हिंदू बनाने के लिए क्या-क्या करना होगा. उनका पूरा लेख यहां पढ़ा जा सकता है.
तो जब तक हिंदू धर्म जाति से मुक्त नहीं हो लेता, तब तक मुसलमानों और ईसाइयों को बड़ी संख्या में हिंदू बनाने की बात उसे भूल जानी चाहिए. रिज़वी का धर्म परिवर्तन एक अपवाद है.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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