आजादी के बाद के 70 साल में दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों की राजकाज, शिक्षा और आर्थिक गतिविधियों में हिस्सेदारी निस्संदेह बढ़ी है. लेकिन इस क्रम में भारत के इतिहास में पहली बार इतने सारे समुदाय एक दूसरे के संपर्क में आए हैं. कुछ समय पहले तक ऐसा कम ही होता था कि दलित समुदाय का एक व्यक्ति उसी जगह रहे जहां सवर्ण रहते हैं या दोनों साथ पढ़ें, साथ नौकरी करें, साथ यात्रा करें, एक ही रेस्टोरेंट में खाना खाएं.
आधुनिकता, लोकतंत्र, शहरीकरण और बाजार के चौतरफा दबाव में जातियों को अब साथ साथ काफी कुछ करना-रहना पड़ रहा है. छाया पड़ जाने से अशुद्ध हो जाने की सुविधा का उपभोग कर पाना अब मुश्किल हो गया है. इस वजह से जहां एक तरफ जातियां कमजोर पड़ी हैं, साथ खाना-पीना शुरू हुआ है, अंतर्जातीय शादियां हो रही हैं, वहीं जातीय उत्पीड़न भी बढ़ा है. अलग अलग रहने-जीने से जो टकराव नहीं होते थे, वो अब हो रहे हैं. जातियां साथ आई हैं तो उनके बीच घिसाव और कटाव भी शुरू हुआ है.
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जाति उत्पीड़न में महिलाएं पीछे नहीं
इस संदर्भ में ये महत्वपूर्ण है कि जाति उत्पीड़न की घटनाओं में पुरुषों के साथ स्त्रियां भी हिस्सा ले रही हैं. सवर्ण महिलाएं दलित महिलाओं के उत्पीड़न में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं. इसके बारे में पहले भी लिखा जा चुका है कि कि किस तरह सवर्ण छात्राएं दलित छात्राओं का जाति उत्पीड़न करती हैं. उनकी बारात नहीं निकलने देतीं, उनको नंगा करके अपने परिवार के पुरुषों के सामने परोस देती हैं, जो उनका बलात्कार करते हैं. अगर परिवार में या जाति का कोई पुरुष जाति उत्पीड़न करता हुआ फंस जाए तो उन्हें बचाने के लिए परिवार और जाति की महिलाएं अक्सर आगे आ जाती हैं.
आम तौर पर, अगर किसी सवर्ण परिवार का पुरुष किसी दलित या आदिवासी महिला का जाति उत्पीड़न करता है तो उस सवर्ण परिवार की महिलाएं अपनी लैंगिक पहचान के कारण दलित या आदिवासी महिला के साथ खड़ी नहीं होतीं, बल्कि पूरी ताकत के साथ परिवार के पुरुषों का साथ देती हैं.
यहां स्त्री और पुरुष का द्वेत यानी बाइनरी टूट जाती है और प्रसिद्ध यूरोपीय नारीवादी सिमोन द बुआ का महिलाओं के बारे में ‘द अदर’ कहना एक अभारतीय तथ्य बन जाता है. औरत है तो औरत का दुख समझेगी जैसी बात यहां बेमानी हो जाती है.
जाति उत्पीड़न और परिवार में मिली शिक्षा का प्रभाव
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जातीय उत्पीड़न की घटनाओं में महिलाओं की भागीदारी क्यों होती है? क्या उनको अपने सवर्ण पुरुष साथियों को यह बताना होता है की हम किसी भी मामले में तुमसे कम नहीं है? क्या लैंगिक समानता की लड़ाई में महिलाएं अपने सवर्ण पुरुष साथियों से जातीय उत्पीड़न के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा कर रही हैं या फिर सवर्ण महिलाएं उस जातीय परवरिश का शिकार होती हैं जो उन्हें बचपन से सिखाया जाता है?
यह मुमकिन है कि प्राथमिक सामाजीकरण यानी प्राइमरी सोशलाइजेशन के क्रम में बच्चियां भी परिवार में वही सब सीखती हैं, जो बच्चे सीखते हैं. किसी समाज को नीच समझना है और उससे घृणा करना है, या उसकी क्षमताओं को शक की नजर से देखना है, जैसी शिक्षा परिवारों में बचपन में ही मिल जाती है. ऐसी शिक्षा जरूरी नहीं है कि परिवार के पुरुष सदस्य ही दें. मां, दादी, नानी भी किस्से-कहानियों-नीति कथाओं या डांट-फटकार, भाषा या मुहावरों के जरिए देती हैं.
‘मैं किसी से नहीं डरती… चमारों की कोई औकात नहीं होती, चमार चमार होते हैं’ अपने पुरुष साथियों के बीच बोलने वाली लड़की, जिसका विडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, की मंशा क्या रही होगी. अलवर, राजस्थान में एक दलित लड़की के सामूहिक बलात्कार वाली पूरी घटना की शुरुआत ही यह जान कर होती है कि ‘दलित हैं, ये कुछ नहीं कर पाएंगे’. इस मामले में भारतीय समाज की महिलाओं की प्रतिक्रिया लगभग शून्य रही.
ऐसा शायद कभी नहीं हुआ कि सवर्ण महिलाओं ने अपने परिवार के उन पुरुषों का बहिष्कार कर दिया हो, जिन्होंने दलित महिलाओं का यौन शोषण या बलात्कार किया हो.
स्त्रियों के जातीय चरित्र की यह कोई पहली और आखिरी झलक नहीं है. उमा चक्रवर्ती अपनी पुस्तक जेंडरिंग कास्ट थ्रू ए फेमिनिस्ट लेन्स में दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘उच्च’ जाति के छात्राओं और प्रमुख समाजशास्त्रियों के द्वारा मंडल कमीशन के विरोध का जिक्र करती हैं. वो लिखती हैं कि महिला कॉलेज के छात्राएं एक विरोध के दौरान प्लेकार्ड ली हुईं थीं, जिस पर लिखा हुआ था, ‘हम बेरोजगार पति नहीं चाहते’. निश्चित तौर पर सवर्ण छात्रों द्वारा मंडल कमीशन का विरोध किया गया, लेकिन विश्वविद्यालयों के छात्राओं का विरोध खुद के अधिकारों के लिए नहीं था बल्कि अपने होने वाले ‘संभावित पतियों’ के लिए किया गया था. प्लेकार्ड्स स्पष्ट रूप से यह इशारा कर रहे थे कि ओबीसी आरक्षण के कारण ‘सवर्ण युवतियां’ संभावित ‘सवर्ण आईएएस/आईपीएस पतियों’ से वंचित रह जाएंगी.
हालांकि इन घटनाओं में एक लम्बे समय का अंतराल है. मंडल कमीशन को लागू करने की घोषणा के तीन दशक पूरे होने को हैं लेकिन मानसिकताओं को समझाने के लिए एक लम्बे समय में घटित महत्वपूर्ण घटनाओं की समीक्षा जरूरी है. एक तरफ मंडल कमीशन का लागू होना भारतीय राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मानसिकताओं में विभाजक रेखा है, दूसरी तरफ 21वीं सदी में दलितों के ऊपर अत्याचार की घटनाएं बहुत ज्यादा बढ़ी हैं.
लैंगिक भेदभाव के नाम पर महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग लम्बे समय से होती रही है लेकिन क्या महिलाएं जातीय मानसिकता की शिकार नहीं हैं? जिस तरह से लैंगिक पहचान जैविक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान है उसी तरह भारत में जातीय संस्कार लैंगिक पहचान के अन्दर छुपा हुआ एक सांस्कृतिक और सामाजिक आवरण है.
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औरत होना एक शारीरिक स्थिति है. लेकिन औरत होने के नाते पितृसत्ता से उत्पीड़ित होने की चेतना और इस वजह से बाकी पीड़ितों के प्रति सहानुभूति रखना या उनके दुख में दुखी होना एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थिति है. जाति उत्पीड़न में सवर्ण महिलाओं की हिस्सेदारी देखकर ये कहा जा सकता है कि पितृसत्ता से पीड़ित जरूर हैं, लेकिन उनमें पीड़ित होने की चेतना का अभाव है. इसलिए वे देश की तमाम महिलाओं के दुख में भी दुखी नहीं हो पातीं क्योंकि कहीं उनकी धार्मिक तो कहीं जातीय पहचान बाकी चीजों पर हावी हो जाती है.
इसलिए भारत में सम्पूर्ण महिलाओं को एक वर्ग के रूप में देखना न सिर्फ गलत बल्कि अन्यायपूर्ण है क्योंकि सिर्फ महिला होने के नाते अगर किसी तरह का विशेष अवसर उन्हें मिला तो इसका भी ज्यादा लाभ सवर्ण महिलाएं ले जाएंगी क्योंकि वंचित महिलाओं में वो सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी, संपर्कों का वो तंत्र है ही नहीं, जिसके बूते वो इस प्रतियोगिता में सफल हो पाएं.
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास के शिक्षक हैं)
आपलोग शायद वही लोग हैं जो मोदी सरकार का जाना तय माना था और आपका अनुमान बिल्कुल गलत हुआ है। फिर नई शिगुफा गढ़ने में लग गये। समाज बाटने में कितना मजा आता है आपलोगों को? समाज मजे में है। थोड़ी बहुत घटनाएं पूरे समाज का नासूर नहीं हो सकता समझे। आज हर वर्ग धर्म विकास को चाहता है। इस बात पर फोकस करें तो अच्छा होगा। लेख लिखने की इतनी ही सौख है तो डेटा एंट्री का जॉब करें, पत्रकारिता नहीं।