पिछले दो आम चुनावों में बीजेपी को मिली जीत के विश्लेषण में यह बात बार-बार सामने आयी है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के एक बड़े हिस्से के समर्थन ने बीजेपी को अप्रत्याशित सफलता दिलाई है. ऐसे तमाम विश्लेषणों में यह बात लगभग ग़ायब-सी दिखती है कि किस तरफ़ से सवर्ण जातियों के एकतरफा ध्रुवीकरण ने बीजेपी की सफलता में चार चांद लगा दिए. लोकनीति और सीएसडीएस के एक्जिट पोल सर्वे से पता चला है कि यूपी में तो 80 फीसदी से ज्यादा सवर्णों ने बीजेपी को वोट दिया. पूरे उत्तर भारत में सवर्णों की वोटिंग का यही ट्रेंड है.
सवर्ण जातियों के बीजेपी की तरफ एकतरफा झुकाव को भारत के चुनावी विश्लेषकों ने काफी हद तक नज़रंदाज किया है. पत्रकार दिलीप मंडल ने हालांकि ये सवाल तो पूछा कि विश्लेषणों में सवर्ण जातियों के वोटिंग व्यवहार की अनदेखी क्यों है, लेकिन उन्होंने भी अपने आलेख में ये नहीं बताया कि सवर्ण जातियों ने बीजेपी को क्यों चुना.
प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य इसी सवाल की पड़ताल करना है.
यह सही है कि बीजेपी की तरफ उच्च जातियों के झुकाव को चुनाव विश्लेषणों में पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया, फिर भी कुछेक राजनीति विज्ञानियों का ध्यान इस ओर है. सवर्णों से बीजेपी को मिल रहे एकतरफा समर्थन को लेकर किए गए दो शोध मेरे सामने आए, जिसमें पहला प्रो. पवित्रा सूर्यनारायण का शोध पत्र है, और दूसरा शोध पत्र प्रो. प्रदीप छिब्बर और राहुल वर्मा का है. प्रदीप छिब्बर और राहुल वर्मा ने अपने शोध को पिछले वर्ष आइडियोलॉज़ी एण्ड आइडेंटिटी नाम से किताब की शक्ल में प्रकाशित कराया है. सवर्ण जातियों के बीजेपी के प्रति झुकाव के कारणों की पड़ताल अगर उक्त राजनीति विज्ञानियों के शोध के हवाले से की जाए, तो चार प्रमुख कारण सामने आते हैं.
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मंडल कमीशन से सामाजिक श्रेष्ठता को ख़तरा
सवर्ण जातियों का बीजेपी की तरफ़ एकतरफा झुकाव 1990 के बाद शुरू हुआ, जो कि चुनाव दर चुनाव बढ़ता चला गया. इस दौर में दो घटनाएं घटीं. पहली मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू किए जाने की थी, तो दूसरी घटना राम मंदिर आंदोलन और बाबरी मस्जिद गिराए जाने की. पवित्रा सूर्यनारायण अपने शोध में ब्राह्मण जाति को केस स्टडी के रूप लेकर बताती हैं कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू किए जाने से ब्राह्मण जाति में यह भाव पैदा हुआ कि उनकी सामाजिक श्रेष्ठता ख़तरे में है, इसलिए वो बीजेपी की तरफ़ शिफ़्ट हो गयीं. वह बताती हैं कि सिर्फ़ अमीर ब्राह्मण ही नहीं, बल्कि ग़रीब ब्राह्मण भी बीजेपी की तरफ तेज़ी से शिफ़्ट हुआ, बावजूद इसके कि यह पार्टी उनको कोई ख़ास आर्थिक फ़ायदा कराने का वादा नहीं कर रही थी.
विदित हो कि 1991 के चुनाव के पूर्व सवर्ण जातिया बड़ी संख्या में कांग्रेस के वोट देती थीं, लेकिन उसके बाद वो धीरे-धीरे बीजेपी की तरफ़ शिफ़्ट होती चली गयीं. इनके लम्बे समय से कांग्रेस से जुड़े रहने का कारण कांग्रेस की गांधीवादी नीतियां थीं, जिसके तहत कांग्रेस ने आज़ादी के बाद इस नीति पर काम करना शुरू किया कि दलितों-आदिवासियों का आर्थिक उत्थान तो किया जाएगा, लेकिन सामाजिक संरचना को बिना चुनौती दिए. यानी जिनकी सामाजिक श्रेष्ठता है, वो कायम रहेगी. इस तथ्य को राजनीति विज्ञानी फ़्रांसिस फ़्रैंक्लिन ने अपनी किताब में बहुत बेहतरीन ढंग से रेखांकित किया है.
सूर्यानारायण के अनुसार मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के निर्णय ने भारत की सामाजिक संरचना को चैलेंज किया, और चूंकि उस संरचना का फ़ायदा सवर्ण जातियां ख़ासकर ब्राह्मण ले रहे थे, इसलिए इससे उनको डर पैदा हुआ. कांग्रेस उस ख़तरे के भाव को कम नहीं कर पायी, इसलिए सवर्ण जातियों का एक बड़ा हिस्सा जो कि पहले उसे वोट देता आ रहा था, छिटककर बीजेपी के पास चला गया, क्योंकि वह ‘हिंदू राष्ट्र’ यानी ‘रामराज्य’ का वादा कर रही थी, जिसका मतलब ही है कि ऐसा राज्य जहां परम्परागत जातीय श्रेष्ठता बरकरार रखी जाएगी.
कश्मीर घाटी से पंडितों का पलायन
पवित्र सूर्यनारायण के उक्त शोध के जवाब में अम्बिका पाण्डेय का एक दूसरा पेपर प्रकाशित हुआ है, जिसके मुताबिक नब्बे के दशक में सवर्ण जातियों पर आया ख़तरा केवल सिंबॉलिक यानी प्रतीकात्मक नहीं था, बल्कि काफ़ी हद तक वास्तविक भी था, जिसकी बानगी कश्मीर घाटी से पंडितों के पलायन के रूप में देखने को मिली. कश्मीर में बढ़ते आतंकवाद की वजह से वहां पंडितों के उत्पीड़न और फिर पलायन को रोकने में कांग्रेस नाकाम रही, जिससे देशभर के ब्राह्मणों का उससे मोहभंग हो गया.
इसके साथ कांग्रेस ने शाहबानो के मामले में जो पक्ष लिया, उससे भी यह मैसेज गया कि कांग्रेस अब मुस्लिमों के हितों को लेकर ही चिंतित है, ब्राह्मणों की उसे फ़िक्र नहीं. बीजेपी उस दौर में सवर्ण जातियों खासकर ब्राह्मणों के पक्ष में खड़ी हुई, जिसकी वजह से इस समुदाय का बीजेपी से जुड़ाव हुआ. सवर्ण जातियों के बीजेपी की ओर झुकने में 90 के दौर में ही उत्तर भारत के दलित और पिछड़ों के आंदोलनों ने कितना योगदान दिया, इस पर अभी शोध किया जाना बाक़ी है, क्योंकि इन आंदोलनों के दो नारे (जिनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है कि इन्हें किसने बनाया और कहां ये नारे लगाए गए) –तिलक, तराज़ू और तलवार, इनको मारो जूते चार; और भूराबाल साफ़ करो ने भी डर का माहौल बनाया था.
बढ़ती धार्मिकता बरास्ते टीवी सीरियल और बाबावाद
सवर्ण जातियों के बीजेपी की तरफ बढ़ते झुकाव का एक कारण बढ़ती धार्मिकता को भी माना जा रहा है. सूर्यनारायण के अलावा छिब्बर और वर्मा इस बात को स्वीकार करते हैं. दरअसल धार्मिकता बढ़ने से लोगों में भौतिकता के प्रति मोह टूटता है, इससे वे भावनात्मक मुद्दों पर वोट देने लगते हैं. राजनीतिक पार्टियां इसका उपयोग करके सत्ता हासिल कर लेती हैं.
90 के दशक से ही भारत में दो तरीक़े से धार्मिकता बढ़ी. पहला, टेलीविजन और जनसंचार क्रांति की वजह से आम जनमानस में महाभारत, रामायण, श्रीकृष्ण जैसे टीवी सीरियल बहुत पापुलर हुए, तो नागिन, संतोषी माता जैसी फ़िल्में भी खुद प्रसिद्ध हुईं. इन्होंने भारतीय समाज में धार्मिकता को बढ़ाया. धार्मिकता बढ़ने का एक अन्य कारण नए-नए क़िस्म के बाबाओं और धर्मगुरुओं का प्रभाव भी है. जो वोटर बाबाओं, डेरों आदि के प्रभाव में हैं, उनके बीजेपी के लिए वोट देने की संभावना बढ़ जाती है.
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दक्षिणपंथी पार्टियों का बीजेपी में समाहित होना
राहुल वर्मा और प्रदीप छिब्बर के अनुसार बीजेपी की सफलता का एक बड़ा राज यह भी है कि उसने शिवसेना को छोड़कर, भारत की सभी छोटी-मोटी दक्षिणपंथी पार्टियों और संगठनों को अपने अंदर समाहित कर लिया, जिसमें स्वतंत्र पार्टी, रामराज्य पार्टी, हिंदू महासभा आदि शामिल हैं. इतना ही नहीं बीजेपी ने अपने से टूटकर जाने वाले कल्याण सिंह, उमा भारती, बीएस येदियुरप्पा जैसे नेताओं की पार्टियों को पुनः ससम्मान पार्टी में शामिल कर लिया, ताकि दक्षिणपंथी विचारधारा वाले वोटों में कोई कंफ्यूजन न रहे, और न ही वोटों का विभाजन हो.
छिब्बर और वर्मा के अनुसार आज़ादी के बाद हिंदू सवर्णों का वोट दो हिस्सों- हिंदू कंज़र्वेटिव और हिंदू राष्ट्रवादी में विभाजित था. हिंदू राष्ट्रवादी बीजेपी की पूर्ववर्ती पार्टी भारतीय जनसंघ को वोट देते थे, जबकि हिंदू कंज़र्वेटिव कांग्रेस और अन्य दक्षिणपंथी पार्टियों को. कांग्रेस के दक्षिणपंथी धड़े और अन्य दक्षिणपंथी पार्टियों को अपने में समाहित कर लेने की वजह से बीजेपी को अब सवर्ण जातियों का उक्त दोनों धड़ा वोट देने लगा है.
(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं )