चुनावों में अधिक से अधिक सीटें जीतने के लिए फिल्म स्टार, क्रिकेटर या अन्य तरीकों से चर्चित हुए लोगों को टिकट देकर राजनीतिक लाभ कमाने की परंपरा कांग्रेस में तो रही ही है, साथ ही भाजपा भी इस मामले में काफी आगे है. पिछले एक हफ्ते के अंदर बीजेपी जयाप्रदा को लेकर आई तो कांग्रेस ने उर्मिला मातोंडकर को पार्टी में शामिल कर लिया. वहीं दूसरी ओर, कथित तीसरे मोर्चे के समाजवादी, बहुजनवादी दल इस मामले में काफी पीछे दिखते हैं.
कांग्रेस अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, गोविंदा, अजहरुद्दीन जैसे नामी चेहरों को लोकसभा चुनावों में उतारकर सीटें जीतती रही है. भारतीय जनता पार्टी भी टीवी सीरियलों में कृष्ण, सीता और रावण की भूमिका निभाने वाले नीतीश भारद्वाज, दीपिका चिखलिया और अरविंद त्रिवेदी को लोकसभा में पहुंचा चुकी है. वर्तमान में ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी, किरण खेर, परेश रावल उसके सांसद हैं. इसके पहले धर्मेंद्र भी लोकसभा का चुनाव भाजपा के टिकट पर जीत चुके हैं. इस तरह से कांग्रेस और भाजपा कई मुश्किल मानी जाने वाली सीटों को भी इन स्टारों की लोकप्रियता के कारण जीतते रहे हैं.
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इनके बजाय, तीसरे मोर्चे के और क्षेत्रीय दल इस मामले में काफी पीछे रह गए हैं. ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की स्थिति जरूर कुछ अलग है और वो न केवल राज्यसभा में इन्हें भेजती हैं, बल्कि लोकसभा में भी पश्चिम बंगाल के कई अभिनेता-अभिनेत्रियों को, कला-जगत से जुड़े लोगों को और खिलाड़ियों को चुनाव लड़ाती है और जिताती भी है. सपा के पास ले-देकर एक जया बच्चन हैं लेकिन वो भी लोकसभा के बजाय हर बार राज्यसभा सीट ही ले जाती है.
आमतौर पर सामाजिक न्याय की पक्षधर मानी जाने वाली पार्टियों के टिकट पर सेलिब्रिटीज़ तो शायद ही कभी चुनाव लड़ते दिखते हैं. हालांकि इसका एक कारण यह भी होता है कि ये भी खुद कांग्रेस, भाजपा या टीएमसी के टिकट पर ही चुनाव लड़ने में दिलचस्पी लेते हैं और इन दलों से परहेज करते हैं. इसका कारण ऐसे सेलिब्रिटीज़ की कास्ट लोकेशन भी होती है.
फिल्म स्टारों और स्टार खिलाड़ियों के अलावा, सामाजिक न्याय या अन्य कारणों से लाइम लाइट में आए एससी, एसटी और ओबीसी के लोगों के भी नाम और ब्रांड का फायदा उठाने की कोशिश ये बहुजन दल नहीं करते हैं. ये इनकी बहुत बड़ी कमी है क्योंकि इस बहाने वे कई ऐसे इलाकों में भी जीत हासिल कर सकते हैं या अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा सकते हैं जहां पर आमतौर पर इनका असर नहीं रहा है.
कई व्यक्ति ऐसे हैं जो किसी न किसी आंदोलन या अभियान के कारण चर्चित हुए हैं और उनकी प्रवृत्ति भी जुझारू तथा संघर्ष करने वाली रही है, लेकिन सपा, बसपा और राजद जैसे दल इन पर ध्यान देने की कोशिश भी नहीं करते.
मौजूदा चुनावों में ऐसे चर्चित व्यक्तियों की सूची काफी लंबी है जो शायद चुनाव लड़ने के भी इच्छुक हैं, और उनकी अपनी एक प्रतिष्ठा भी है. सामाजिक सरोकारों से गहरे जुड़ाव के कारण ये व्यक्ति इन दलों की विचारधारा को भी आगे बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं.
इनमें पहला नाम जस्टिस कर्णन का हो सकता है जो न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और जातिवाद खत्म करने तथा न्यायिक सुधारों के लिए उच्चतम न्यायालय से भी टकराए और परिणामस्वरूप उन्होंने जेल की सजा भी काटी. जस्टिस कर्णन तमिलनाडु की ही नहीं, देश की किसी भी सीट के मुकाबले को हाईप्रोफाइल बनाने का दम रखते हैं. वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ने के लिए इन तमाम भाजपा विरोधी दलों को एक ऐसे ही कैंडिडेट की जरूरत है जो हार का खतरा उठाकर भी कड़ा मुकाबला करे.
इनके अलावा, सांस्थानिक हत्या के शिकार हुए रोहित वेमुला की माता राधिका वेमुला अपने सीमित संसाधनों के बावजूद, सामाजिक न्याय के कई मंचों पर सक्रिय रही हैं. छात्रों को तो उनका विशेष सहयोग लगातार मिलता रहा है और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले तमाम युवाओं में वे अपने बेटे रोहित वेमुला की छवि देखती रही हैं. दक्षिण भारत में अपनी उपस्थिति बढ़ाने की इच्छा रखने वाले सपा, बसपा और राजद राधिका वेमुला पर क्यों ध्यान नहीं दे रहे हैं, ये समझ पाना मुश्किल है.
छत्तीसगढ़ की सोनी सोरी वैसे तो आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुकी हैं और अब भी उसी पार्टी में हैं लेकिन आदिवासियों के मुद्दे केजरीवाल की प्राथमिकता में नहीं हैं और वे केवल सोनी के नाम का उपयोग करते हैं. बसपा या सपा सोनी सोरी को अहमियत देकर छत्तीसगढ़ में अपनी ताकत बढ़ा सकती है और शायद कांग्रेस भी उनका समर्थन करने को तैयार हो सकती है.
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इसी तरह से जेएनयू के लापता छात्र नजीब की मां फातिमा नफीस भी राधिका वेमुला की तरह ही पीड़ित हैं और सामाजिक न्याय के लड़ाकों के लिए उनके दिल में दर्द भी है. इंसाफ की उम्मीद भी वे खो चुकी हैं. फातिमा को टिकट देने से एक ऐसा व्यापक संदेश जाएगा कि भाजपा को जवाब देना मुश्किल पड़ सकता है. गुजरात के आईपीएस संजीव भट्ट भी ऐसा ही एक नाम हैं जो भाजपा को मुश्किल में डाल सकते हैं. भीम आर्मी के चंद्रशेखर भी दलितों में अपील रखते हैं.
इनके अलावा, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों में भी एससी, एसटी और ओबीसी के कई लोग नायक का स्तर हासिल कर चुके हैं. ये दल ऐसे भी कुछ लोगों को कुछ खास सीटों पर उतारकर अपनी जीत की संभावना बढ़ा सकते हैं. ऐसे में ये दल उस आरोप को भी झुठला सकते हैं जिसमें कहा जाता है कि ये दल विचारधारा से दूर हो चुके हैं.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)