किसी भी सरकार के काम का आकलन करने के लिए 100 दिन पर्याप्त समय नहीं है. विशेष रूप से आर्थिक मापदंडों पर तो कतई नहीं. लेकिन, अगर वही पार्टी और वही प्रधानमंत्री, लगातार दूसरे कार्यकाल में हो तो चीजें आसान हो जाती हैं. अब हम 100 दिन नहीं, बल्कि 5 साल और 100 दिनों का आकलन कर रहे हैं. देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति के अच्छे या बुरे हाल में होने के लिए वर्तमान सरकार ही नहीं, बल्कि पिछली सरकार के 5 साल भी जिम्मेदार हैं. संयोग से ये सारा कार्यकाल एनडीए और बीजेपी का है. आखिर आज हम जहां खड़े हैं, उसके लिए देश के पिछले 6 बजट और पिछले 5 वर्षों की आर्थिक नीतियों, फैसलों की कोई तो जिम्मेदारी होगी?
आर्थिक मोर्चे पर अच्छी खबर नहीं
अगर आप ताज़ा आर्थिक आंकड़ों, जो सरकार ही उपलब्ध कराती है, पर नज़र डालेंगे तो पाएंगे कि देश की आर्थिक स्थिति चिंताजनक है. चाहे उद्योग हो या कृषि क्षेत्र, सर्विस सेक्टर हो या टूरिज्म, हर जगह मंदी की मार है. नौकरियों में कटौती हो रही है. वित्त वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून 2019) में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर घटकर 5 फीसदी रह गयी है. इन आंकड़ों ने रिजर्व बैंक के गवर्नर को भी चौंकाया है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ ने कहा है कि ये आंकड़ें उसकी उम्मीद से कम हैं. अगर आंकड़ों के आधार में सरकार द्वारा किए गए बदलाव और दूसरी चतुराइयों का ध्यान रखें तो मुमकिन है कि वास्तविक विकास दर 5 फीसदी से कम हो.
ऑटो और रियल एस्टेट सेक्टर पर बुरी मार
आर्थिक आंकड़ों के हिसाब से, 2019-20 की पहली तिमाही में देश में घरेलू कारों की बिक्री पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 23.3 फीसदी, दोपहिए वाहनों की बिक्री में 11.7 फीसदी और ट्रैक्टर की बिक्री में 14.1 फीसदी की गिरावट दर्ज़ हुई है. कई कंपनियों ने अपना उत्पादन कम करने के लिए शिफ्ट की संख्या कम की है, क्योंकि तैयार गाड़ियां गोदामों से उठ नहीं रही हैं. एक अनुमान के मुताबिक इस साल अप्रैल से लेकर अब तक करीब साढ़े तीन लाख से ज़्यादा लोग केवल ऑटोमोबाइल सेक्टर में ही बेरोज़गार हुए हैं. ऑटो सेक्टर भारत में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले क्षेत्रों में है. रोजगार में कटौती ऑटोमोबाइल के पुर्जे बनाने वाली कंपनियों में भी हुई है. वहां 10 लाख नौकरियां जाने की आशंका जताई जा रही है. इस सेक्टर में आई मंदी का न सिर्फ अर्थव्यवस्था बल्कि रोजगार पर भी गंभीर असर होता है.
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रियल एस्टेट रिसर्च कंपनी लीजे फोरास के अनुसार भारत के 30 बड़े शहरों में मार्च 2019 तक 12 लाख 80 हज़ार बिना बिके घर थे. ये मार्च 2018 के मुकाबले 7 परसेंट ज्यादा हैं. इसका मतलब है कि बिल्डर नए घरों का निर्माण, उनके बिकने की गति से ज़्यादा तेजी से कर रहे हैं. बने हुए घर के नहीं बिकने से इस सेक्टर में सुस्ती है और इस कारण बिल्डरों के कई प्रोजेक्ट फंस गए हैं. चूंकि रियल एस्टेट से सीमेंट, इस्पात, पेंट जैसे अन्य उद्योग भी जुड़े होते है, तो स्वाभाविक है कि इस मंदी की मार उन्हें भी झेलनी पड़ रही है. इसी दौरान कृषि विकास दर 5 फीसदी से गिरकर 2 फीसदी रह गयी है, निर्माण विकास दर 9.6 फीसदी से गिरकर 5.7 फीसदी पर आ गई है.
ये आंकड़े बता रहे हैं कि भारत अर्थव्यवस्था में सुस्ती चौतरफा है और शायद ही कोई क्षेत्र इससे पूरी तरह मुक्त है. आखिर सरकार भी जब एक के बाद एक आर्थिक पैकेज की घोषणा कर रही है, तो उसमें ये स्वीकारोक्ति शामिल है कि उसे आर्थिक मंदी की सूचना है और वह जरूरी कदम उठाने की कोशिश कर रही है. आखिर ये कोई सामान्य स्थिति नहीं है कि अपने बजटीय आवंटन को पूरा करने के लिए सरकार ने भारतीय रिज़र्व बैंक के ख़ज़ाने से 1.72 लाख करोड़ रुपये निकाल लिए हैं. इसलिए जब सरकार का कोई प्रतिनिधि या बीजेपी का कोई नेता ये कहे कि अर्थव्यवस्था में सब कुछ ठीकठाक है तो उनकी बातों से यही समझना चाहिए कि वे माहौल को ज्यादा गमगीन बताने से परहेज करने की अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं.
विपक्ष कमज़ोर और बेपरवाह नज़र आता है
सरकार जब इस कदर मुसीबत में है और यह सब उसकी अपनी नीतियों का भी परिणाम है तो विपक्ष क्या कर रहा है? जाहिर है कि अर्थव्यवस्था को गति देने का काम तो सरकार ही कर सकती है और इसमें विपक्ष की कोई भूमिका संभव नहीं है, लेकिन वह जनता की समस्याओं को सरकार तक पहुंचा जरूर सकता है और गलत नीतियों पर सरकार को घेर भी सकता है. किसी भी लोकतंत्र में विपक्ष की ऐसे मौके पर यही भूमिका हो सकती है.
लेकिन विपक्ष इस समय सन्निपात ग्रस्त है. 2019 के चुनावों के परिणाम से विपक्ष बिल्कुल टूट चुका है. इतना उदासीन और बेपरवाह विपक्ष देश ने कई दशक बाद देखा है. कांग्रेस की कमान राहुल गांधी छोड़ चुके हैं, मज़बूरन एक बार फिर सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनना पड़ा. मुख्य विपक्षी पार्टी होने के नाते, सरकार की आर्थिक नीतियों के दुष्परिणामों के खिलाफ विरोध करने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी कांग्रेस की बनती है. पर कांग्रेस ऐसा नहीं कर पा रही है. कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के नेता केवल फेसबुक ओर ट्विटर पर अपना विरोध प्रकट कर देने तक खुद को सीमित रख रहे हैं.
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चूंकि विपक्षी दल सड़कों पर नज़र नहीं आ रहा है इसलिए गांव-देहात में रहने वाले आम आदमी, किसान, युवा आदि का अपना आक्रोश जताने का कोई और तरीका नजर नहीं आ रहा है. ये विपक्ष की सबसे बड़ी विफलता है कि वे सरकार की आर्थिक नाकामियों को लोगों तक नहीं पहुंचा पा रहा है. बल्कि सरकार ही एजेंडा सेट कर ही है. ये मुद्दे मंदिर, मस्जिद, कश्मीर, पाकिस्तान, गाय, हिंदी, हिन्दू, मुस्लिम के इर्द-गिर्द बुने जाते हैं, जिससे मूल मुद्दों से लोगों का ध्यान हट जाता है.
आर्थिक संकट के निवारण के ऊपर राजनीति हावी
मंदी दूर करने के लिए सबसे पहले, सरकार को राजनीति से ऊपर उठकर सच्चाई को स्वीकार करना होगा. किसी भी समाधान का रास्ता इसके बाद ही निकल सकता है. इसके बाद सरकार को दीर्घकालिक आर्थिक लक्ष्यों को निर्धारित करना चाहिए और नारेबाजी के चक्कर में पड़े बगैर ईमानदारी से उनकी ओर काम करना चाहिए. तीसरा, देश-विदेश के बेहतरीन अर्थशास्त्रियों को विश्वास में लेकर उनसे मंदी के दौर से निकलने के सुझाव मांगने चाहिए. ऐसा करते वक्त सरकार को मीठा सुनने का लोभ छोड़ देना चाहिए. आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बताया भी है कि आलोचना सुनना किसी सरकार के लिए कितना जरूरी होता है. सरकार को पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से भी राय लेने पर विचार करना चाहिए. सरकार जब महात्मा गांधी और सरदार पटेल का राजनीतिक इस्तेमाल कर सकती है तो मनमोहन सिंह के अनुभव का लाभ उठाने में क्या बुराई है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)