इंडिया टुडे के जुलाई 2019 के मूड ऑफ द नेशन सर्वे में शामिल 60 प्रतिशत लोगों ने नरेंद्र मोदी की एनडीए सरकार के आर्थिक प्रदर्शन को यूपीए शासन के मुकाबले बेहतर बताया. गौर करें कि बात तुलनात्मक रूप से बेहतर होने की है, सवाल आर्थिक प्रदर्शन के वाकई बढ़िया होने का नहीं था. इससे भी दिलचस्प बात ये है कि सर्वे में शामिल 45 फीसदी लोगों ने कहा कि नरेंद्र मोदी के 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से आर्थिक स्थिति सुधरी है.
सर्वे के ये परिणाम भारतीय अर्थव्यवस्था में सुस्ती आने की वास्तविकता से मेल नहीं खाते हैं. एक लीक रिपोर्ट के कारण हमें चुनावों से पूर्व ही देश में बेरोज़गारी अभूतपूर्व स्तर पर होने की बात पता चल गई थी. ऐसा व्यक्ति मिलना मुश्किल है जो कहे कि नोटबंदी और बुरी तरह लागू जीएसटी का अर्थव्यवस्था पर बुरा असर नहीं पड़ा है. तो फिर मुश्किल आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद मोदी की लोकप्रियता का, उनकी टेफलोन कोटिंग का क्या कारण है?
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इस संदर्भ में कई कारक काम कर रहे हैं. एक है मुद्रास्फीति का कम स्तर, हालांकि अर्थव्यवस्था के संदर्भ में यह मोदी के लिए असल चुनौती है. आर्थिक विकास और रोज़गार सृजन को कम मुद्रास्फीति की भेंट चढ़ा दिया गया, ताकि लोग महंगाई की या रोज़मर्रा की चीज़ों के पहुंच से दूर होने की शिकायत नहीं करें.
एक और कारक है मोदी की कल्याणकारी योजनाएं. भारतीयों को माई-बाप सरकार के अधीन रहने की पुरानी आदत है. यदि सरकार मुद्रास्फीति को कम रख रही है, मेरे लिए घर और शौचालय बना रही है और सिर्फ खेत होने के आधार पर हर साल 6,000 रुपये दे रही है, तो और क्या चाहिए मुझे? लोग सुनने को तैयार नहीं हैं कि निजी क्षेत्र में रोज़गार के अवसर भी सरकार की नीतियों पर निर्भर करते हैं.
और फिर मोदी में लोगों का आम विश्वास भी है, जो कि किसी मुद्दे के निरपेक्ष है. ये हिंदुत्व या अर्थव्यवस्था या सर्जिकल स्ट्राइक के कारण नहीं है – लोग बस मोदी को पसंद करते हैं, उसी तरह जैसा कि वे किसी फिल्म स्टार को पसंद करते हैं. उनका मानना है कि मोदी से कोई गलती नहीं हो सकती. सर्वे में 35 फीसदी लोगों ने 2019 के चुनावों में जीत के लिए मोदी के ‘मज़बूत नेता’ की छवि को श्रेय दिया. बालाकोट भी एक बड़ा मुद्दा था, जिसे सर्वे में शामिल 16 प्रतिशत लोगों ने उनकी जीत की मुख्य वजह बताया.
सत्य की धारणा
ऐसे सारे सर्वे और मोदी की लोकप्रियता के तमाम राजनीतिक विश्लेषण इस धारणा पर आधारित होते हैं कि मोदी समर्थक राय बनाने के लिए भारतीय मतदाताओं के पास सारे ज़रूरी तथ्य उपलब्ध हैं. इस धारणा में फर्जी खबरों (फेक न्यूज़) की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया जाता है. मोदी की लोकप्रियता या भारतीय चुनावों को लेकर किए गए किसी भी विश्लेषण में आपको कमज़ोर विपक्ष, सहयोगी मीडिया, हिंदुत्व, कम मुद्रास्फीति, कल्याणकारी योजनाओं आदि की ही चर्चा मिलेगी. व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों से, अक्सर चुपके से प्रसारित फेक न्यूज़ और गलत सूचनाओं के बारे में कोई नहीं बोलेगा.
मोदी के आर्थिक प्रदर्शन की लोग वाहवाही क्यों करते हैं, जबकि अर्थव्यवस्था वास्तव में बुरे हाल में है? अनेक उदारवादी इसके जवाब में हिंदुत्व का नाम लेंगे. पर उस स्थिति पर क्या कहेंगे जब लोग अर्थव्यवस्था के सुस्त पड़ने की बात पर ही विश्वास नहीं करते हों? जब लोगों का ये मानना हो कि अर्थव्यवस्था वास्तव में अच्छा कर रही है. इंडिया टुडे के सर्वे में यही बात सामने आई है. इसमें शामिल 66 प्रतिशत लोगों ने निर्मला सीतारमण के पहले बजट को अगले पांच वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था को 5 खरब डॉलर के स्तर पर पहुंचाने में मददगार बताया. ये उस बजट की वाहवाही है जो कि इतना बुरा था कि खुद वित्त मंत्री को उसके कई प्रमुख प्रस्तावों को संशोधित करना पड़ा.
अर्थव्यवस्था की सुस्ती इस स्तर तक पहुंच चुकी है कि आंकड़ों में हेराफेरी और सरकार के खंडनों से भी उस पर पर्दा नहीं पड़ रहा है. मोदी स्वयं अर्थव्यवस्था के कमज़ोर पड़ने पर कुछ नहीं बोलते, क्योंकि समस्या को स्वीकार करने की क्या ज़रूरत है जब लोगों को इस बात पर राज़ी करना आसान हो कि कोई समस्या है ही नहीं.
ऐसा नहीं है कि लोगों को बेरोज़गारी का सामना नहीं करना पड़ रहा हो – नोटबंदी के बाद एक-एक कर कई सर्वे बता चुके हैं कि बेरोज़गारी जनता की सबसे बड़ी चिंता है. मूड ऑफ द नेशन सर्वे में भी 35 प्रतिशत लोगों ने इसे सर्वाधिक चिंता की बात बताई है. इस मामले में सबसे उल्लेखनीय बात है लोगों का बेरोज़गारी के लिए मोदी सरकार को दोष नहीं देना. यानि मोदी से कोई गलती हो ही नही सकती.
चुनावों के दौरान आपका ऐसे लोगों से ज़रूर सामना हुआ होगा जो कि तब मान रहे थे कि मोदी देश को महान ऊंचाइयों पर ले जा रहे हैं, हालांकि अर्थव्यवस्था इससे उलट स्थिति बयां कर रही थी. पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक ग्रामीण ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया: ‘भारत का दुनिया में अब अधिक मान है. 13वें से अब ये चौथे स्थान पर पहुंच गया है. मोदी को पांच साल और दीजिए, फिर हम पहले नंबर पर होंगे.’ किस मामले में चौथे नंबर पर? इसे रहने ही दीजिए.
मोदी के अलावा सब दोषी
अब जबकि अर्थव्यवस्था के कमज़ोर पड़ने की सच्चाई को छुपाना मुश्किल हो रहा है, और जीडीपी के संदिग्ध आंकड़े भी आर्थिक विकास दर को महज 5 फीसदी आंक रहे हैं, सोशल मीडिया पर शेयर की जाने वाली सामग्रियों में असल स्थिति (रियलिटी चेक) का दावा किया जा रहा है. इनमें बताया जाता है कि भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया आर्थिक सुस्ती के दौर से गुजर रही है. इसमें एक प्रमुख कारण अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध को बताया जाता है. दूसरे शब्दों में, भला नोटबंदी या जीएसटी या मोदी को क्यों दोष दें? इन संदेशों में यूरोपीय देशों की निम्न विकास दर का उल्लेख किया जाता है. जनता को ये कौन समझाए कि ऐसी तुलनाएं क्यों सही नहीं हैं या कैसे नोटबंदी ने भारत के आर्थिक विकास को तब बाधित कर दिया जब वैश्विक अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में थी. ऐसे ही एक संदेश में रोष जताया गया है कि ‘जब दुनिया मंदी के कगार पर खड़ी है, आलोचकों को दोषी ठहराने के लिए सिर्फ मोदी नज़र आते हैं’.
हम सभी को व्हाट्सएप पर ऐसे संदेश मिलते हैं. हम इस व्हाट्सएप प्रोपेगंडा की व्यापकता का अहसास नहीं कर पाते हैं. करीब 40 करोड़ भारतीय व्हाट्सएप का इस्तेमाल कर रहे हैं और शायद ही किसी का व्हाट्सएप राजनीतिक संदेशों से मुक्त हो, जो दबे पांव आते-जाते हैं.
आजकल व्हाट्सएप पर ‘फॉरवार्ड’ किया जा रहे एक संदेश में कहा गया है:
‘इन दिनों अक्सर सुनने को मिलता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था संकट में है. शांतिपूर्वक ज़रा निष्पक्षता से सोचें कि संकट में अर्थव्यवस्था है या बिज़नेस के पुराने तौर-तरीकों पर संकट छाया है? आप निम्नांकित तथ्यों पर विचार करके देखें:
1. कारों की बिक्री घट रही है… पर ओला/उबर का धंधा बढ़ रहा है.
2. रेस्तरां खाली पड़े हैं… पर खाने की होम डिलिवरी में तेज़ी आ रही है.
3. ट्यूशन की कक्षाओं में छात्रों का टोटा है पर ऑनलाइन पढ़ाई का चलन बढ़ रहा है.
4. दुकानदारों की बिक्री घट गई है पर ऑनलाइन बाज़ारों और डायरेक्ट सेलिंग के धंधे में रिकॉर्ड तेज़ी है.
5. कमीशन पर आधारित पुराने व्यवसायों का बुरा हाल है… पर कम लागत वाली ऑनलाइन सेवाएं लोकप्रिय हो रही हैं.
6. सेलफोन का खर्च घट रहा है और इंटरनेट का प्रसार बढ़ रहा है.
7. स्थायी (सरकारी) नौकरियां कम हो रही हैं पर इक्विटी और काम के घंटे चुनने की सुविधा देने वाली स्टार्ट-अप कंपनियों का विस्तार हो रहा है.
8. नौकरी चाहने वालों की संख्या कम हो रही है, नौकरी देने वालों की संख्या बढ़ रही है.
40 वर्षों तक हर हफ्ते 40 घंटे खटने का जमाना गया. अब तो कुछ वर्षों तक काम करने और बाकी ज़िंदगी सार्थक रूप में समाज में योगदान करते हुए बिताने का चलन है.
कड़वी सच्चाई तो ये है कि हम संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं और अतीत में मज़े करते रहे स्थापित लोगों के लिए ऐसा दौर हमेशा पीड़ादायक होता है.
पुराने तौर-तरीकों से बिज़नेस चलाने वालों को बेशक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है…
सुनील गावस्कर की 35 रन पर नाबाद वाली शैली आज एकदिवसीय मैच नहीं जिता सकती. हमें आज रोहित/विराट वाली स्टाइल चाहिए.
जिन्होंने परंपरागत तरीकों से आगे देखने का कभी प्रयास नहीं किया या जिन्होंने हर तरह के परिवर्तन का विरोध किया, उनको ये बात समझ में नहीं आ रही.
अर्थव्यवस्था संकट में नहीं है…
बिज़नेस बदल रहा है.
लगातार बदल रहा है…!
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कंटेंट इज किंग, डिस्ट्रिब्यूशन इज गॉड
ये कोई नई बात नहीं है. दुनिया को दोष दो. लोगों को दोष दो. बिज़नेस पर परिवर्तनों को अंगीकार नहीं करने का आरोप लगाओ. परिस्थितियों में बदलाव को जिम्मेवार ठहराओ. सरकार के अलावा सबको दोषी बताओ. इस तरह के प्रोपेगेंडा का स्तर और असर इतना व्यापक है कि आपको चाय दुकानों और ट्रेनों पर इन्हें शब्दश: दोहराते लोग मिल जाएंगे. व्हाट्सएप प्रोपेगेंडा में मोदी का हर वोटर भाजपा प्रवक्ता की तरह बोलता है.
फैक्ट-चेकिंग, व्हाट्सएप ग्रुपों से पलायन या ऐसे संदेशों पर कुढ़ कर इस प्रोपेगेंडा का मुकाबला नहीं किया जा सकता. इसके मुकाबले के लिए वितरण की क्षमता चाहिए – ऐसा कोई जिसके पास लाखों व्हाट्सएप ग्रुप बनाने और संचालित करने की क्षमता हो.
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(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं.)