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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतक्यों न मोदी और इमरान दोनों को नोबेल पीस प्राइज़ दिया जाये?

क्यों न मोदी और इमरान दोनों को नोबेल पीस प्राइज़ दिया जाये?

वह व्यक्ति इस शांति पुरस्कार का हकदार है जिसने दो देशों के बीच तनाव कम करने, सेना की संख्या कम करने और शांति स्थापित करने के लिए ज़्यादा काम किया है.’

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भारत-पाक के बीच चल रही न्यूक्लियर टेंशन के बीच पाक संसद में इमरान खान को नोबेल पीस प्राइज़ के लिए नॉमिनेट करने की बातें उठने लगीं. नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने की मांग को लेकर भारत ही नहीं पाकिस्तान में भी इस बात का मज़ाक बनाया गया. लोगों ने पूछा कि इमरान खान को किस बात का नोबेल पीस प्राइज़ दिया जाए?

लेकिन क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पाक पीएम इमरान खान और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दोनों नेताओं को नोबेल पीस प्राइज़ दिया जाए? आखिर दोनों नेताओं ने कश्मीर को लेकर होने वाले संभावित न्यूक्लियर युद्ध को रोक दिया है. दोनों ही देशों की उन्मादी भीड़ और मीडिया द्वारा सरकारों पर दबाव बनाने की तमाम कोशिशों के बावजूद.

इमरान खान ने पाक संसद में 28 फरवरी को भारत के विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान को लौटाने की बात रखी थी. उन्‍होंने इसे ‘शांति की दिशा में उठाया गया एक कदम’ बताया. इस फैसले का स्वागत दोनों देशों की जनता ने किया. कुछ लोग कह रहे थे कि पाक को ऐसा करना ही था क्योंकि उसने जेनेवा संधि पर साइन किए थे. लेकिन कुछ का मानना था कि वाकई इमरान खान ने शांति स्थापित करने की ओर एक कदम उठाया है.


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नोबेल पीस प्राइज़ देने की चर्चा शुरू हुई तो इमरान खान ने ट्वीट कर कहा कि वो इसके लायक नहीं हैं. नोबेल पीस प्राइज़ का असली हकदार वही है जो कश्मीर की समस्या को हल कर सके और उपमहाद्वीप में शांति और मानव विकास का मार्ग प्रशस्त कर सके.

नोबेल पीस प्राइज़ क्यों इतना महत्वपूर्ण है?

हर साल नोबेल पुरस्कार बड़े जोश-खरोश से घोषित किए जाते हैं. नोबेल के शांति पुरस्कार को सबसे ज़्यादा जांच-पड़ताल से गुज़रना पड़ता है. अगर शांति पुरस्कार की व्याख्या देखें तो ये बाकी नोबेल पुरस्कारों से थोड़ा अलग है. तर्क दिया जाता है कि बाकी पुरस्कार उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए दिए जाते हैं. वहीं, शांति पुरस्कार देने के पीछे नोबेल कमेटी का उद्देश्य होता है कि इसके जरिए दुनिया में अच्छे बदलाव आएं.

नोबेल पीस प्राइज़ का मुख्य उद्देश्य क्या है?

सबसे पहला नोबेल पीस प्राइज़ 1901 में अल्फ्रेड नोबेल की मृत्यु के 5 साल बाद दिया गया था. अल्फ्रेड नोबेल की वसीयत के मुताबिक, ‘वह व्यक्ति इस शांति पुरस्कार का हकदार है जिसने दो देशों के बीच तनाव कम करने, सेना की संख्या कम करने और शांति स्थापित करने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा काम किया है.’

शुरूआत में नोबेल कमेटी ने इसी व्याख्या के हिसाब से काम किया. 1901 और 1945 के बीच, तीन-चौथाई से ज़्यादा पुरस्कार (43 में से 33) उन लोगों को दिए गए जिन्होंने देशों के बीच अमन और शांति को बढ़ावा दिया. लेकिन इस दौरान दुनिया ने दो विश्व युद्ध भी झेले. बाद में इसका दायरा बढ़ाया गया और युद्ध खत्म कर शांति स्थापित करने का इरादा रखने वालों को भी इस पुरस्कार से सम्मानित किया जाने लगा.

1991-1999 के बीच नोबेल कमेटी के चेयरमैन रहे फ्रांसिस सेजर्सटिड ने एक बार कहा था कि कमेटी भविष्य में हो सकने वाले सकारात्मक प्रभावों को भी ध्यान में रखती है. अल्फ्रेड नोबेल चाहते थे कि इसका राजनीतिक प्रभाव भी पड़े. शांति पुरस्कार देना एक राजनीतिक कार्य है.

वर्तमान समय में नोबेल शांति पुरस्कार को संभावनाओं/आकांक्षाओं के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है. 2017 का नोबेल पीस प्राइज़ परमाणु हथियारों को खत्म करने की एक अंतर्राष्ट्रीय मुहिम को दिया गया था. इस मुहिम ने परमाणु बम से होने वाले विनाशकारी परिणामों की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित किया.

शांति कोई ठहराव नहीं, बल्कि निरंतर चलते रहने वाली एक प्रक्रिया है

अब तक 14 हेड्स ऑफ स्टेट इस पुरस्कार द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं. लेकिन क्या नोबेल पीस प्राइज़ ने दुनिया बदल दी? जवाब है नहीं. क्योंकि शांति कोई ठहराव नहीं है, ये एक लगातार होने वाली एक प्रक्रिया है. इसके लिए दुनिया के तमाम देशों के मुखियाओं को प्रोत्साहित करते रहना होगा. इस तर्क के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:

– प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1919 में अमेरिका के राष्ट्रपति थॉमस वुडरो विल्सन को ‘लीग ऑफ नेशन्स’ की स्थापना के लिए नोबल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया. बाद में ‘लीग ऑफ नेशन्स’ को भंग करके यूएन बनाया गया. यूएन को अपने कामों में भले ही सौ प्रतिशत सफलता ना मिली हो लेकिन यह कई सारे विवादास्पद मामले सुलझाने में कामयाब रहा है.

-1978 में इजिप्ट के राष्ट्रपति अनवर-अल-सादात और इज़रायल के प्रधानमंत्री मेनेकेम बिगिन को यह पुरस्कार दिया गया. दोनों नेताओं ने मिडिल ईस्ट में शांति स्थापना के समझौतों के साथ-साथ इजिप्ट और इज़रायल के बीच भी शांति की संधि पर हस्ताक्षर किए थे.

-साल 1990 में सोवियत के पहले और अंतिम राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को अमेरिका के साथ शीत युद्ध को खत्म करने के प्रयासों के लिए नोबेल पीस प्राइज से सम्मानित किया गया.

-इज़रायल के राष्ट्रपति इतिज़ाक रेबिन को साल 1994 में मिडिल ईस्ट में शांति स्थापित करने के प्रयासों के लिए यह पुरस्कार दिया गया. लेकिन इसके एक साल बाद ही 1995 में धार्मिक अंधभक्तों ने इतिज़ाक रेबिन की हत्या कर दी.

-भारत-पाक की तरह ही नॉर्थ कोरिया और साउथ कोरिया में तनाव बना रहता है. नॉर्थ कोरिया अक्सर साउथ कोरिया पर न्यूक्लियर हमले करने की धमकी देता रहता है. साल 2000 में साउथ कोरिया के राष्ट्रपति किम दाय जुंग को नॉर्थ कोरिया के साथ शांति का समझौता करने के लिए नोबेल पीस प्राइज़ दिया गया.

-साल 2016 में कोलंबिया के राष्ट्रपति जुआन मैनुअल सैंटोस कोलंबिया शांति समझौता के लिए नोबेल पीस प्राइज दिया गया. कोलंबिया में लगभग 52 साल के लंबे संघर्ष के बाद यह शांति समझौता हुआ था.

जब नोबेल पीस प्राइज़ की प्रतिष्ठा नहीं रखे हेड ऑफ ए स्टेट

ऐसा भी हुआ है कि नोबेल पीस प्राइज़ दिए जाने के बाद किसी हेड ऑफ ए स्टेट ने युद्ध किया है. अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को इंटरनेशनल डिप्लोमेसी को मज़बूत करने के प्रयासों के लिए 2009 का नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया. पुरस्कार मिलने के बाद ओबामा इराक युद्ध से बचने की कोशिश करते हुए लीबिया और सीरिया में जा फंसे. ऐसे में यह कह सकने की गुंजाइश बची रहती है कि पुरस्कार देने की वजह के साथ अगर ‘युद्ध’ शब्द जोड़ा जाता तो शायद ओबामा इस बात का लिहाज रखते.

वहीं 1991 में नोबल पीस प्राइज़ विजेता आंग सान सू ची के खिलाफ 2017 में रोहिंग्या क्राइसिस के मद्देनज़र नोबल वापस लिए जाने की मांग होने लगी. इस संबंध में नोबेल कमेटी के हेड बेरिट रीस एंडरसन ने कहा था कि रोहिंग्या क्रासिस के बाद म्यांमार की राजनेता आंग सान सू ची से नोबेल वापस नहीं लिया जाएगा. एंडरसन का कहना था कि हम ऐसा नहीं करते हैं. पुरस्कार जीतने के बाद एक व्यक्ति क्या करता है, इसकी देखरेख या सेंसर करना हमारा काम नहीं है. उस विजेता को अपनी प्रतिष्ठा खुद ही बनाए रखनी होगी.

नोबेल पीस प्राइज़ के इतिहास को देखकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इमरान खान और नरेंद्र मोदी को कश्मीर में न्यूक्लियर युद्ध टालने के लिए यह सम्मान दिया जाए. ताकि दोनों देश एक नैतिक दायित्व के तहत कश्मीर में शांति स्थापित करने के प्रयास कर सकें. अक्टूबर 2019 में जब नोबेल कमिटी विजेताओं का चयन करेगी तब तक देखना रहेगा कि भारत और पाकिस्तान क्या करते हैं.

और अगर बिना नोबेल पीस प्राइज़ के ही शांति स्थापित करनी है तो फिर गांधी बनना पड़ेगा.

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