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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतक्या मुलायम सिंह नहीं चाहते कि मायावती और अखिलेश साथ आएं?

क्या मुलायम सिंह नहीं चाहते कि मायावती और अखिलेश साथ आएं?

राजनीति सत्ता का खेल और इसमें सिद्धांतों की बात बेमानी है. मुलायम सिंह इस बात को न सिर्फ मानते हैं, बल्कि इस पर अमल भी करते हैं.

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उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने समर्थकों के बीच नेताजी के नाम से विख्यात मुलायम सिंह यादव संसद में गुलाटी मारते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बेहतर प्रधानमंत्री बताने और दोबारा उनके प्रधानमंत्री होने की शुभकामनाएं देकर फिर चर्चा में हैं.

जब समाजवादी पार्टी (सपा) इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सामने खड़ी है और अपना अस्तित्व बचाने के लिए बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की तैयारी में है, ऐसे में नेताजी का बयान लोगों को चौंकाता है. ये ज़्यादा चौंकाने वाली बात इसलिए भी है, क्योंकि नेताजी के इस बयान से एक दिन पहले ही यूपी सरकार ने अखिलेश यादव को इलाहाबाद जाने से रोक दिया था और इसका विरोध करने वाले कई सपा नेताओं पर लाठीचार्ज हुआ था और सिर फूटे थे.

मुलायम सिंह के बयान को राजनीतिक शिष्टाचार कहकर खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि चुनाव में जा रही पार्टियां कभी ऐसा शिष्टाचार नहीं दिखाती. कल्पना कीजिए कि क्या नरेंद्र मोदी राहुल गांधी को ये कहेंगे कि ‘आप अच्छा काम कर रहे हैं. आप सबको साथ लेकर चलते हैं. मैं चाहता हूं कि आप देश का प्रधानमंत्री बनें.’

हालांकि नेताजी का राजनीतिक इतिहास जानने वालों के लिए उनके पलट जाने में कोई चौंकने वाली बात नहीं है.

बेटे अखिलेश यादव और भाई शिवपाल यादव की लड़ाई में बेटे को सत्ता सौंपने वाले नेताजी अब हताश हैं. वह नहीं चाहते थे कि सपा का बसपा के साथ कोई समझौता हो. दोनों दलों में समझौता होने के महज एक हफ्ते पहले उन्होंने इस गठजोड़ के खिलाफ बोला और शिवपाल और अखिलेश के बीच मतभेद खत्म किए जाने की बात की. वे एक साथ अखिलेश और शिवपाल दोनों के मंचों पर जाते रहे हैं. वे ऐसा जानते हुए कर रहे हैं कि इस तरह उलझन फैलाने से अखिलेश यादव को कितना नुकसान हो सकता है.

अखिलेश यादव सपा और बसपा की पुरानी कड़वाहट को ढोने के पक्ष में नहीं हैं. वे राजनीति में आगे बढ़ना चाहते हैं. उनके लिए गेस्ट हाउस कांड जैसी बातों का कोई मतलब नहीं है और वे उसका बोझ ढोना नहीं चाहते. गेस्ट हाउस कांड के समय वे राजनीति में थे भी नहीं. बहनजी ने भी गेस्ट हाउस कांड को भुलाकर आगे बढ़ने का संकेत दिया है. लेकिन मुलायम सिंह के लिए शायद यह इतना आसान नहीं हैं.

मुलायम सिंह पहले भी सेक्युलर राजनीति को झटका दे चुके हैं. 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को रोकने के लिए राजद-जदयू-कांग्रेस का महागठबंधन बना. उस समय नेताजी इस महागठबंधन के नेता बने और सभी समाजवादी दलों के एक साथ आकर एक दल बना लेने की चर्चा चलने लगी. ऐन मौके पर नेताजी ने महागठबंधन से पल्ला झाड़ लिया और बीजेपी को महागठबंधन से बेहतर बता दिया था.

अगर इतिहास में जाएं तो 1989 नेताजी के उत्थान और राष्ट्रीय राजनीति में उनके कदम रखने का काल था. चंद्रशेखर उनके संरक्षकों में से एक थे. जब सेंट्रल हॉल में प्रधानमंत्री चुनने की बारी आई तो नेताजी ने विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी) का साथ दिया. इसकी वजह यह थी कि उन्हें अजित सिंह के खिलाफ यूपी का मुख्यमंत्री बनने के लिए जनता दल का समर्थन मिल गया था.

कुछ ही महीने बाद जब वीपी सिंह नेताजी के काम के नहीं रहे तो नेताजी चंद्रशेखर के पाले में चले गए, जो वीपी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही बागी हो चले थे. चंद्रशेखर मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के वीपी के फैसले के खिलाफ रहे. लेकिन नेताजी ने चंद्रशेखर का दामन थामकर वीपी की जड़ें खोदना शुरू कर दिया. नेताजी उस समय खुलकर सामने आए जब मंडल लागू होने के बाद कमंडल यात्रा लेकर निकले भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने गिरफ्तार करा लिया और भाजपा ने सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी.

वीपी सरकार गिरने के बाद 18 दिसंबर 1990 को गोरखपुर के तमकुही कोठी मैदान में जनसभा हुई, जो ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद सामाजिक न्याय के मसीहा का पहला मेगा शो था. नेताजी मुख्यमंत्री थे. पूरी कवायद की गई कि उस जनसभा को विफल किया जाए. शहर की चौतरफा नाकेबंदी कर दी गई. लोगों का शहर में पैदल प्रवेश भी वर्जित था. पिपराइच के विधायक केदारनाथ सिंह कार्यक्रम का संयोजन कर रहे थे और महाराजगंज के सांसद मार्कंडेय चंद, महाराजगंज के विधायक हर्षवर्धन सिंह, नंद किशोर सिंह आदि जी जान से जनसभा को सफल बनाने में लगे थे. ताज़ातरीन बने सवर्ण लिबरेशन फ्रंट को खुली छूट थी.

वीपी सिंह हवाई अड्डे से तमकुही मैदान पहुंचे तो विश्वविद्यालय के आसपास 4 किलोमीटर लंबी सड़क पत्थरों से भर गई. अजित सिंह का सिर फूटा. शरद यादव का बॉडीगार्ड घायल हो गया. मुफ्ती मोहम्मद सईद जब भाषण दे रहे थे तो मंच को निशाना बनाकर बम फेंका गया. उसी जनसभा में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने ऐलान किया था कि हर हाल में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा.

नेताजी उस दौर में भी कभी आरक्षण के खुले समर्थक नहीं बने. उन्हें यकीन था कि उन्हें सवर्णों का वोट मिल जाएगा और अगर मंडल कमीशन का समर्थन किया तो सवर्ण नाराज़ हो जाएंगे.

1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के गिरने के बाद नेताजी ने कांग्रेस से कहा कि वह उसे समर्थन करेंगे. उनके आश्वासन के सहारे सोनिया गांधी ने घोषणा कर दी कि उन्हें 273 सांसदों का समर्थन है. बाद में नेताजी पलट गए. इसका विस्तार से ज़िक्र आडवाणी ने अपनी पुस्तक में किया है.

2002 में सपा जन मोर्चे का हिस्सा थी, जो गैर कांग्रेस व गैर भाजपा राजनीतिक दलों का गठजोड़ था. भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने एपीजे अबुल कलाम के नाम का प्रस्ताव राष्ट्रपति पद के लिए किया. वाम दलों ने कलाम का विरोध किया और जानी मानी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कैप्टन लक्ष्मी सहगल को अपनी ओर से उम्मीदवार के रूप में उतारा. उस समय नेताजी ने आखिर समय में जन मोर्चे से अलग निकलकर कलाम का समर्थन कर दिया.

वाम दलों को धोखा देने का काम नेताजी ने 2008 में भी किया, जब उन्होंने वाम और तीसरे मोर्चे के दलों को छोड़कर भारत-अमेरिका परमाणु समझौता मामले में कांग्रेस का साथ दिया. जब प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति चुनने की बारी आई तो पहले नेता जी ने मुखर्जी का विरोध किया और ममता बनर्जी के साथ साझा प्रेस कान्फ्रेंस कर कलाम, मनमोहन सिंह या सोमनाथ चटर्जी में से किसी एक को प्रत्याशी बनाने का प्रस्ताव रखा. लेकिन सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद प्रणब मुखर्जी को समर्थन कर दिया.

तो ऐसे मुलायम सिंह यादव से इस बात की क्या शिकायत कि उन्होंने नरेंद्र मोदी के अगले प्रधानमंत्री बनने की कामना क्यों कर दी.

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