अगर राजनीतिक दलों के वादों पर भरोसा करें तो आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में परशुराम की दो भव्य और आसमान चूमती मूर्तियां स्थापित हो सकती हैं. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने ऐसी मूर्तियां लगाने की घोषणा की है. दिलचस्प है कि दोनों पार्टियां समाज सुधारक ज्योतिबा फुले की भी प्रशंसक हैं और उनके विचारों पर चलने की बात करती हैं. ऐसे में ये याद करना आवश्यक है कि फुले ने परशुराम को क्रूर, निर्दयी, हिंसक और दुष्ट कहा था.
समाजवादी पार्टी ने पिछले हफ्ते कहा कि वह उत्तर प्रदेश में परशुराम की 108 फुट ऊंची प्रतिमा लगाएगी, जिसके निर्माण का जिम्मा एक प्राइवेट ट्रस्ट संभालेगा और इसके लिए जनता से धन जुटाया जाएगा. 108 की संख्या का धार्मिक महत्व है और सपा बेशक इस बात को जानती है. इसके जवाब में बीसएपी प्रमुख मायावती ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि बीएसपी परशुराम की सपा से भी ज्यादा भव्य मूर्ति लगाएगी. बीएसपी ने कहा कि सपा ब्राह्मणों के लिए सिर्फ बातें करती है, जबकि बीएसपी ब्राह्मणों के लिए काम करती है.
जाहिर है कि दोनों पार्टियां यूपी में ब्राह्मण वोट बैंक को लुभाने की कोशिश कर रही हैं, जिनकी संख्या अलग-अलग अनुमानों (1931 के बाद जाति जनगणना की कोई रिपोर्ट नहीं आई है) के मुताबिक 5 से 9 प्रतिशत है. हो सकता है कि आने वाले दिनों में कांग्रेस भी परशुराम की मूर्ति का अपना प्लान लेकर आए, क्योंकि रूठ गए ब्राह्मण वोटरों को लुभाने की कांग्रेस भी भरसक कोशिश कर रही है. ब्राह्मण वोट पाने को लेकर आश्वस्त और उनके लिए सवर्ण आरक्षण जैसा ठोस काम करने वाली बीजेपी शायद ऐसी कोई घोषणा नहीं करेगी.
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परशुराम कौन हैं या परशुराम कौन थे?
ब्राह्मण धर्मग्रंथों में परशुराम खास समादृत और आदरणीय चरित्र के रूप में सामने नहीं आते हैं. इसलिए हम पाएंगे कि देश में परशुराम के गिने-चुने मंदिर ही हैं और उनकी मूर्तियां भी कम ही हैं. हालांकि उन्हें विष्णु के 10 अवतारों में एक माना जाता है, फिर भी भारत का एक भी प्रमुख तीर्थ क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहां प्रमुख रूप से उनकी अराधना की जाती हो. राम और कृष्ण की तरह उनकी व्यापकता हिंदू समाज में नहीं है.
लेकिन हाल के वर्षों में ब्राह्मणों के एक वर्ग ने रक्तरंजित फरसा या कुल्हाड़ी थामे क्रोधित परशुराम को अपने जातीय प्रतीक के रूप में पेश करना शुरू किया है. ऐसा लगता है कि वे अपने पूर्वजों में किसी बलशाली और आक्रामक प्रतीक की तलाश कर रहे थे और उन्हें परशुराम मिल गए. इस छवि को उन्होंने ब्राह्मणत्व का प्रतीक बना लिया. वैसे भी राम दरबार के आशीर्वाद देते पहले के राम की जगह, खुले बालों वाले क्रुद्ध अस्त्र-शस्त्र सज्जित राम ने ले ली है और भक्त हनुमान के नए बदले हुए रौद्र रूप वाले पोस्टर कारों की पीछे की स्क्रीन पर सज ही चुके हैं तो ब्राह्मण ही पीछे क्यों रह जाएं?
परशुराम की कथा
धर्मग्रंथों में परशुराम की कई कथाएं हैं और उनमें काफी विस्तार भी है लेकिन अलग-अलग स्रोतों से जानकारियां लेकर अगर परशुराम की एक छोटी सी कहानी बनानी हो तो शायद ये इस तरह होगी– भृगु ऋषि के वंश में ऋषि जमदग्नि के पुत्रों में परशुराम भी एक थे. जमदग्नि को एक बार अपनी पत्नी रेणुका के चरित्र पर संदेह हुआ तो उन्होंने अपने पुत्रों से कहा कि वे माता रेणुका का वध कर दें. उनके पुत्रों में से सिर्फ परशुराम ने अपने पिता के आदेश का पालन किया और अपनी माता का सिर धड़ से अलग कर दिया.
बाद में उन्होंने अपने पिता से निवेदन किया कि माता रेणुका को जीवित कर दिया जाए और ऋषि जमदग्नि ने ये कर दिया. एक और प्रसंग में एक क्षत्रीय राजवंश के साथ टकराव में जमदग्नि की हत्या कर दी जाती है. क्रुद्ध परशुराम ने इसके बाद फरसा उठाया और 21 बार धरती को क्षत्रीय विहीन कर दिया. रामायण में परशुराम का जिक्र सीता स्वयंवर में आता है, जब राम ने परशुराम का धनुष तोड़ दिया. नाराज परशुराम राम को युद्ध के लिए ललकारते हैं लेकिन राम से वे हार जाते हैं और इसके बाद से कोंकण क्षेत्र की ओर प्रस्थान कर जाते हैं.
ये समझ से परे है कि इस पौराणिक चरित्र को ब्राह्मण 21वीं सदी में अपनी जाति के प्रतीक पुरुष के तौर पर क्यों स्थापित कर रहे हैं, जबकि इससे पहले किसी भी ब्राह्मण चिंतक या नेता ने ऐसा नहीं किया था. यूपी के राजनीतिक दल अगर ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्हें भी ब्राह्मण समुदाय के बेहतर प्रतीक चुनने चाहिए.
सपा और बसपा का परशुराम प्रेम ज्यादा आश्चर्यजनक इसलिए है क्योंकि ये दोनों पार्टियां 19वीं सदी के समाज सुधारक ज्योतिबा फुले की विचारधारा से भी खुद को प्रभावित बताती हैं. ज्योतिबा फुले ने परशुराम को लेकर क्या-क्या लिखा है, ये हम आगे पढ़ेंगे.
बीएसपी तो अपने स्थापना काल से जिन बहुजन महापुरुषों की विचारधारा की बात करती है, उनमें बुद्ध, बाबा साहेब आंबेडकर, शाहूजी महाराज और फुले प्रमुख हैं. बीएसपी का कोई भी बैनर फुले की तस्वीर के बिना नहीं बनता. बीएसपी के समय बने हर स्मारक और पार्क में फुले की प्रतिमा मौजूद है. 1997 में मुख्यमंत्री बनने पर मायावती ने रुहेलखंड विश्वविद्यालय का नाम ज्योतिबा फुले के नाम पर रखा और अमरोहा जिले का नाम ज्योतिबाफुले नगर कर दिया.
सपा का ज्योतिबा फुले प्रेम कुछ देर से जगा. शुरुआती दिनों में तो सपा सरकार ने ज्योतिबा फुले नगर जिले का नाम बदलकर फिर से अमरोहा कर दिया था लेकिन अब वो ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी शिक्षाशास्त्री सावित्रीबाई फुले को याद करने का कोई मौका नहीं गंवाती.
महान समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले जी की पुण्यतिथि पर आत्मिक नमन!
— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) November 28, 2019
ये दिलचस्प है कि दोनों पार्टियां एक साथ फुले और परशुराम को साध रही हैं. ये लगभग वैसा है कमाल है जो बीजेपी गांधी, गोडसे, आंबेडकर और सावरकर को एक साथ साधकर करती है. असंभव को संभव कर दिखाने की कला अगर बीजेपी दिखा सकती है, तो बाकी दलों को भी शायद ऐसा करने का अधिकार है!
परशुराम को लेकर फुले के विचार
फुले ने जिन पौराणिक चरित्र के बारे में सबसे ज्यादा लिखा है, उनमें बलिराजा, वामन और परशुराम हैं. परशुराम को लेकर फुले के पास तारीफ का एक शब्द भी नहीं है.
आगे मैं फुले के जिन विचारों को उद्धृत कर रहा हूं, वो उनकी मराठी में लिखी गई किताब गुलामगिरी (1873) के अंग्रेजी अनुवाद Slavery से लिए गए हैं. इसे पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद इस उद्देश्य से किया गया था, ताकि नेल्सन मंडेला जब 1991 में भारत यात्रा के दौरान मुंबई पहुंचें तो उन्हें इसे भेंट किया जा सके. महाराष्ट्र सरकार ने इसे इंग्लिश में 1991 में ही प्रकाशित किया. वैसे नेल्सन मंडेला मुंबई नही पहुंच पाए और ये किताब उन्हें भेंट नहीं की जा सकी. इस अनुदित पुस्तक की भूमिका महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने लिखी है. आगे के शब्द फुले की किताब से हैं-
1. ‘परशुराम ने क्षत्रियों (भारत के मूल निवासियों) का नरसंहार किया. उसने लाचार महिलाओं से उनके बच्चे छीन लिए और उनका वध कर दिया. वह एक कदम और आगे बढ़ गया. उसने यहां-वहां भागती फिर रहीं गर्भवती क्षत्रीय महिलाओं को खोज निकाला और उन्हें कैद कर लिया. जब उसे पता चलता कि उन्होंने किसी बच्चे को जन्म दिया है, परशुराम वहां आता और उन्हें मार डालता. (पेज– xlvi)
2. ‘अब तक के पूरे इतिहास में परशुराम जैसा स्वार्थी, बदनाम, क्रूर और अमानवीय दूसरा चरित्र खोज पाना मुश्किल है. उसकी हिंसा के सामने नीरो, अलारिक (जिसने रोम का नाश किया था) और मेकियावेली के कर्म फीके पड़ जाते हैं.’ (पेज -xxxi)
3. ‘स्वभाव की बात करें तो परशुराम उद्दंड, दुष्ट, ह्रदयहीन, मूर्ख और निष्ठुर था. वो अपनी मां की हत्या करने में भी नहीं हिचकिचाया.’ (पेज-27)
4. ‘स्थानीय राजा दशरथ के पुत्र रामचंद्र ने परशुराम के बहुत मजबूत बताए जा रहे धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी और भरे दरबार में धनुष को तोड़ दिया. इसके बाद उनका सीता से ब्याह हो गया. इससे परशुराम के मन में जलन पैदा हुई. रामचंद्र जब पत्नी सीता के साथ घर लौट रहे थे तो परशुराम ने उन्हें रास्ते में रोका और युद्ध के लिए ललकारा. रामचंद्र ने उसे आसानी से हरा दिया. हार से दुखी परशुराम ने अपना राजपाट त्याग दिया और दक्षिण में कोंकण चला गया, जहां ऐसा कहा जाता है कि वह अपने पिछले कर्मों के लिए दुख मनाता रहा और माना जाता है कि उसने आत्महत्या कर ली. (पेज-29)
5. फुले ने तो परशुराम को एक खुला पत्र भी लिखा था – प्रिय बड़े भाई परशुराम, ब्राह्मणों ने अपने ग्रंथों के जरिए ऐसा फैला रखा है कि तुम अमर हो…इसलिए मुझसे बचने या भागने की कोशिश मत करो. अगर इस सूचना के छह महीने के अंदर तुम मेरे सामने प्रस्तुत हो जाते हो, तो मैं ही नहीं, दुनिया भर के लोग तुम्हें आदि-नारायण का अवतार मानकर तुम्हारा आदर करेंगे. अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो इस धरती के महार और मांग तुम्हारे विविधज्ञानी भक्त ब्राह्मणों का पर्दाफाश कर देंगे.’ (पेज 30-31)
ज्योतिबा फुले, एक समाज सुधारक
कोई कह सकता है कि 19वीं सदी के समाज सुधारक फुले एक पौराणिक कथा के चरित्र परशुराम के बारे में इतना विश्लेषण क्यों कर रहे थे. कथाओं में तो किसी के भी कर्मों को अतिरेक में यानी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है और ये सभी देशों और धर्मों में हो सकता है. फिर फुले परशुराम या अन्य धार्मिक प्रतीकों को लेकर क्यों बात कर रहे थे?
दरअसल फुले उस दौर में आम भारतीयों, खासकर नीची मानी गई जातियों के लोगों और किसानों की दशा को लेकर चिंतित थे और मानते थे कि इसकी सबसे बड़ी वजह जाति व्यवस्था है. उनकी राय में जाति व्यवस्था के चलते रहने की सबसे बड़ी वजह शूद्रों की मानसिक गुलामी है. इसलिए वे धार्मिक पाखंड, अवतारवाद और पोंगापंथ की कड़ी आलोचना करते हैं और धर्म ग्रंथों का वैकल्पिक पाठ प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि शूद्रों की दासता की वजह इन ग्रंथों में है.
पहली नजर में लग सकता है कि फुले ब्राह्मण विरोधी हैं लेकिन ये सच नहीं है. गुलामगिरी पुस्तक के अनुवादक और स्वयं एक सत्यशोधक रहे प्रोफेसर पी.जी. पाटील लिखते हैं कि – फुले सिर्फ आलसी, निठल्ले, लालची और भुक्खड़ पुजारी वर्ग द्वारा स्थापिक शोषणमूलक व्यवस्था के आलोचक हैं, जिनका दावा है कि वे देवता के अवतार हैं और ये कहकर जो अज्ञानी लोगों का शोषण करते हैं.’
फुले की भारतीय दर्शन परंपरा में व्यापक स्वीकृति है और उनके प्रशंसक अलग-अलग विचार परंपराओं में हैं. मिसाल के तौर पर, डॉ. बी.आर. आंबेडकर तो उनसे इतने प्रभावित थे कि उन्होंने फुले को अपने गुरुओं में एक माना और अपनी किताब शूद्र कौन थे फुले को समर्पित की. उन्होंने समर्पण में लिखा – ‘फुले आधुनिक भारत के महानतम शूद्र थे, जिन्होंने समाज के निचले वर्गों में रखे गए लोगों को उनकी गुलामी का एहसास कराया और बताया कि विदेशी शासन से मुक्ति से भी पहले जरूरी है कि समाज में लोकतंत्र स्थापित किया जाए.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फुले के समाज सुधार और शिक्षा के क्षेत्र में किए गए कार्यों के प्रशंसक हैं.
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Tributes to Mahatma Phule on his Jayanti. His pioneering and relentless emphasis on social reform greatly helped the marginalised. He was unwavering in his commitment towards improving the condition of women and furthering education among the youth.
— Narendra Modi (@narendramodi) April 11, 2018
भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद लिखते हैं कि फुले “महान राष्ट्र निर्माता” थे.
Homage to Mahatma Jyotiba Phule on his birth anniversary. An iconic nation builder, his efforts towards social reform, women's education, and freedom from caste prejudice remain an inspiration for us #PresidentKovind
— President of India (@rashtrapatibhvn) April 11, 2018
भारत सरकार ने ज्योतिबा फुले की याद में एक डाक टिकट जारी किया है. देश में कई संस्थानों के नाम फुले के नाम पर हैं. ज्योतिबा फुले की जीवनसंगिनी और शिक्षाशास्त्री सावित्रीबाई फुले के नाम पर पुणे विश्वविद्यालय का नाम रखा गया है.
ये दुखद है कि मायावती और अखिलेश फुले का नाम तो लेते हैं लेकिन उन्होंने फुले की रचनाओं को ठीक से पढ़ा नहीं है, वरना वे ब्राह्मण समाज को साथ लाने के लिए किसी बेहतर प्रतीक को स्थापित करते.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और व्यक्त विचार निजी हैं)
ज्योतिबा फुले को महान बताने वालों के विरोधभासी लेख से ही पता चलता है कि स्वयं ज्योतिबा फुले और उनके अनुयायियों के मन में कितना ब्राह्मण विद्वेष है। जिन ब्राह्मणों को निठल्ला निकम्मा बता रहे हैं उन्हीं से जलन भी रख रहे हैं। जो निठल्ला निकम्मा होगा उससे किसी को भी डरने की जरूरत नहीं होती है। वह तो स्वयं कमजोर होगा। और दुनिया में कमजोर से कोई द्वेष नहीं रखता। जलन रखने वाली मानसिकता के लोग भी विकास शील और बहादुर लोगों से जलते हैं। यदि निठल्ले निकम्मे ही थे/ हैं तो उनसे प्रतिस्पर्धा में डर कैसा। किसी भी निकम्मे व्यक्ति/ सम्प्रदाय का समाज के विकास या परिचालन में न कोई योगदान न कोई हस्तक्षेप हो सकता है। इस दृष्टि से ज्योतिबा फुले और उनके अनुयायियों के कथनानुसार समाज में फैली कुरीतियों के लिए ब्राह्मण को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। और यदि ब्राह्मण वर्ग का समाजवाद पर इतना प्रभाव था कि उन लोगों ने समाज को दिशा निर्देशित किया तो वो निकम्मे नहीं हो सकते। तो कहीं यह अपने निकम्मेपन को ढकने के लिए एक कर्मठ सशक्त समुदाय विशेष को निशाना बनाने का षड्यंत्र तो नहीं। उसी तथाकथित निठल्ले समुदाय विशेष से सबको इतना डर है कि सभी लोग मिलकर विरोध करने पर तुले हुए हैं। परन्तु प्रतिस्पर्धा से डरते हैं। भारतीय संविधान के अनुसार किसी समुदाय विशेष को दान देने की अनिवार्यता नहीं है। हर व्यक्ति स्वाधीन है किसी ब्राह्मण को अपने घर न बुलाने या किसी भी प्रकार का पूजा पाठ न करवाने के लिए। फिर भी शिकायत रहती है कि ब्राह्मण हमारी भिक्षा पर आश्रित हैं। एक तरफ तो आप अपने आप को दलित दयनीय स्थिति वाला बताते हैं दूसरी तरफ अपने आप को ब्राह्मण का पालन कर्ता बताते हैं। यह विरोधाभासी वक्तव्य आपही के हैं। सच तो यह है कि न ब्राह्मण वर्ग ने कभी समाज में वैमनस्यता घोली है और न ही ब्राह्मण कमजोर है। ब्राह्मण ने तो सदैव समाज के उत्थान की बात सोची है और मानवमात्र के कल्याण हेतु कर्तव्यरत रहा है। ब्राह्मण ने सदैव सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: और वसुधैव कुटुंबकम् को ही अपना मूलमंत्र माना है और उसीपर कार्यरत रहा है।