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Thursday, 19 December, 2024
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गुरु रविदास की परंपरा और उनसे जुड़ी निशानियों को बचाना क्यों ज़रूरी

गुरु-संत परंपरा से जुड़े स्थल तमाम तरह के प्राचीन ज्ञान के श्रोत भी रहे हैं, जिसमें जड़ी-बूटियों से लेकर संगीत तक का ज्ञान शामिल है.

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दिल्ली के तुगलकाबाद स्थित गुरु रविदास के आश्रम यानी गुरुघर को सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केंद्र सरकार के शहरी विकास मंत्रालय के अधीन आने वाले दिल्ली विकास प्राधिकरण ने तोड़ दिया. प्राधिकरण का कहना है कि यह आश्रम जंगल की ज़मीन पर बना था, इसलिए इसका निर्माण अवैध था. यह एक अजीब बात है कि जिस दिल्ली की सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर किसी न किसी देवी-देवता के मंदिर बनते जा रहे हैं और मौजूदा अवैध धार्मिक स्थल बड़े होते जा रहे हैं, उस दिल्ली में विकास प्राधिकरण को जंगल में स्थित गुरु रविदास का आश्रम ही अवैध नज़र आया. ख़ैर आश्रम तोड़े जाने के बाद पंजाब, हरियाणा, दिल्ली समेत देश-विदेश में विरोध-प्रदर्शन हुआ, जिससे यह मामला सुर्ख़ियों में बना हुआ है. विवाद बढ़ने पर केंद्र सरकार के शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी कह रहे हैं कि सरकार आश्रम कहीं और बनवा देगी. जबकि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि मंदिर उसी जगह बने और केंद्र सरकार अगर वह जमीन रविदासिया लोगों को दे देती है, तो मंदिर बनाने का खर्च दिल्ली सरकार उठाएगी.

इस पूरे घटनाक्रम से सवाल उठता है कि आधुनिक भारत में गुरु रविदास और उनसे जुड़ी संत परंपरा के प्रतीकों को बचाने की ज़रूरत क्यों हैं? ऐसे कौन से कारण है जिससे कि गुरु रविदास जैसे संतो-गुरुओं की परंपरा से जुड़े प्रतीक ख़तरे में आते जा रहे हैं? इन संतों-गुरुओं की परंपरा से जुड़े प्रतीकों को बचाने के लिए क्या क़दम उठाए जाने चाहिए?

गुरु रविदास को ‘संत शिरोमणि’ की उपाधि मिली थी, जिसका मतलब है कि वो संत परंपरा में भी सबसे ऊंचे हैं. हालांकि गुरु-संत परंपरा में एक दूसरे को ऊंचा स्थान देने का रिवाज रहा है, इसलिए जब इस लेख में गुरु रविदास की बात की जा रही है, तो उसे इस परंपरा से जुड़े सभी संतों-गुरुओं के लिए माना जाए. ऐसे पांच कारण नज़र आते हैं, जिसकी वजह से गुरु रविदास से जुड़ी परंपरा को बचाने की ज़रूरत है.

भारत की आधुनिकता के प्रेरणा श्रोत

मध्यकाल की शुरुआत में आरम्भ हुई गुरु-संत परंपरा को भारत में आधुनिकता की शुरुआत करने वाला माना जाता है. इस बात की तस्दीक करने के लिए प्रो गेल ओम्वेट की किताब ‘सीकिंग बेगमपुरा’ यानी ‘बेगमपुरा की चाह’ में पढ़ा जा सकता है. आधुनिकता का यह विचार पश्चिम के इतिहासकारों के विचार से काफ़ी अलग है जो कि आधुनिकता की शुरुआत यूरोप से मानते हैं. पश्चिमी विचारकों के अनुसार बारहवीं सदी में प्राचीन यूनान की किताबों की खोज की वजह से ‘नवजागरण’ की शुरुआत हुई, जिसने आगे चलकर आधुनिकता की नींव रखी. उपनिवेशवाद के माध्यम से आधुनिकता दुनिया के अलग-अलग देशों में पहुंची.

इस प्रक्रार पश्चिमी विचारक उपनिवेशवाद को सही ठहराते थे, क्योंकि इससे बाक़ी की दुनिया के सभी समाज आधुनिक बन रहे थे. इसके विपरीत विचारधारा यह कि मध्यकाल की शुरुआत में ही आधुनिकता दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अपने तरीक़े से आ रही थी, जिसमें भारत में उसका आगमन संतों-गुरुओं की परंपरा के माध्यम से हो रहा था. इस प्रकार यदि देखें तो गुरु-संत परंपरा पश्चिम के ज्ञान की श्रेठता को चुनौती देती है.

आत्मनिर्भरता का प्रतीक

गुरु रविदास की ज्ञान परंपरा विभिन्न समूहों को आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देती है. आत्मनिर्भरता को इस तरीक़े से समझा जा सकता है कि सनातन धर्मी व्यवस्था में श्रम का विभाजन कर दिया जाता है, जिसके तहत मानसिक श्रम (पढ़ना, लिखना आदि) को शारीरिक श्रम (खेती किसानी, मज़दूरी) से ऊपर स्थान दे दिया जाता है. अपनी इस बुराई के कारण सनातन व्यवस्था असमानता को जन्म देते हुए विभिन्न सामाजिक समूहों को एक दूसरे पर निर्भर बना देती है या जिसमें शारीरिक श्रम करने वालों को ज्ञान से वंचित रखा जाता है. गुरु रविदास से जुड़ी संत परंपरा ने इस व्यवस्था को चुनौती दी और हर किसी को दोनों तरह के श्रम करने की शिक्षा दी. इसी वजह से ख़ुद गुरु रविदास सामाजिक चेतना का काम करते हुए चमड़े का काम करके रोज़ी चलाते थे वहीं, उनके समकालीन गुरु कबीर सूत कातते थे.


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ब्राह्मणवाद या जाति व्यवस्था का विरोध

गुरु रविदास की परंपरा भारतीय समाज में बुराइयों की जड़ ब्राह्मणवाद पर सतत प्रहार करने की प्रेरणा देती है. ब्राह्मणवाद का अर्थ किसी जाति विशेष की आलोचना करना नहीं है, बल्कि एक ज्ञान परंपरा की आलोचना करना है जो कि पुरोहितवाद, पुनर्जन्मवाद, कर्म-फल सिद्धांत, काल्पनिक ईश्वरवाद, प्राचीन धर्म ग्रंथों को सर्वोच्च ज्ञान का श्रोत मानने जैसे चीज़ों को बढ़ावा देती है. ख़ुद गुरु रविदास इस तरह की ज्ञान परंपरा की कड़ी आलोचना करते थे. आज के समय में टीवी और इंटरनेट जैसे संचार माध्यमों के तीव्र विकास की वजह से ब्राह्मणवादी ज्ञान परंपरा फ़िल्मों, टीवी सीरियलों और न्यूज़ चैनलों के माध्यम से घर घर में पहुंच रही है, इसलिए रविदास जैसे संतों की वाणी का महत्व और बढ़ गया है.

जातियों में एकजुटता लाने के प्रतीक

भारत का समाज जातियों में बंटा है, जिसकी झलक हमें गुरु रविदास के इस कथन में मिलती है कि ‘जाति-जाति में जाति है, तिन केलन के पात, रविदास न मनुख बन सके, जब तक जाति न जात’. छोटी-छोटी जातियों में बंटे भारतीय समाज को और भी बांटने के तमाम तरीके हैं, लेकिन उनको एक दूसरे से जोड़ कर एक समाज बनाने के लिए बहुत कम तरीक़े हैं. गुरु रविदास और उनसे जुड़ी संत परंपरा जिसमें कबीर, घासीदास, चोखमेला, नंदनार, तुकाराम, आदि आते हैं, का उपयोग करके जातियों में बंटे इस समाज को जोड़ा जा सकता है. मान्यवर काशीराम ने ऐसी ही कोशिश करके बहुजन समाज बनाने का सपना देखा था, जो कि उनके परिनिर्वाण के बाद अधूरा रह गया है.

दैनिक जीवन में ज्ञान के श्रोत का संधान

गुरु-संत परंपरा से जुड़े स्थल तमाम तरह के प्राचीन ज्ञान के श्रोत भी रहे हैं, जिसमें जड़ी-बूटियों से लेकर संगीत तक का ज्ञान शामिल है. इस परंपरा से जुड़े संगीत को हम कबीर के दोहों के गायन से लेकर पंजाब में गीतों के प्रचलन से समझ सकते हैं. सूफ़ी संगीत भी इसी तरह की परंपरा से निकला है. गायन की विधा और जड़ी-बूटियों आदि के ज्ञान का संरक्षण इस परंपरा से जुड़े मठ और कुटिया काफ़ी समय से करते आ रहे थे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में वह ख़ुद विलुप्त होते जा रहे हैं.

इस परंपरा से जुड़े मठों एवं कुटियों की समाप्ति दो तरफ़ा हमले की वजह से हो रही है. पहला हमला ब्राह्मणवादी शक्तियों के माध्यम से हो रहा है, क्योंकि यह ज्ञान परम्परा इन मठों को अपने लिए चैलेंज मानती रही है. इस हमले में संस्कृतिकरण का शिकार हो रहे ग़ैर-सवर्ण भी शामिल हैं, जो ख़ुद संतों-गुरुओं की परंपरा से जुड़े रहे थे.


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दूसरे तरीक़े का हमला आधुनिक दलित आंदोलन ने भी किया है, जो कि अपनी नासमझी की वजह से मठों एवं कुटियों को ब्राह्मणवाद के चपेट में आया बता कर खारिज कर देता है. इस वजह से भी लोगों ने इन मठों और कुटियों से दूरी बना ली है. इसकी बानगी हम उत्तर भारत में कबीर से जुड़े स्थलों जिसमें मगहर में उनकी समाधि तक शामिल है, की हालत को देखकर समझ सकते हैं, जो कि घोर उपेक्षा का शिकार है. सिर्फ़ पंजाब ऐसा राज्य है, जहां दलित आंदोलन से जुड़े लोग गुरु रविदास से जुड़े स्थलों पर नियमित अंतराल पर जाते हैं, जिसकी वजह से दिल्ली का रविदास मंदिर टूटने पर वहां सबसे पहले और ज़्यादा प्रदर्शन हुए, बाक़ी का उत्तर भारत काफी समय तक ख़ामोश रहा.

आख़िरी सवाल है कि संतों-गुरुओं से जुड़ी परंपरा को बचाने के लिए क्या क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है. इसका एक समाधान है कि सरकार इनको बचाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाए, लेकिन उससे भी जरूरी यह है कि इन परंपराओं से जुड़े लोग ख़ासकर दलित-पिछड़े समाज के नेता और बुद्धिजीवी, जिनको इन परंपराओं की ज़रूरत है, इनसे जुड़े ऐतिहासिक स्थलों पर रेगुलर जाएं और इस परंपरा को प्राणवान बनाए रखें.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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