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Thursday, 26 December, 2024
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गंदगी ढोने का जरिया बन चुकीं नदियों का जीना-मरना चुनावी मुद्दा क्यों नहीं

इंग्लैंड की यॉर्क यूनिवर्सिटी द्वारा दुनिया भर की नदियों पर हाल में ही किये गये शोध से खुलासा हुआ है कि अब नदियों के जल के लिए पैरासिटामोल, निकोटिन व कैफीन के अलावा मिर्गी और मधुमेह आदि की दवाएं भी खतरा बनती जा रहीं हैं.

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पहले चुनाव आते थे तो आम लोगों के रोटी, कपड़ा और मकान कहें या उनके जीवन निर्वाह से जुड़े मुद्दों पर सार्थक चर्चाएं हुआ करती थीं. पार्टियां व प्रत्याशी मतदाताओं को इन मुद्दों से जुड़ी अपना नजरिया व नीतियां समझाते नहीं थकते थे. साथ ही बार-बार अपीलें करते थे कि मतदाता बूथों पर जायें तो किसी के बहकावे में न आएं और इन मुद्दों के आधार पर ही वोट दें.

लेकिन अब चुनाव आते हैं, तो जानबूझकर ऐसे मुद्दों को हाशिये में डालकर कुछ बहकाने वाले मुद्दों को आगे ला दिया जाता है और सारी बहसें उन्हीं के इर्द-गिर्द सिमटा दी जाती हैं. ताकि मतदाताओं की जातियां व धर्म आगे आ जायें और उनके कौआरोर में किये जाने वाले इमोशनल अत्याचार से वे इतने त्रस्त हो जायें कि ‘अपनी जाति’ व ‘अपने धर्म’ से आगे सोच ही न सकें. फिर उन्हीं के आधार पर सरकार चुन लें और फुर्सत से पश्चाताप करते रहें.

इन दिनों हो रहे विधानसभा चुनावों में इसकी सबसे बड़ी नजीर यह है कि पंजाब में पीने के पानी के जहरीले हो जाने की जटिल होती जा रही समस्या वहां मतदान के दिन तक मुद्दा नहीं बन पाई. यह तब था, जब कभी पांच नदियों के पानी के लिए जाने जाने वाले इस प्रदेश में जहरीला पानी पीने की मजबूरी के शिकार अनेक नागरिक कैंसर से पीड़ित होकर त्रासद मौतों के शिकार हो रहे हैं. और जब यह समस्या मुद्दा ही नहीं बन पाई तो इसी पर चर्चा क्यों होती कि उसके पीछे बीती शताब्दी के 7वें दशक में हरित क्रांति लाने की कोशिशों के दौरान अत्यधिक अनाज उगाने के लिए अपनाई गई कृषि पद्धति है, जो रासायनिक उर्वरकों पर कुछ ज्यादा ही निर्भर है और अब अपना विकल्प तलाशे जाने की मांग करती है.

लेकिन सच पूछिये बात इतनी-सी ही नहीं है. पंजाब में विधानसभा चुनाव खत्म हो चुके हैं और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी उसके तीन चरण सम्पन्न हो चुके हैं, तो भी मानव जीवन की रेखा कही जाने वाली नदियों से उनका ही जीवन छीन लेने पर आमादा प्रदूषण न सत्तापक्ष के लिए चुनाव का कोई मुद्दा है, न ही विपक्षी दलों के लिए. भले ही नदियां न केवल लोगों की प्यास बुझाती आई हों, बल्कि उनकी आजीविका का माध्यम भी हों. साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र और भूजल के स्तर को बनाए रखने में भी बड़ा योगदान देती हों.


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एक जानकार के शब्द उधार लें तो आज जो नदियां मैल व गन्दगी ढोने को अभिशापित हैं, वे धरती पर अपने अवतरण के वक्त से ही जीवन बांटती आई हैं. खास तौर पर मनुष्य की बात करें तो उसका जीवन मरण किस तरह नदियों पर निर्भर है, इसे यों समझ सकते हैं कि मनुष्य के मरणोपरांत उसके शारीरिक अवशेष भी नदियों में बहाए जाते हैं.

ऐसे में कायदे से होना तो यह चाहिए था कि लगातार बढ़ते जा रहे प्रदूषण के कारण अस्तित्व के खतरे झेल रही नदियों और उनके बहाने मानव जीवन को पैदा हो रहे अंदेशों पर भरपूर चर्चा होती. इस कारण और कि इंग्लैंड की यॉर्क यूनिवर्सिटी द्वारा दुनिया भर की नदियों में दवाओं के अंशों का पता लगाने के लिए हाल में ही किये गये शोध से खुलासा हुआ है कि अब नदियों के जल के लिए पैरासिटामोल, निकोटिन व कैफीन के अलावा मिर्गी और मधुमेह आदि की वे दवाएं भी खतरा बनती जा रही हैं, जिनके अंश लापरवाही से नदियों के हवाले कर दिये जा रहे हैं. किसी एक देश में नहीं, प्रायः दुनिया भर में. अमेरिका की प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज द्वारा प्रकाशित की गई इस शोध की रिपोर्ट में इस स्थिति को पर्यावरण के साथ ही मानव स्वास्थ्य के लिए भी घातक बताया गया है.

दवाएं भी नदियों को कर रही हैं दूषित

यॉर्क यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने इस शोध के लिए 104 देशों में नदियों की शहरों व कस्बों के नजदीक बहने वाली 1,052 साइटों से उनके पानी के नमूने एकत्रित किये और उनमें सक्रिय 61 दवाओं के अंशों (एपीआई) का परीक्षण किया, तो पाया कि दवा निर्माण संयंत्रों से निकले दूषित जल, बिना उपचार के सीवेज के पानी, शुष्क जलवायु और कचरा निपटान के तरीके का नदियों के पानी को प्रदूषित करने में योगदान लगातार बढ़ रहा है. हां, जिन देशों में आधुनिक दवाओं का इस्तेमाल कम होता है या उनके अंशों के अत्याधुनिक दूषित जल उपचार का ढांचा और नदियों में पर्याप्त बहाव है, वहां वे दवा प्रदूषण से अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं.

दवाओं से नदी जल प्रदूषण की समस्या इसलिए भी जटिल हो रही है क्योंकि ज्यादातर देशों में दवा उद्योग से निकले प्रदूषित जल के निपटान के कानून बने तो हैं लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा.

लेकिन अपने देश के सिलसिले में इसकी बात करें तो हम पाते हैं कि अभी इसे लेकर न सरकारें ठीक से सजग हैं और न ही लोग इतने जागरूक कि इसे लेकर सरकारों पर दबाव बना सकें. जहां तक राजनीतिक दलों की बात है, जब वे चुनावों के वक्त भी ऐसी समस्याओं को चर्चा के केन्द्र में नहीं लाना चाहते तो उनकी वास्तविक मंशा समझने के लिए और कौन से तथ्यों की जरूरत है?

बिना जनदबाव के इन दलों को क्या फर्क पड़ता है अगर कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाये जा रहे रसायन, उर्वरक और भूमि कटाव के साथ दवाओं में प्रयुक्त हो रहे रसायन भी नदी जल को दूषित करने वाले कारकों में शामिल हो जायें. इसे लेकर वोट की चोट के बगैर वे क्योंकर समझने लगे कि नदियां महज जल-मार्ग नहीं हैं, वे बरसात की बूंदों को सहजेती हैं और धरती की नमी बनाये रखती है. जलवायु में हो रहे बदलाव में नदियां ही धरती पर जीवन का आधार हैं और उनमें बहता पानी मनुष्य की सांस की सीमा भी तय करता है.

लेकिन उनकी इस उदासीनता से नदियों को सहेजने का कार्य प्राथमिकता के आधार पर किये जाने की जरूरत तो कम होने से रही क्योंकि यह तथ्य अपनी जगह बना रहने वाला है कि हिमालय के उद्गम स्थल से समुद्र में समाने तक हजारों किलोमीटर की यात्रा के दौरान नदियों को जो सैकड़ों मानवीय, कायदे से कहें तो अमानवीय, अत्याचार झेलने पड़ते हैं, उनसे उन्हें निजात नहीं मिली तो अब न वे खुद को बचा पायेंगी और न ही मानव जीवन की रक्षा में अपनी भूमिका निभा पायेंगी.

इसलिए अब, जब सीवर और उद्योगों का केमिकल युक्त कचरा ही नदियों के प्राणों में जहर नहीं घोल रहा और नाना प्रकार के इंसानी कचरे ही उन्हें चोटिल नहीं कर रहे, बल्कि दवाओं में इस्तेमाल हो रहे रसायनों के अंश भी उन पर कहर बरपाने लगे हैं, सिविल सोसाइटी को यह समझने की जरूरत है कि इससे नदियों के जलीय जीवों का जीवन ही नहीं, मनुष्य का जीवन भी खतरे में पड़ेगा. इसलिए इसका हर संभव प्रतिकार आज और अभी से शुरू करने की जरूरत है. सिविल सोसाइटी ने अभी भी इसके लिए सत्तातंत्र पर दबाव नहीं बनाया और सब कुछ राजनीतिक दलों व सरकारों की इच्छा और मंशा पर ही छोड़े रखा, तो कौन कह सकता है कि हालात वैसे ही नहीं होंगे, जैसे गंगा की सफाई के मामले में हुए है?

एक अनुमान के अनुसार आजादी के बाद से अब तक गंगा की सफाई के नाम पर 20 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किये जा चुके हैं. अप्रैल, 2011 में गंगा सफाई की सात हजार करोड़ की एक योजना बनायी गयी थी. इसके लिए विश्व बैंक से एक अरब डॉलर का कर्ज भी लिया गया था. सरकार बदली तो ‘नमामि गंगे’ का भी कुछ कम जोर नहीं रहा, लेकिन न तो गंगा में पानी की मात्रा ही अपेक्षित स्तर तक बढ़ी और न ही प्रदूषण में उल्लेखनीय कमी आ पाई है.
ऐसे में यह सवाल और बड़ा हो जाता है कि ऐसी कर्तव्यहीनता के जोखिम हम आगे और कितने वक्त तक उठा और उसकी कितनी कीमत चुका सकते हैं?

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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