देश में असुरक्षित तरीके से गर्भपात की वजह से गर्भवती महिला और उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण की असमय मृत्यु की घटनाओं पर अंकुश लगाने और अपरिहार्य परिस्थितियों में सुरक्षित गर्भपात सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक गर्भ का चिकित्सीय समापन कानून, 1971 (एमटीए) में संशोधन के प्रति सरकार की उदासीनता चिंताजनक है. यह मुद्दा पिछले छह साल से अधर में लटका हुआ है.
नरेन्द्री मोदी सरकार ने उच्चतम न्यायालय के सुझावों के मद्देनजर 49 साल पुराने गर्भ का चिकित्सीय समापन कानून में संशोधन का एक बार फिर निर्णय लिया है. सरकार ने इससे पहले 2014 में भी इसी तरह का निर्णय लिया था जबकि 2017 में स्वास्थ्य मंत्री ने बाकायदा लोकसभा को इस कानून में संशोधन के प्रस्ताव के बारे में जानकारी भी दी थी.
कानून में इस संशोधन के माध्यम से विशेष परिस्थितियों में कानूनी रूप से गर्भ के समापन की अवधि 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 सप्ताह करने का प्रावधान है. ये विशेष परिस्थितियां यौन शोषण की वजह से गर्भधारण करना, अथवा गर्भ में भ्रूण के किी अनुवांशिक बीमारी या विकृति से ग्रस्त होने की स्थिति में 24 सप्ताह तक के गर्भ का समापन हो सकेगा.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के कार्यकाल में दूसरी बार गर्भ का चिकित्सीय समापन कानून, 1971 में संशोधन करने का निर्णय लिया गया है. इससे पहले, सरकार ने अक्टूबर, 2014 में भी इस कानून में संशोधन करने का निर्णय लिया था, लेकिन इसे मूर्तरूप नहीं दिया जा सका था.
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इस कानून में संशोधन कर यह प्रावधान करने का प्रस्ताव है कि 20 सप्ताह तक का गर्भ होने की स्थिति में इसके समापन के लिये सिर्फ एक विशेषज्ञ की राय जरूरी होगी परंतु विशेष श्रेणी में आने वाली महिलाओं के मामले में 20 से 24 सप्ताह के गर्भ के समापन के लिये ऐसे दो सेवा प्रदाताओं की राय जरूरी होगी. इस कानून में यह संशोधन करने का भी प्रस्ताव है कि गर्भ समापन की अधिकतम अवधि उन मामलों में लागू नहीं होगी जिनमें मेडिकल बोर्ड को भ्रूण में किसी प्रकार की विक्रति का पता चला है.
इस समय गर्भ का चिकित्सीय समापन कानून की धारा तीन (2) के अनुसार विशेष परिस्थितियों में अधिकतम 20 सप्ताह तक के भ्रूण का ही गर्भपात कराया जा सकता है. इस कानून में सिर्फ 20 सप्ताह तक के ही गर्भ के गर्भपात की अनुमति होने की वजह से कई बार गर्भावस्था के दौरान अविकसित अथवा गंभीर विकृति से भ्रूण के ग्रस्त होने या यौन शोषण का शिकार किसी मानसिक रूप से कमजोर महिला के गर्भवती होने जैसी परिस्थितियों में 20 सप्ताह से अधिक की अवधि के गर्भ का समापन कराने की अनुमति के लिये मामले उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायलाय में आते रहे हैं.
चूंकि कानूनी प्रावधान के तहत 20 सप्ताह से अधिक अवधि के भ्रूण का गभपात कराना वर्जित है, इसलिए न्यायालय को हर बार मानवीय दृष्टि से विचित्र स्थिति से रूबरू होना पड़ रहा था और इस स्थिति से निपटने के लिये उसे बार बार चिकित्सा बोर्ड गठित करके उसकी राय के आधार पर ही निर्णय लेने पड़ रहे थे.
स्थिति की गंभीरता को देखते हुये अब उच्चतम न्यायालय ने भी महसूस किया था कि सरकार और संसद को गर्भ के चिकित्सीय समापन कानून में निर्धारित 20 सप्ताह की अवधि में बदलाव करने पर नये सिरे से विचार करना चाहिए ताकि किसी भी महिला के गर्भ में असाध्य बीमारी से ग्रस्त भ्रूण का 20 सप्ताह बाद भी गर्भपात कराने की उसे अनुमति दी जा सके. इस तरह की परिस्थितियों में गर्भ में पल रहे भ्रूण की वजह से मां और बच्चे दोनों के जीवन को खतरा बना रहता है और भावी मां निरंतर एक अज्ञात भय से जूझ रही होती है.
स्थिति की गंभीरता को देखते हुये राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी 2013 में इस कानून में संशोधन करके गर्भ समापन की अवधि 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 सप्ताह करने की सिफारिश की थी. आयोग की इस संबंध में की गयी सिफारिश के आधार पर सरकार ने अक्टूबर 2014 में गर्भ के चिकित्सीय समापन कानून में संशोधन के लिये एक मसौदा भी तैयार किया था लेकिन ऐसा लगता है कि उस समय यह बात आगे नहीं बढ़ सकी थी.
नरेन्द्र मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल के दौरान तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने मार्च 2017 को लोकसभा को सूचित किया था कि बलात्कार पीड़ित, नाबालिग, तलाकशुदा, विधवा और एकल महिला सहित कुछ श्रेणियों की महिलाओं के मामले में गर्भपात कराने की अवधि बढ़ाने के लिये इस कानून में संशोधन का प्रस्ताव था.
इस बीच, राज्यसभा में डॉ. कंवर दीप सिंह ने 4 अगस्त, 2017 को गर्भ का चिकित्सीय समापन कानून में संशोधन कर गर्भपात की अवधि 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 सप्ताह करने के लिये एक निजी विधेयक पेश किया था.
इसी तरह, लोकसभा में 22 जनवरी, 2018 को श्रीरंग अप्पा बर्नी ने 22 जनवरी, 2018 को 27 सप्ताह तक की अवधि के गर्भ समापन का प्रावधान करने के लिये कानून में संशोधन के लिये निजी विधेयक पेश किया था.
हालांकि मौजूदा कानूनी प्रावधानों के बावजूद मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के मद्देनजर कई मामलों में न्यायालय ने 20 सप्ताह की अवधि के बाद भी गर्भपात की अनुमति दी है. लेकिन हर बार ऐसा संभव नहीं होता है. कई बार तो स्थिति यह होती है कि बलात्कार की शिकार महिला को अपने इस अनचाहे गर्भ को इस कानूनी प्रावधान की वजह से भी गिराने की अनुमति नहीं मिलती है और अंततः उसे यौन शोषण अथवा गंभीर अनुवांशिक बीमारी या विकृति से ग्रस्त बच्चे को अनिच्छा से ही जन्म देना पड़ता है.
ऐसी ही एक घटना 2017 में उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में आयी थी जिसमें बिहार में मानसिक रूप से विक्षिप्त महिला के गर्भवती होने और उसकी स्थिति की गंभीरता को देखते हुये उसका गर्भपात कराने की अनुमति मांगी गयी थी. इस मामले में बलात्कार की शिकार 35 साल की यह महिला एचआईवी से ग्रस्त थी और गर्भ के 17वें सप्ताह में उसने सरकार से गर्भपात कराने की अनुमति मांगी थी. लेकिन यह मामला पटना उच्च न्यायालय से होता हुआ जब उच्चतम न्यायालय पहुंचा तो गर्भ में भ्रूण 24 सप्ताह से भी अधिक अवधि का हो चुका था.
न्यायालय ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुये एम्स के चिकित्सकों का बोर्ड गठित किया और उसी की राय के आधार पर शीर्ष अदालत ने यौन शोषण की शिकार इस महिला को 26 सप्ताह के गर्भ का समापन करने की अनुमति देने से इंकार कर दिया लेकिन उसने बल्कि बिहार सरकार को इस पीड़िता को तीन लाख रुपए की आर्थिक मदद देने का आदेश दिया. मेडिकल बोर्ड की राय थी कि इस अवस्था में गर्भपात की अनुमति देने से महिला और गर्भ में पल रहे बच्चे की जिंदगी को खतरा हो सकता है.
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इसी तरह के एक अन्य मामले में कोलकाता की एक युवती को जब 21वें सप्ताह मे पता चला कि उसके गर्भ में पल रहा भ्रूण गंभीर विकृति से ग्रस्त है तो उसने गर्भपात की अनुमति के लिये पहले उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. इस महिला के मामले में तो एक चिकित्सक की राय थी कि गर्भ में पल रहा बच्चा शायद पहली शल्य क्रिया भी बर्दाश्त नहीं कर सकेगा. इस मामले में भी न्यायालय ने मेडिकल बोर्ड गठित किया है और उसकी रिपोर्ट के आधार पर जुलाई, 2017 में महिला को गर्भ समापन की अनुमति दी थी.
उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार गर्भ का चिकित्सीय समापन संशोधन विधेयक, 2020 को संसद के बजट सत्र में ही पारित करायेगी ताकि गर्भ में पल रहे बच्चे के किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त होने अथवा किसी अन्य विकृति के कारण उसकी या गर्भवती महिला की जान को उत्पन्न जोखिम के मद्देनजर ऐसे मामलों में गर्भ समापन की अनुमति के लिये लोगों को बार-बार न्यायालयों के चक्कर नहीं लगाने पड़ें.