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Wednesday, 20 November, 2024
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आरएसएस रजिस्टर्ड संस्था क्यों नहीं है, रजिस्टर्ड होने के क्या हैं नुकसान?

आरएसएस इसके लिए बाध्य नहीं है कि वह किसी सरकार को अपना लक्ष्य, उद्देश्य और कार्यक्षेत्र बताता फिरे और अपने आय-व्यय का हिसाब देता फिरे. बाकी एनजीओ के लिए ये सब फांस है.

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सुप्रीम कोर्ट के दो बड़े वकीलों इंदिरा जयसिंह और आनंद ग्रोवर के घर और दफ़्तरों पर सीबीआई के छापे पड़े हैं. इंदिरा जयसिंह यूपीए सरकार में भारत की प्रथम महिला एडिशनल सॉलिसीटर जनरल रह चुकी हैं. मानव अधिकार और लैंगिक अधिकारों के मामलों में वे खासी सक्रिय रही हैं. केंद्र की मौजूदा सरकार के खिलाफ कई मुकदमों में पैरवी करती रही हैं. वरिष्ठ अधिवक्ता नामित किए जाने की प्रकिया के मामले में वो सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ ही मुकदमा लड़ चुकी हैं. एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की कड़ी आलोचना के कारण भी वे चर्चा में थीं. वे उन वकीलों में हैं, जिनकी कोर्ट रूम में उपस्थिति सत्ता पक्ष को असहज बनाती है.

इंदिरा जयसिंह सरकार के निशाने पर

मौजूदा दौर की राजनीति की एक खास विशेषता बनती जा रही है कि जब एक बार आपकी राजनीतिक विचारधारा या निष्ठा तय हो जाती है और आपकी निष्ठा सरकार और सत्ता के पक्ष में नहीं है, तो आपको किसी भी प्रकार हमला झेलने के लिए तैयार रहना पड़ता है. पुलिस, न्यायपालिका और अन्य जांच एजेंसियों का दुरुपयोग ऐसे मामलों में आम होता जा रहा है. इंदिरा जयसिंह के खिलाफ चल रही जांच के मेरिट में न जाते हुए भी ये तो जाहिर है, कि इंदिरा जयसिंह के खिलाफ जो कार्रवाई हुई है, उसने किसी को चौंकाया नहीं होगा.

आखिर इंदिरा जयसिंह इससे कैसे बच सकती थीं? करीब तीन साल पहले जब इंदिरा जयसिंह और उनके पति आनंद ग्रोवर की संस्था ‘लॉयर्स कलेक्टिव’ का एफसीआरए लाइसेंस यानी विदेशी अनुदान लेने की अनुमति को केन्द्रीय गृह मंत्रालय के आदेश से रद्द किया गया था, तो वह रविवार का दिन था. कुछ संस्थाएं और लोग इतने महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि सप्ताह में पांच दिन काम करने वाली केन्द्र सरकार के बाबू रद्दीकरण का आदेश टाइप करने के लिए रविवार को भी विशेष रूप से दफ़्तर खोल देते हैं.

लेकिन इस पूरे प्रकरण में जो एक बात समझने की है. वह यह है कि इंदिरा जयसिंह और आनंद ग्रोवर जैसे दिग्गज वकील जब अपने एनजीओ के जंजाल में फंसकर सरकार द्वारा निशाना बनाए जाने का रोना रो सकते हैं, तो देश में चल रहे बाकी 32 लाख छोटे-मोटे एनजीओ की क्या बिसात कि वे सरकार के खिलाफ चूं भी बोल सकें?


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एनजीओ और सरकार के अंतर्संबंध

भारत में एनजीओ का पंजीकरण 1860 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बनाए गए सोसाइटीज़ रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत होता है. इस कानून के अंतर्गत आपको अपनी संस्था का एक बाय-लॉज़ तैयार करना होता है. जिसमें उस संस्था के नियम-उपनियम, कार्यक्षेत्र, संचालन का स्वरूप, लक्ष्य और उद्देश्य आदि का वर्णन करना होता है. इसके बाद आप पंजीकरण प्राधिकारी के पास जाकर मामूली शुल्क देकर उसका पंजीकरण करवाते हैं.

लेकिन, पंजीकरण के बाद आपके लिए बाध्यकारी होता है कि आप अपनी संस्था के कामकाज की सालाना रिपोर्ट संबंधित प्राधिकारी को सौंपें. इसके अलावा, भले ही नॉन-प्रॉफिट होने की वजह से आपको आयकर से छूट हासिल हो. लेकिन, फिर भी सालाना आयकर रिटर्न आपको भरना पड़ता है. यदि आप चाहते हैं कि आपको दान या चंदा देनेवाले व्यक्ति को भी आयकर की छूट मिले तो एक निश्चित अवधि के बाद आप आयकर अधिनियम के धारा 12-ए और 80-जी इत्यादि के लिए आवेदन कर सकते हैं. इसी तरह विदेशी एजेंसियों या दानदाताओं से चंदा प्राप्त करने के लिए आपको ‘विदेशी चंदा (नियमन) अधिनियम’ या एफसीआरए के तहत केंद्रीय गृह मंत्रालय में पंजीकृत होना होता है.

एनजीओ यानी सरकार के चंगुल में फंसने का रास्ता

सुनने में तो यह सब बहुत अच्छा लगता है. लेकिन, वास्तविकता में यही सबसे बड़ी फांस है. जिसके माध्यम से नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) और सामाजिक आंदोलनों का समूचा ढांचा कई स्तरों पर प्रभावित होता है. किसी समय ‘एनजीओ’ और ‘नॉन-प्रोफिट’ कहलाने या होने की बजाए ये संस्थाएं वालंटियरी या स्वयंसेवी संस्थाएं कहलाना और होना पसंद करती थीं. लेकिन रजिस्ट्रेशन, 12-ए, 80-जी और एफसीआरए के प्रलोभनों में पड़कर ये संस्थाएं इस कदर धनाकांक्षी होती चली गईं कि इनमें स्वयंसेवा का उत्साह और आंदोलन की प्रेरणा समाप्त होती गई.

इसलिए, आज ये स्वयंसेवी संस्थाएं कहलाती जरूर हैं, लेकिन सच्चे मायने में होती नहीं हैं. उन्हें या तो सरकारों और दानदाता एजेंसियों ने को-ऑप्ट कर अपना पिछलग्गू बना लिया है या फिर अपने विरोधी के रूप में चिह्नित कर अलग-थलग कर दिया है. कइयों को तो जिला प्रशासन ही ताव में आकर काली-सूची में डाल देता है. लाखों की संख्या में संस्थाएं खुद ही निष्क्रिय होकर लंबी नींद में सोई रहती हैं और जैसा कि कहा जाता है कि अब तो दहेज में भी एनजीओ दिया जाता है.

एनजीओ के बाय-लॉज की मनमानी व्याख्या संभव

बहरहाल, ऐसी जेनुइन संस्थाएं, जो सचमुच समाज में कुछ अर्थपूर्ण करना चाहती हैं, वे भी अपने मूल बाय-लॉज़ में जो उद्देश्य, लक्ष्य और कार्यक्षेत्र इत्यादि लिखती हैं, वह इतना सब्जेक्टिव या व्यक्तिनिष्ठ होता है कि संस्था और सरकार दोनों ही उसकी मनोनुकूल व्याख्या कर सकती हैं. शासन के पास यही सबसे बड़ा हथियार होता है, जिसका राजनीतिक इस्तेमाल वो जब चाहे कर सकता है. अब आप लड़ते रहिए. सरकारी छापेमारी और प्रोपगेंडा को झेलते रहिए. इंदिरा जयसिंह हैं तो शायद लड़ भी सकती हैं, जीत भी सकती हैं, लेकिन बाकी संस्थाएं क्या करें?

इसके अलावा गैर-सरकारी संस्थाओं की सफलता-विफलता भारतीय राज्य के वर्गीय और जातिगत चरित्र से भी तय होती है. टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी दलीय राजनीति ने इसे और भी जटिल बना दिया है. इसलिए भारत में सामाजिक आंदोलनों और गैर-दलीय राजनीतिक आंदोलनों के मामले में फंडिंग-आधारित एनजीओ मॉडल बुरी तरह से विफल हो चुका है. बल्कि, एनजीओ मॉडल ने आंदोलनों की स्वतःप्रेरणा को पूरी तरह समाप्त कर दिया है.

संघ ने खुद को एनजीओ के तौर पर रजिस्टर होने से बचाया

तो फिर रास्ता क्या है? दूर जाने की जरूरत नहीं है. आज यह किसी से छिपा नहीं है कि भारत की मौजूदा सरकार कोई राजनीतिक पार्टी नहीं चला रही. बल्कि उसकी बागडोर खुद को एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन कहने वाली संस्था – आरएसएस के हाथों में है. लेकिन सुधि पाठकों को संभवतः मालूम भी हो कि इस संस्था की सफलता का एक रहस्य यह भी है कि इसने अब तक अपना पंजीकरण नहीं कराया है. नागपुर में एक आंबेडकरवादी संस्था से जुड़े जनार्दन मून ने अपनी संस्था को आरएसएस नाम से रजिस्टर कराने की कोशिश की तो ये मामला मुकदमेबाजी में उलझ गया.


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बहरहाल, आरएसएस इसके लिए बाध्य नहीं है कि वह किसी सरकार को अपना लक्ष्य, उद्देश्य और कार्यक्षेत्र बताता फिरे और अपने आय-व्यय का हिसाब देता फिरे. इस बारे में लगातार सवाल उठते रहे हैं, पर आरएसएस इनसे बेपरवाह है. इस संस्था की वेबसाइट के मुताबिक वर्तमान में इसके 68 लाख से भी अधिक सदस्य हैं, हालांकि यह उनका भी कोई आधिकारिक हिसाब-किताब नहीं रखती. इसके सारे काम स्वयंसेवक ‘स्वयंसेवा’ की भावना से करते हैं. इसलिए यह वेतन कर्मियों की फौज नहीं है. इसलिए इसे पीएफ और ग्रच्युटी का हिसाब भी नहीं रखना पड़ता है. संगठन को चलाने के लिए धन भी अनौपचारिक स्रोतों से आता है जिसे ‘गुरुदक्षिणा’ कहा जाता है. यह इसका आंतरिक हिसाब-किताब तो रखती है, लेकिन, किसी सरकार को इसका हिसाब देने के लिए बाध्य नहीं है. आप ऐसी संस्था पर प्रतिबंध लगाकर ही क्या कर लेंगे? जिसका कोई खाता ही नहीं, उसका खाता कैसे फ्रीज़ करेंगे? चूंकि विदेशी चंदा लेने के लिए उसने कोई एफसीआरए लाइसेंस लिया ही नहीं है, इसलिए इसका लाइसेंस भी रद्द नहीं किया जा सकता.

सफलता का रहस्य तो किसी से भी सीखना चाहिए. भारत में यदि अब भी स्वतंत्र जनांदोलन या सामाजिक कार्य की संभावना बची है, तो वह पंजीकरण इत्यादि से बचकर ही संभव है. उसके लिए धन का इंतजाम भी छोटे-बड़े व्यक्तिगत योगदानों या अनौपचारिक क्राउड-फंडिंग से ही करना होगा. नेतृत्वकारी भी तभी चल पाएंगे जब वे स्वावलंबी और शासनमुक्त होंगे.

जब उनका जीवन अपरिग्रही और सादा होगा. गांधी की एक तस्वीर खासी लोकप्रिय है जिसमें वह लगभग खुल चुकी ट्रेन की खिड़की से हाथ निकाले चंदा मांग रहे हैं और एक गरीब आदमी दौड़ता हुआ अपनी इकन्नी उनकी हथेली पर रख रहा है. ऐसी इकन्नियों में हज़ारों डॉलरों से भी अधिक ताकत होती है और जालिम सरकारें भी उसके आगे बेबस होती हैं.

(लेखक गांधीवादी विचारक हैं.यह उनके निजी विचार हैं)

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