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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतSC में क्यों नहीं हो सकी अकील कुरैशी की नियुक्ति, माई लॉर्ड से थोड़ी और पारदर्शिता की उम्मीद

SC में क्यों नहीं हो सकी अकील कुरैशी की नियुक्ति, माई लॉर्ड से थोड़ी और पारदर्शिता की उम्मीद

कॉलेजियम की निष्पक्षता पर लोगों को भरोसा है लेकिन यही बात कार्यपालिका के लिए नहीं कही जा सकती जिसमें शक्तिशाली नेता भी शामिल हैं.

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पिछले शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने जब सीबीआई को निर्देश दिया कि वह अदालतों और हाई कोर्ट्स में अपनी सफलता दर के बारे में आंकड़े पेश करे, तो सत्ता के गलियारे में बैठे कई लोगों को सांप सूंघ गया होगा. लेकिन आम लोगों का सीना इसलिए चौड़ा हो गया कि सर्वोच्च न्यायपालिका ने आखिर हस्तक्षेप तो किया. अब यह जांच एजेंसी आंकड़ों से साबित करे कि उसकी जांच और मुकदमेबाजी का जो अंतहीन सिलसिला चलता रहता है, खासकर राजनीतिक मामलों में, उसके पीछे कोई सियासी मकसद नहीं होता बल्कि वह ऐसे मामले को तार्किक अंत तक पहुंचाने की उसकी गंभीर कोशिश होती है.

यह मनमोहन सिंह सरकार के जमाने की, 2013 की बात है जब सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को अपने मालिक की बोली बोलने वाला ‘पिंजरे का तोता’ कहकर फटकारा था. इसके आठ साल बाद, नरेंद्र मोदी सरकार के सातवें साल में मद्रास हाई कोर्ट को ‘पिंजरे में कैद तोते को रिहा करने’ का निर्देश देना पड़ा है.

लेकिन इस जांच एजेंसी के लिए अब तक कुछ भी नहीं बदला है, सिवा मालिकों के.

सीबीआई जिन मामलों की जांच करती है उनमें करीब 65 फीसदी मामलों में ही वह सजा दिलवा पाती है लेकिन जघन्य मामलों में उसका रिकॉर्ड निराशाजनक है. ‘आरुषि तलवार को किसी ने नहीं मारा’ जैसी सुर्खियां अभी उसे शर्मसार कर ही रही थीं कि एक और सुर्खी बनने वाली है- सुशांत सिंह राजपूत की मौत: सीबीआई नहीं जानती यह खुदकशी है या हत्या. जरा सोचिए, भारत की अग्रणी जांच एजेंसी एक साल की तफतीश के बाद भी इस अभिनेता की मौत की वजह का पता नहीं लगा पाई है.

लेकिन केवल सीबीआई पर ही उंगली क्यों उठाएं? ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय द्वारा दर्ज मामलों में भी सजा दिलाने की सफलता दर को देखिए. याद कीजिए केरल के मसाला बोंड्स मामले में केरल इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट फंड बोर्ड (केआईआईएफबी) से जुड़े एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी को भेजे गए विवादास्पद समन को. यह 2021 के विधानसभा चुनाव से पहले की बात है. केआईआईएफबी के अधिकारियों ने इस समान की अनदेखी कर दी और चुनाव हो जाने के बाद ईडी भी उन्हें भूल गया.

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और क्या आपको याद है कि 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले ईडी ने एक बैंक घोटाले में शरद पवार के खिलाफ मामला दायर किया था? चुनाव खत्म हो जाने के बाद किसी ने इसकी चर्चा नहीं सुनी. 2016 में, तत्कालीन राजस्व सचिव हसमुख अधिया ने ईडी के अधिकारियों से साफ-साफ कहा था कि हवाला के धंधे के मामलों में सजा दिलवाने में उनकी एजेंसी का रिकॉर्ड ‘बहुत…बहुत खराब’ है. इसके पांच साल बाद भी इसमें खास फर्क नहीं आया है.

इसलिए, यह अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट हमारी जांच एजेंसियों के कामकाज में ज्यादा पारदर्शिता के लिए दबाव बना रहा है. यह न्यायपालिका में लोगों के भरोसे को और मजबूत करेगा.


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देरी और भेदभाव

फिल्म ‘जॉली एलएलबी-2’ में जज की भूमिका निभाने वाले अभिनेता सौरभ शुक्ला ने जो डायलॉग बड़ी खूबी से बोला है वह देश के भरोसे को ही जाहिर करता है- ‘आज भी हिंदुस्तान में जब कहीं दो लोगों के बीच झगड़ा होता है ना, कोई विवाद होता है, तो एक-दूसरे से क्या कहते हुए पाए जाते हैं? आई विल सी यू इन कोर्ट (तुम्हें अदालत में देख लूंगा). क्यों करते हैं भाई वो ऐसा? क्योंकि आज भी लोग भरोसा करते हैं… न्यायपालिका का.’

इसी संदर्भ में मैं न्याय व्यवस्था की कुछ अधिक पारदर्शिता की बात उठा रहा हूं. उदाहरण के लिए, सांसदों, विधायकों के खिलाफ सीबीआई या ईडी ने जो मामले दर्ज किए हैं, जिनमें कई तो दशक भर से लटके पड़े हैं, उन्हें गुप्त क्यों रखा जाए? पिछले महीने भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.बी. रमन्ना ने ऐसे मामलों की सूची हासिल की लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया गया.

यह तो समझ में आता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी जानकारियों को सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन क्या सांसदों और विधायकों के खिलाफ दायर मामलों को भी? क्या लोगों को सूचना का अधिकार नहीं मिलना चाहिए? यह कोई पहली बार नहीं हुआ है कि न्यायपालिका ने महत्वपूर्ण जानकारियां ‘सीलबंद लिफाफे’ में रख दी है.

पिछले सप्ताह न्यायपालिका में कई नियुक्तियां हुईं, सुप्रीम कोर्ट में 9 और हाई कोर्ट्स में 68 नये जज नियुक्त किए गए. वास्तव में, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की आपत्तियों को रद्द करते हुए हाई कोर्ट्स के लिए 12 नाम दोबारा दिए, जिसने न्यायपालिका की स्वतंत्रता में लोगों के भरोसे को और बढ़ाया ही.

लेकिन कानून के कुछ जानकारों की ओर से बेचैन करने वाली कुछ आवाज़ें भी उभरीं. वे सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किए गए न्यायाधीशों की इस सूची में त्रिपुरा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अकील कुरैशी को शामिल न किए जाने पर असंतुष्ट थे.

न्यायमूर्ति कुरैशी न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अखिल भारतीय सूची में दूसरे नंबर पर हैं. 2019 में सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने उनकी पदोन्नति करके मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने की सिफारिश की थी. लेकिन सरकार की आपत्तियों के मद्देनजर उन्हें त्रिपुरा हाई कोर्ट में फिर से नियुक्त कर दिया गया था. अब उन्हें सुप्रीम कोर्ट से अलग रखा गया है.

एक कानूनदां ने मुझसे कहा, ‘इससे यह गलत संदेश जाता है कि सत्ताधारियों के आगे तन कर खड़े होने वालों को पदोन्नति नहीं दी जा सकती है.’ उन्होंने बताया कि न्यायमूर्ति कुरैशी जब गुजरात हाई कोर्ट में थे तब 2010 में अमित शाह को, जो आज केंद्रीय गृह मंत्री हैं, सीबीआई की हिरासत में डाल दिया था. प्रसिद्ध वकील ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने एक न्यायाधीश की पदोन्नति को कार्यपालिका के साथ उनके विवाद को मुद्दा न बनाते हुए ठीक फैसला किया था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में खाली पदों पर नियुक्ति करना जनहित में था.

सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाले कॉलेजियम के अध्यक्ष प्रधान न्यायाधीश रमन्ना कार्यपालिका को अनावश्यक महत्व देने के लिए नहीं जाने जाते हैं. उनकी अध्यक्षता वाली एक पीठ ने पिछले वर्ष जनवरी में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था कि इंटरनेट की सुविधा एक मौलिक अधिकार है और सरकार को इस बात के लिए फटकारा था कि उसने 2019 में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द करने के साथ ही दूरसंचार की सुविधा भी वापस ले ली थी.

इसलिए, पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किए गए नौ न्यायाधीशों में न्यायमूर्ति कुरैशी को शामिल न किए जाने के पीछे कोई अटकल लगाना ठीक नहीं होगा. यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि सर्वोच्च न्याय व्यवस्था लोगों की धारणा या अटकलों पर कोई ध्यान देगी. लेकिन समय आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम नियुक्तियों में और पारदर्शिता लाए.

लोग अभी भी अटकलें लगा रहे हैं कि वरिष्ठ वकील सौरभ कृपाल को दिल्ली हाई कोर्ट में अब तक क्यों नहीं नियुक्ति किया गया है जबकि कॉलेजियम ने चार साल पहले ही इसकी सिफारिश की थी. क्या इसकी वजह यह तो नहीं है कि मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, वे समलैंगिक हैं और एक यूरोपीय उनके पार्टनर हैं? इस बारे में न तो सरकार की तरफ से और न सुप्रीम कोर्ट की तरफ से कोई खुलासा किया गया है. न्यायपालिका में नियुक्तियों में देरी या भेदभाव के कई रहस्यमय उदाहरण मौजूद हैं जो लोगों के मन में अटकलों और आशंकाओं को जन्म देते हैं.


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थोड़ी और पारदर्शिता चाहिए

हम जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम वकीलों या न्यायाधीशों की नियुक्ति या प्रोन्नति करने से पहले उनकी योग्यताओं और रिकॉर्ड पर विचार करता है. लेकिन सत्ता में बैठे नेताओं के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती. कानूनदांओं के बीच यह चर्चा चल पड़ी है कि सरकार नियुक्तियों की सिफारिशों को टालने के लिए किस तरह उन पर कुंडली मार कर बैठी रहती है ताकि कॉलेजियम किसी की दोबारा सिफारिश करे तब तक उसकी वरिष्ठता खत्म हो जाए. यह तो माना जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट का कॉलेजियम यह खुलासा नहीं कर सकता कि उसने क्या चर्चा की या किसी वकील अथवा न्यायाधीश के पक्ष या विपक्ष में सिफारिश करने के पीछे क्या कारण थे.

कॉलेजियम की निष्पक्षता पर लोगों को भरोसा है लेकिन यही बात कार्यपालिका के लिए नहीं कही जा सकती जिसमें शक्तिशाली नेता भी शामिल हैं और उसकी प्राथमिकता न्याय पर नहीं भी हो सकती है.

सरकार की आपत्तियों का खुलासा करने से सुप्रीम कोर्ट क्यों परहेज करता है, इसे भी समझा जा सकता है. इससे संबंधित व्यक्ति को अपना काम करने में परेशानी हो सकती है. लेकिन लोगों को यह जानने का अधिकार है कि ऐसी आपत्तियां न्याय के हक में की गई हैं या राजनीतिक वजहों से.

समय आ गया है कि सर्वोच्च न्यायालय ऐसे ब्योरों का खुलासा करने के लिए एक समयसीमा तय करे, जो 10 या 20 साल बाद की हो सकती है.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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