एक चीज है ‘लिंडी प्रभाव’, जिसका अर्थ यह है कि किसी विचार या टेक्नोलॉजी का प्रभाव तब तक रहता है जब तक वह जीवित रहती है. इसकी प्रासंगिकता इस बात से समझी जा सकती है कि धर्म या विचारधारा (मसलन पूंजीवाद, समाजवाद) से जुड़े कुछ विचार तमाम प्रतिकूलताओं और प्रकट चुनौतियों के बावजूद किस तरह बचे रहे हैं. ‘लिंडी प्रभाव’ नाम न्यूयॉर्क में स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ बेचने वाली दुकान के नाम पर पड़ा है, जहां कुछ हास्य कलाकार जमा होते थे और अपने शो की शुरू के कुछ सप्ताहों की लोकप्रियता के आधार पर यह अटकलें लगाया करते थे कि वह शो कितने लंबे समय तक चल पाएगा.
इस साल अपने 100 वर्ष पूरे कर रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) इस ‘लिंडी प्रभाव’ का एक बड़ा उदाहरण है. जो संगठन तीन बार (1948, 1975, कूर 1992 में) राजनीतिक रूप से प्रतिबंधित किए जाने, देश-विदेश में लगातार कलंकित किए जाने, सामाजिक परिवर्तनों के थपेड़ों को झेलने के बाद भी बचा रहा हो उसे एक बड़ी मिसाल ही माना जा सकता है. एक शतक लगाने के बाद संघ अब दूसरे शतक तक (या कम-से-कम उसके बड़े हिस्से तक), जब तक कि वह भविष्य में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार खुद को बदलने के लिए तैयार हो तब तक सक्रिय रहने के रास्ते पर बढ़ रहा है.
लेकिन सवाल यह है कि, जब कई विशाल संगठन और अरबों डॉलर का मुनाफा कमाने वाले कॉर्पोरेशन रातोरात लुप्त हो जाते हैं, तब संघ किस वजह से बचा रहा है, खासकर तब जबकि उसके इर्दगिर्द दुनिया नाटकीय रूप से बदल गई है?
यह इसलिए बचा रहा है क्योंकि यह सबसे अलग तरह का संगठन है, यह कोई कॉर्पोरेट नहीं है और इसकी कोई विधि सम्मत पहचान नहीं है, हालांकि इसके फ्रंट (मुखौटे) संगठनों की ऐसी पहचान है. यह एक विचार पर आधारित है और इसका प्रकट लक्ष्य मानव निर्माण, व्यक्ति चरित्र निर्माण, और राष्ट्र को सामाजिक सेवा प्रदान करना है.
मकसद और आलोचना
इसकी स्थापना केशव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में नफपुर में की थी. इसके वर्तमान प्रमुख, सरसंघचालक मोहन भगवत इसके 100 वर्षों में इसके छठे ही प्रमुख हैं. हिंदुत्व के मार्ग के इसके दूसरे साथी (मसलन हिंदू महासभा, रामराज्य पार्टी, और जनसंघ तक जिसने 1977 में खुद को भंग करने के कुछ समय बाद ही भाजपा के रूप में नया अवतार लिया) तो अचानक उभरे भी और सिकुड़े भी लेकिन संघ केवल जैविक रूप से मजबूत होता रहा. इस तरह उसके मूल उद्देश्य की शुद्धता बनी रही.
इसके 100 वर्षों के दौरान न केवल इसके विरोधियों ने, बल्कि वी.डी. सावरकर, सीताराम गोयल से लेकर संजीव केलकर (जिन्होंने 2011 में ‘लॉस्ट इयर्स ऑफ दि आरएसएस’ लिखी) तक इसके कुछ वैचारिक सहयोगियों ने भी इसकी आक्रामक रूप से आलोचना की. आज भी, सोशल मीडिया पर संघ के सबसे तीखे हिंदू आलोचक इसे एक लुंज-पुंज संगठन मानते हैं, जिसमें हिंदुत्व या हिंदुओं के अधिकारों के प्रति गहरे समर्पण का अभाव है.
संघ पर हमला करना इस वजह से भी आसान है कि हाल वह एक अपारदर्शी संगठन बना रहा है. लेकिन भागवत के नेतृत्व में यह बदल रहा है. उन्होंने न केवल संगठन के भीतर के लोगों को संघ के बारे में किताबें लिखने को प्रोत्साहित किया है बल्कि मुस्लिम बुद्धिजीवियों समेत ‘सिविल सोसाइटी’ से संवाद भी शुरू किया है. अब तक संघ के बाहर के जिन लेखकों ने पठनीय पुस्तकें लिखी है उनमें वाल्टर के. एंडरसन के दो ग्रंथ ‘द ब्रदरहुड इन सैफ्रन (1987) और ‘आरएसएस : अ व्यू टु द इनसाइड’ (2018) हैं जो श्रीधर दामले के साथ मिलकर लिखे गए हैं. संघ के रतन शारदा ने भी कई किताबें लिखी है, जो संगठन तथा विभिन्न मसलों के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में बहुत कुछ बताती हैं. सचिन नांधा ने हेडगेवार की जो विशद जीवनी ‘हेडगेवार: ए डेफ़िनिटिव बायोग्राफी’ लिखी है वह भी गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करती है.
साफ है कि समस्या इसके राजनीतिक आलोचकों को लेकर है, जो इसे समझे बिना उसकी निंदा करना चाहते हैं. यह कहना आसान है कि संघ काँग्रेस के नेतृत्व वाले राष्ट्रवादी आंदोलन का केंद्रीय आधार नहीं था, लेकिन कोई बी.आर. आंबेडकर के बारे में यह क्यों नहीं कहता? संगठनों और नेताओं के लिए राजनीतिक आजादी से ज्यादा बड़े लक्ष्य हो सकते हैं. संघ के लिए बड़ा लक्ष्य हिंदू समाज को ताकतवर बनाना था, आंबेडकर के लिए सामाजिक सुधार बड़ा लक्ष्य था. लेकिन यह उन दोनों को आजादी विरोधी नहीं बना देता.
संघ के दूसरे, करिश्माई सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर ने जो कड़वा बयान दिया था कि भारत में मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जाना चाहिए, उस बयान के आधार पर इसकी छीछालेदर की जा सकती है. लेकिन भागवत ने इस विवाद को 2018 में एक सभा में यह कहकर शांत कर दिया था (हालांकि आलोचक उसे शांत नहीं होने देना चाहते) कि इस विषय पर गोलवलकर के विचारों को संघ अब प्रासंगिक नहीं मानता. संघ के आलोचकों और मुख्यधारा की मीडिया का दोमुंहापन उजागर हो गया है, क्योंकि हम स्टालिन या माओ जैसे जनसंहारकों के बारे में वामपंथियों के जो विचार हैं उनके लिए इस कसौटी को लागू नहीं करते.
दरअसल, तमाम संगठन समय के साथ बदलते भी हैं, और संघ ने भी शायद खुद को बदला है. लेकिन इसका जो अतीत रहा है वह आज इस पर राजनीतिक हमले करने के लिए इसके आलोचकों को आसानी से हथियार उपलब्ध कराता है.
आरएसएस क्या चाहता है
संघ के कुछ वरिष्ठ नेताओं से थोड़ी बातचीत और रतन शारदा की किताबों के अध्ययन के बाद मैं संघ के वास्तविक स्वरूप को लेकर निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुंचा हूं.
एक तो यह कि यह कोई धार्मिक नहीं बल्कि राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक सामंजस्य के विचारों से ज्यादा जुड़ा हुआ संगठन है.
दूसरे, इसके आलोचकों के विचारों के विपरीत, यह अपने ‘फ्रंट’ तथा सहयोगी संगठनों के मामलों में तब तक हस्तक्षेप नहीं करता या उन्हें परोक्ष रूप से नियंत्रित नहीं करता जब तक वे संघ से मार्गदर्शन की जरूरत नहीं महसूस करते. कुछ साल पहले प्रवीण तोगड़िया के नेतृत्व में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) जब कट्टरपंथी हिंदुत्व की ओर झुक रहा था तब संघ ने उसमें दखल दिया था, और आज भी वह जरूरत पड़ने पर भाजपा के साथ विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है. लेकिन अंतिम फैसला इसके अग्रणी संगठनों या सहयोगियों का होता है.
तीसरे, अपने ‘फ्रंट’ संगठनों के साथ संघ अपने मातहत संगठन वाला व्यवहार नहीं करता बल्कि उन्हें ऐसे विचार के रूप में देखता है जिसे बढ़ावा देने की जरूरत है; और इसके लिए वह अक्सर उन्हें अपने खेमे से सक्षम नेता तथा प्रतिबद्ध व्यक्ति उधार देता है. संघ को आप ‘उधार पर नेता कार्यक्रम’ (आप उसे हिंदू प्रशासनिक सेवा नाम दे सकते हैं) के रूप में देख सकते हैं, क्योंकि इसके अधिकतर नेताओं को निःस्वार्थ और विनम्र रहना, और संगठन के लिहाज से सक्षम बनाया जाता है. संगठन जब खड़ा हो जाता है तब आरएसएस अपने नेताओं को वापस बुला लेता है या उनकी मर्जी हो तो उन्हें साथी संगठन में रहने दिया जाता है.
चौथा निष्कर्ष यह है कि संघ सिद्धांतकारों की जगह कर्मवीरों को पसंद करता है, और इतने दशकों में इसने अपनी छवि बौद्धिकतावाद विरोधी संगठन की बना ली है. लेकिन अब यह नये बुद्धिजीवियों को परोक्ष रूप से समर्थन दे रहा है. फिर भी यह धुर बौद्धिकतावाद या अतिवादी विचारों के प्रति संशयवादी रुख ही रखता है.
पांचवां निष्कर्ष यह है कि संघ किसी भी तरह से धार्मिक पुनरुत्थानवादी नहीं है, हालांकि यह हिंदू सांस्कृतिक परंपराओं से शक्ति ग्रहण करता है. यह होली, दीवाली जैसे अति महत्वपूर्ण त्योहार नहीं मनाता लेकिन विजयदशमी और गुरुपूर्णमा इसके लिए बड़े दिन हैं. विजयदशमी के दिन सरसंघचालक अपने कार्यकर्ताओं तथा व्यापक समाज को अपना वार्षिक संदेश देते हैं; और गुरुपूर्णिमा पर इसके शुभचिंतक इसे यथाशक्ति दान देते हैं. सांस्कृतिक रूप से खुद को हिंदू बताने के बावजूद संघ ने कभी हिंदू मंदिरों को सरकार के नियंत्रण से मुक्त करने की मांग करने वाले आंदोलनों की अगुआई नहीं की. न ही यह इस्लामी हुकूमत के दौरान नष्ट किए गए मंदिरों को पुनर्स्थापित करने की मांग करने वाले आंदोलन में शामिल होने को उत्सुक रहा. राम जन्मभूमि आंदोलन शायद ऐसा पहला या अंतिम आंदोलन था जिसका उसने समर्थन किया, हालांकि इसके सदस्य इस मामले में एक व्यक्ति के रूप में अपने मन के मुताबिक जो करना चाहें वह करने को स्वतंत्र थे.
छठा निष्कर्ष यह है कि सर्वोच्च नेतृत्व को छोड़ संघ के अधिकतर कार्यकर्ता किसी-न-किसी रोजगार में लगे होते हैं, वे आजीविका के लिए संगठन पर निर्भर नहीं होते. बल्कि रोजाना के खर्चे खुद या अपने धनी शुभचिंतकों की मदद से चलाकर वे संगठन की मदद ही करते हैं. इसलिए इसे एक भाईचारा कहना गलत नहीं होगा. उसका कार्यकर्ता संगठन के किसी काम से सफर करता है तब वह साथी स्वयंसेवक के यहां ही ठहरता है. किसी कार्यक्रम के लिए किसी को जब पैसे की जरूरत पड़ती है तब उसे ऐसे व्यक्ति के पास भेजा जाता है जो मदद कर सकता हो.
सातवां निष्कर्ष : जैसा कि अधिकतर लोग जानते हैं, इसमें मूल वैचारिक एवं सांस्कृतिक प्रशिक्षण शाखाओं में होता है, और देश भर में इसकी 80,000 से ज्यादा शाखाएं चलती हैं. इन्हीं शाखाओं में मानव निर्माण और चरित्र निर्माण होता है, जब नये रंगरूटों पर नये प्रभावों, विचारों, और शाखाओं के साथियों तथा संगठनकर्ताओं की सहायताकारी उपस्थिति का असर पड़ता है.
आठवां निष्कर्ष : संघ व्यक्ति-पूजा और किसी एक नेता पर अति निर्भरता को हतोत्साहित करता है, भले ही उसने नरेंद्र मोदी को अपवाद बनाया हो जिनके साथ वर्तमान सरसंघचालक का शानदार कामकाजी संबंध है. संघ को शायद इसका एहसास है कि टीवी और सोशल मीडिया के इस युग में असाधारण प्रभाव वाले एक राजनीतिक नेता का होना नुकसानदेह नहीं है, भले ही आरएसएस अपने नेताओं में विनम्रता और सादगी के गुणों पर ज़ोर देता रहा है.
नौवां निष्कर्ष यह है कि भला हो संघ की अपारदर्शिता का, इसे अक्सर एक अधिनायकवादी संगठन माना जाता रहा है, जबकि वास्तविकता इससे अलग है. आरएसएस आंतरिक रूप से विचारों के प्रति खुलापन रखता है लेकिन इस बात पर ज़ोर देता है कि एक बार जब कोई फैसला हो जाए तब सदस्यों को अनुशासन का पालन करते हुए उसे कबूल करना चाहिए, चाहे वे उससे निजी तौर पर असहमत क्यों न हों. संघ को शायद अनुशासन के साथ लोकतांत्रिक व्यवहार के लिए पहचाना जाना चाहिए. सर्वसम्मति के इसके मॉडल का वास्तव में इस बात के लिए अध्ययन किया जाना चाहिए कि किसी विवेकपूर्ण लोकतंत्र में फैसले किस तरह लिये जाने चाहिए, जबकि वे अराजकता और अति ध्रुवीकरण में तेजी से जकड़ते जा रहे हैं. लंबी अवधि तक संगठन में एकजुटता कैसे कायम रखी जाती है, आरएसएस इसके गहरे अध्ययन का विषय है.
दसवां निष्कर्ष यह है कि सरसंघचालक की नियुक्ति आम तौर पर पिछला सरसंघचालक करता है, हालांकि उत्तराधिकारी कौन होगा यह वर्षों पहले से पता रहता है क्योंकि सक्षम नेता अपने काम के बूते नीचे से उभरकर ऊपर तक आते हैं और वे अपनी योग्यता से अपनी पहचान बना लेते हैं.
ग्यारहवां निष्कर्ष : संघ के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपना अस्तित्व बनाए रखने या विकास करने की नहीं है बल्कि यह है कि यह सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय एकता के लिए एक विशाल छतरी के रूप में कैसे काम करे. इसे जाति और धर्म आधारित अलगावों को दूर करने में मदद करनी है. यह खुद को संवाद और समझौते के एक मंच के रूप में प्रस्तुत कर सकता है. इसने मुस्लिम बौद्धिकों से संवाद शुरू किया है लेकिन अभी तक इसका कोई ठोस नतीजा नहीं हासिल हुआ है. सामाजिक तथा धार्मिक संबंधों को मजबूत बनाने के लिए यह कोशिश जारी रहनी चाहिए ताकि राष्ट्रीय एकता को कोई खतरा न पहुंचे.
बारहवां निष्कर्ष : आज के दौर में जब टेक्नोलॉजी मनुष्य को बेकार बना रही है, संघ को नयी पीढ़ी के लिए प्रासंगिक बने रहने के लिए खुद को नया रूप देना होगा. दूसरी ओर, इसकी जो शाखा व्यवस्था है वह स्व-सहायता तथा सेवा आधारित संबंधों का एक मॉडल प्रस्तुत करती है. इस तरह के विचार आज के दौर के लिए काफी काम के हो सकते हैं जब समुदाय टूट रहे हैं और व्यक्ति अकेलापन और मूल्यहीनता से ग्रस्त हो रहा है. इस तरह का मॉडल लोगों में फिर से सामाजिकता का भाव पैदा कर सकता है.
मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि संघ के होते हुए भारत और हिंदू समाज बेहतर स्थिति में है. यह परंपरा और परिवर्तन, विविधता और एकता का अनूठा भारतीय मॉडल प्रस्तुत करता है.
किसी भी संगठन की प्रासंगिकता इस साधारण-से सवाल के जवाब से तय होती है कि वह अगर न होता तो क्या समाज की जरूरत के लिए इस तरह के किसी संगठन की स्थापना जरूरी है? आरएसएस के मामले में, मेरा जवाब तो एक जोरदार ‘हां’ ही है.
आप मुसलमान हैं या ईसाई हैं, आपके लिए आरएसएस सिर्फ इस साधारण-से कारण से प्रासंगिक है कि सभी हिंदुओं का प्रतिनिधि न होने के बावजूद यह व्यापक हिंदू राजनीतिक व्यवस्था से संवाद स्थापित करने का पहला मंच उपलब्ध कराता है. संघ के बाहर का हिंदू समाज संपूर्ण की जगह समूहों में बंटे समाज के कुल जोड़ की तरह व्यवहार करता है. आप किसी एक समूह से संवाद करके यह नहीं मान सकते कि वह व्यापक हिंदू समाज की आवाज को प्रतिध्वनित कर रहा है.
आर.जगन्नाथन स्वराज्य पत्रिका के एडिटोरियल डायरेक्टर रह चुके हैं. वह @TheJaggi पर ट्वीट करते हैं. विचार निजी हैं.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ें: भारतीय राजनीति 2014 से पहले के दौर में लौट रही है, ब्रांड मोदी और भाजपा के लिए इसके क्या मायने हैं
