भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की दाद देनी पड़ेगी. कितना भी बड़ा झटका क्यों न हो वे अपनी चुनावी रणनीति नहीं बदलते हैं. मई 2023 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में उन्होंने जो गलतियां कीं, वो अब सर्वविदित है अब ऐसा लगता है कि वो वही गलतियां आने वाले विधानसभा चुनाव में भी दोहरा रहे हैं.
आइए एक बार फिर से संक्षेप में उनकी कर्नाटक की रणनीति को देखें. पार्टी ने अपने राज्य के सबसे लोकप्रिय जन नेता बीएस येदियुरप्पा को कमज़ोर कर दिया. जाहिर तौर पर यह नए नेतृत्व को बढ़ावा देने के लिए था लेकिन वास्तविकता ये थी के कोई सशक्त विकल्प वहां कोई था ही नहीं. पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चेहरा बनाया. हालांकि ये एक तथ्य है कि कि जरूरी नहीं कि लोग विधानसभा चुनावों में उन्हें वोट दें. उन्होंने एक डबल इंजन सरकार का वादा किया था. सच तो यह है कि यह डबल इंजन 2014 के कुछ सालों तक तो लोगों को आकर्षित करती थी लेकिन बाद में इसका नयापन और अपील भी खत्म हो गई थी. विपक्ष पर उनका हमले में भी कुछ भी नया नहीं था. हर बार की तरह वह वंशवादी, भ्रष्ट पार्टियां का आरोप लगा रहे थे.
भाजपा में खुद इतने सारे वंश वाद के उदाहरण है जिसकी मौजूदगी ने इसे मुद्दा- विहीन बना दिया. और जांच एजेंसी जिस तरह से केवल विपक्ष के नेताओं को ही निशाना बनाती रही हैं यह भ्रष्टाचार का मुद्दा भी अपनी धार खोता जा रहा है. भाजपा आलाकमान ने उम्मीदवारों के चयन से लेकर प्रचार रणनीतियों तक अपने आकलन के आधार पर निर्णय लिए, भले ही कर्नाटक के नेताओं ने कुछ भी सोचा हो. पार्टी ने फिर से हिंदुत्व राष्ट्रवाद पर ध्यान केंद्रित किया- इसलिए नहीं कि ये उनका प्रभाव था बल्कि इसलिये की पार्टी के पास कोई बेहतर रणनीति नहीं थी.
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बीजेपी ने दोहराई कर्नाटक रणनीति
अब राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में आगामी चुनावों के लिए भाजपा की रणनीति पर नजर डालें तो थोड़े राज्य-विशिष्ट बदलावों के साथ, क्या यह कर्नाटक की पुनरावृत्ति जैसा नहीं लगता? इसका उत्तर बड़ा ‘हां’ है.
मध्य प्रदेश में, लाडली बहन योजना के सफल कार्यान्वयन के बाद शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार बेहतर स्थिति में दिख रही है. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने, जाहिर तौर पर दिल्ली में अपनी पार्टी के सहयोगियों से प्रेरित होकर, फिर भी एमपी के मतदाताओं से उन्हें “प्रत्यक्ष समर्थन” देने की अपील की जैसा की उन्होंने 2014 के अंत और 2019 के चुनावों में किया था. जाहिर तौर पर पार्टी 64 वर्षीय चौहान को पार्टी अपना चेहरा बनाने को तैयार नहीं है.
अन्य राज्यों में, यह तर्क दिया जा रहा है कि युवा नेतृत्व को बढ़ावा देने की आवश्यकता है क्योंकि राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे 70 वर्ष की हैं और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह 71 वर्ष के हैं. इनमें से किसी भी राज्य में भाजपा के पास कोई वैकल्पिक लोकप्रिय चेहरा नहीं है. यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री पद की क्षमता वाले एक जोशीले, युवा, लोकप्रिय नेता के रूप में देखा जाता है, तो उन्हें चुनाव में उतारा ही नहीं गया है. जहां तक तेलंगाना का सवाल है, राज्य के भाजपा नेता अभी भी सोच रहे हैं कि सीएम के.चंद्रशेखर राव के खिलाफ पार्टी के चेहरे के रूप में उभरे बंदी संजय कुमार को अचानक कर्नाटक इकाई के अध्यक्ष पद से क्यों हटा दिया गया. महत्वाकांक्षी भाजपा नेताओं का एक वर्ग उनसे द्वेष रखता था, लेकिन इतने लोकप्रिय चेहरे को हटाने का यही कारण नहीं हो सकता.
कर्नाटक के विपरीत, जहां 80 वर्षीय येदियुरप्पा ने चुनावी राजनीति से संन्यास लेना बेहतर समझा, चौहान, राजे और सिंह जैसे सीएम दावेदारों ने पार्टी को उन्हें चुनाव में उतारने के लिए मजबूर किया है. हालांकि, इससे उन्हें ज्यादा सांत्वना नहीं मिल सकती है क्योंकि भाजपा का “सामूहिक नेतृत्व” पर जोर देना और पीएम मोदी को उसका चेहरा बनाना दृढ़ता से बताता है कि चुनाव जीतने पर भी ये नेता पार्टी की सीएम पसंद नहीं होंगे.
इन नेताओं के लिए, विडंबना यह है कि भाजपा की जीत जन नेता के रूप में उनकी प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगा देगी. यदि भाजपा उनके बिना जीत सकती है, तो यह इस बात की पुष्टि होगी की ये नेता अब प्रासंगिक नहीं रहे. कर्नाटक में भाजपा की हार ने येदियुरप्पा को प्रासंगिक बनाए रखा है, जैसा कि नए राज्य भाजपा अध्यक्ष और विधायक दल के नेता की नियुक्ति पर आलाकमान की दुविधा से स्पष्ट है.
वे येदियुरप्पा के उम्मीदवारों को नियुक्त नहीं कर सकते क्योंकि इसका मतलब उनके प्रभाव को कायम रखना होगा. लेकिन वे किसी को उसकी पसंद के खिलाफ नियुक्त नहीं कर सकते क्योंकि लिंगायत नेता ने विधानसभा चुनावों में साबित कर दिया है कि उन्हें क्यों नहीं साइडलाइन किया जा सकता. भाजपा आलाकमान 2024 के महत्वपूर्ण लोकसभा चुनावों से पहले उन्हें नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकता. यह एक विडंबना है कि पार्टी की हार से नेताओं को अपनी लोकप्रियता को प्रमाणित करने का कारन मिलता है.
तो, भाजपा आलाकमान आगामी विधानसभा चुनावों के लिए आजमाई हुई और असफल कर्नाटक रणनीति पर क्यों अड़ा हुआ है? इसका उत्तर उनके आकलन में निहित है कि पीएम मोदी दक्षिणी राज्यों की तुलना में हिंदी बेल्ट में अधिक प्रभावशाली हैं. 2018 में राजस्थान में भाजपा हार गई, लेकिन उसका वोट शेयर कांग्रेस के 39.30 प्रतिशत के मुकाबले 38.77 प्रतिशत था – 0.53 प्रतिशत अंक का अंतर. मध्य प्रदेश में, भाजपा को कांग्रेस के 40.89 प्रतिशत के मुकाबले 41.02 प्रतिशत हासिल हुआ. बीजेपी स्पिन डॉक्टरों का तर्क है कि 2018 में राजस्थान और एमपी में राजे और चौहान के नेतृत्व वाली सरकारों के खिलाफ भारी सत्ता विरोधी लहर के बावजूद, इन वोट शेयरों ने दिखाया कि क्षेत्रीय क्षत्रपों की अलोकप्रियता के बावजूद पीएम मोदी पार्टी के लिए वोट कैसे हासिल कर सकते हैं.
जहां तक छत्तीसगढ़ का सवाल है, जहां 2018 में वोट शेयर के मामले में कांग्रेस ने बीजेपी पर 10 प्रतिशत अंक की बढ़त हासिल की थी, बीजेपी के नेताओं का मानना है कि ऐसा इसलिए था क्योंकि रमन सिंह कभी भी “इतने लोकप्रिय नेता” नहीं थे कि वह नतीजे बदल सकें. सिंह के नेतृत्व में भाजपा ने 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव जीते. हालांकि, उस समय भाजपा और कांग्रेस के वोट शेयरों में अंतर एक और दो प्रतिशत अंक से कम था, भाजपा के नेता इन आंकड़ों को कोट करते हुए रमन सिंह को 2018 के चुनाव में हार के बाद साइडलाइन किये जाने के पार्टी आलाकमान के फैसले का बचाव करते हैं.
उनका तर्क है कि 2023 में कर्नाटक में भी, पीएम मोदी के अभियान की बदौलत, भाजपा का वोट शेयर 2018 के समान ही रहा – लगभग 36 प्रतिशत. खैर, डेटा के हमेशा कई सेट होते हैं और कोई भी सुविधाजनक डेटा चुन सकता है.
इस स्तर पर मोदी की लोकप्रियता का परीक्षण न करें
पीएम मोदी को इन विधानसभा चुनावों का चेहरा बनाना एक अच्छी रणनीति नहीं हो सकती है. आइए इसके बारे में भी सोचें . जब 3 दिसंबर को नतीजे आएंगे, तो यह ठीक पांच महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए गति तय कर देगा. क्या बीजेपी के लिए इन विधानसभा चुनावों को आम चुनाव के करीब पीएम मोदी की लोकप्रियता की परीक्षा बनाना एक अच्छा विचार है?
चलिए मान लेते हैं कि बीजेपी इन विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल करती है. क्या राजे, चौहान या सिंह मुख्यमंत्री बनाए जाएंगे? कहीं से भी नहीं लगता. बीजेपी उन्हें संभावित सीएम दावेदार के तौर पर भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है, चाहे उससे चुनाव पर जो भी असर पड़े. संक्षेप में कहें तो जीतें या हारें, इन क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपना असतित्व बनाये रखने के लिए एक दमदार आलाकमान हित में नहीं रहेगा.
कोई यह तर्क दे सकता है कि भाजपा 2018 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ हार गई और फिर भी 2019 के लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल की. इससे पता चलता है कि जब लोगों की मतदान प्राथमिकताओं की बात आती है तो विधानसभा और लोकसभा चुनावों के बीच कोई संबंध नहीं होता है. इसके अलावा, पीएम मोदी बेहद लोकप्रिय हैं और विपक्षी खेमे में किसी से भी कहीं आगे हैं. सच. लेकिन 2014 और 2019 के आम चुनावों के बीच जो हुआ वह भाजपा के लिए अभूतपूर्व था – लगभग हर परिवार तक पहुंचने वाली कल्याणकारी योजनाओं की बाढ़, सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट हवाई हमला और एक के बाद एक ऐसी चीजे कि विपक्ष बस भौंचक देखता ही रहा.
क्या मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने 2019 और अक्टूबर 2023 के बीच, यदि बेहतर नहीं तो, उतना ही काम किया है? बचे हुए इन छह महीनों के बारे में बात न करें, क्योंकि राजनीतिक हलकों में मोदी की अंतिम समय में कुछ शानदार करने की क्षमता के बारे में जबरदस्त धारणा व्याप्त है. ऐसा कहने के बाद, इन राज्यों में पांचवीं बार लोगों से ‘प्रत्यक्ष समर्थन’ की मोदी की अपील – पहले 2013, 2014, 2018 और 2019 में – शायद छठी बार प्रभाव को कमजोर कर सकती है, जब वह मुश्किल से चार-पांच महीनों बाद उनके पास जाएंगे. ऐसा लगता है कि बीजेपी अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए आने वाले चुनावों में पीएम मोदी को जरूरत से ज्यादा एक्सपोज कर रही है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या यह जोखिम उठना इतना जरूरी है?
डीके सिंह दिप्रिंट में पॉलिटिकल एडिटर हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.
(संपादन/अनुवाद: पूजा मेहरोत्रा)
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