2014 में नरेंद्र मोदी ने जब प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली थी तो दिल्ली में एक लीटर पेट्रोल की कीमत 71 रुपये थी. आज यह बढ़कर 88 रुपये हो चुकी है. डीजल पर भी बहुत ज्यादा मार पड़ी है, दिल्ली में यह मई 2014 की तुलना में 57 रुपये से बढ़कर अब करीब 80 रुपये तक पहुंच गया है.
इसमें से सबसे अधिक वृद्धि पिछले एक साल के दौरान ही हुई है. इस एक वर्ष में लोगों ने नौकरियां और आय के साधन गंवाए हैं और महंगाई भी जमकर बढ़ी है. यह दोहरी मार की तरह है, ईंधन ऐसे समय पर महंगा हो रहा है जब लोगों की जेब में पैसा भी कम है. एक ऐसी अर्थव्यवस्था में जहां आधिकारिक रूप से विकास दर 7.5 फीसदी रही है, यह एक बड़ी सार्वजनिक चिंता का विषय होना चाहिए, यहां तक कि आक्रोश और हंगामे का भी.
बहरहाल, भारतीयों ने इसके बारे में जिस तरह से चुप्पी साध रखी है उससे कोई भी भारत के बारे में घिसी-पिटी रुढ़िवादी राय ही रख सकता है. जैसा कि आप जानते ही हैं कि भारतीय सभी मुसीबतों को अपने कर्मों का नतीजा मानकर चुपचाप सहते जाते हैं.
फिर भी 6-7 साल पहले भारतीय ईंधन की ऊंची कीमतों को लेकर बहुत नाराज थे. वास्तव में तो यह 2014 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार के सत्ता से बाहर हो जाने का एक कारण भी था. ये कैसे होता है कि जिन चीजों पर उस समय हम आक्रोश से भर जाते थे, वह अब हमें नाराज नहीं करतीं? कैसी अजीब बात है कि जनता की राय के बारे में शेयर बाजार की तरह कुछ अंदाजा लगाना मुश्किल हो गया है.
जनता या तो ईंधन की बढ़ी कीमतों से प्रभावित होती है या नहीं होती है. या तो 2014 से पहले जनता की राय गलत थी या अब यह गलत है. आखिर हो क्या रहा है?
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जनता की राय स्पष्ट करना
हमें क्यों लगता है कि 2014 से पहले ईंधन की कीमतें एक बड़ा मुद्दा हुआ करती थीं? तब हमारी इस धारणा के पीछे दो कारण थे: मीडिया और विपक्ष. आज दोनों चुप हैं. मीडिया सरकारी दबाव का तर्क दे रहा है. लेकिन विपक्ष की चुप्पी का क्या कारण है?
2014 से पहले ईंधन की बढ़ती कीमतें उन सबसे मजबूत मुद्दों में एक थी जिन्हें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उठाती थी. 2013 में भाजपा की दिल्ली इकाई ने स्थानीय नेताओं की अगुवाई में एक बाइक रैली निकाली जो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के आवास तक पहुंची. पार्टी कार्यकर्ताओं ने बैरीकेडिंग तोड़ दी और मुख्यमंत्री आवास में घुसने की कोशिश की जिस पर पुलिस ने वाटर कैनन का उपयोग किया. मीडिया को तो इसे दिखाने के लिए पर्याप्त विजुअल और मसाला मिल गया था.
यदि यह सब किसी तस्वीर में कैद न हो तो यह जनता की राय नहीं होती है.
आज, यदि आप किसी विपक्षी नेता से पूछें कि वे ईंधन की कीमतों में वृद्धि का विरोध क्यों नहीं करते, तो उनका यही कहना होता है कि क्या फर्क पड़ता है, वैसे भी मीडिया इसे दिखाएगा नहीं. यदि आप मीडिया पेशेवरों से पूछें कि ईंधन के दामों पर उन्होंने क्यों चुप्पी साध रखी है तो उनका जवाब होगा कि वो क्या कर सकते हैं, कांग्रेस इसके बारे में कुछ नहीं कर रही है.
हम जानते हैं कि जनता की राय बनना नहीं छोड़ा है, इसे ‘क्रिस्टलाइज’ करना होगा. एक ऐसे देश में जहां आमतौर पर यही माना जाता है कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि वैसे भी हर कोई ही थोड़ा-बहुत भ्रष्ट है, लोकपाल आंदोलन ने भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बना दिया. इसी तरह, ईंधन की कीमतें भी एक मुद्दा थीं या एक मुद्दा लगती थीं क्योंकि इन्हें स्पष्ट रूप से दर्शाया गया था, जनता का ध्यान आकृष्ट करने वाले विजुअल्स के जरिये इन्हें प्रदर्शन की घटनाओं में बदला गया. ऐसे दृश्यों ने मीडिया के लिए भी इन्हें अनदेखा करना नामुमकिन कर दिया. यही वजह है कि यूपीए-2 को कई बार ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी वापस लेनी पड़ी.
भाजपा ईंधन मूल्य वृद्धि के विरोध में ‘जेल भरो’ या स्वैच्छिक गिरफ्तारी के अलावा जब तब भारत बंद का आह्वान करती रहती थी. उनका भारत बंद या देशव्यापी बंद इतने बड़े पैमाने पर होता था कि दुनियाभर के मीडिया का ध्यान आकृष्ट होता था.
2010 में भारत बंद के दौरान एक विदेशी रिपोर्टर ने लिखा, ‘प्रदर्शनकारियों ने ट्रेनों और बसों की आवाजाही बाधित कर दी है, जलते टायरों से मार्ग अवरुद्ध कर दिया है और पुलिस के साथ झड़प हुई है…सविनय अवज्ञा कर रहे विपक्षी दलों के कुछ नेताओं को गिरफ्तार किया गया. सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी का कहना है कि उसे राजकोषीय घाटे पर लगाम के लिए ईंधन पर सब्सिडी खत्म करनी होगी…’
ये वो दिन थे जब हम आए दिन ‘ईंधन के दामों में वृद्धि के खिलाफ पार्टियों के प्रदर्शन से जनजीवन बाधित’ जैसी सुर्खियां देखते थे. आज यह नौबत आ गई है कि जीवन में कुछ ‘बाधित’ नहीं होता क्योंकि आलसी विपक्ष मीडिया के अपना काम करने का इंतजार करता रहता है.
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महंगाई की वापसी
भले ही विपक्ष जनता से जुड़े मुद्दों को न उठाए, चुनावों में लोग इन्हें साफ कर ही देते हैं. 2020 में मैं बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान कई मतदाताओं से मिला, जिन्होंने आवश्यक वस्तुएं महंगी होने को लेकर नाराजगी जताई. हालांकि, अजीब बात यह है कि इसके लिए वह बिहार की राज्य सरकार को ही जिम्मेदार मानते थे.
मोदी के पहले कार्यकाल में उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक थी मुद्रास्फीति में कमी. दरअसल, मोदी सरकार निश्चित तौर पर खाद्य मुद्रास्फीति के डर से किसानों के हाथों में बहुत अधिक पैसा देने के खिलाफ रही है. उच्च मुद्रास्फीति के बावजूद कोई भी केंद्र सरकार सत्ता में वापस नहीं लौटी है.
ईंधन की उच्च कीमतें सीधे तौर पर गरीबों को प्रभावित नहीं करतीं. वह मध्यम वर्ग पर असर डालती हैं जो कि नरेंद्र मोदी को लेकर एकदम मुग्ध है. लेकिन ईंधन की उच्च कीमतें परोक्ष रूप से मुद्रास्फीति को प्रभावित करती हैं जिसकी मार अंततः गरीबों पर भी पड़ेगी. मोदी सरकार के लिए अच्छी बात यह है कि मुद्रास्फीति फिर से नियंत्रण में आती दिख रही है.
सरकार के पास ईंधन की कीमतों में कमी लाने के कई तरीके हैं क्योंकि इसमें दो-तिहाई लगभग टैक्स ही होते हैं. आर्थिक विकास मंद पड़ने के मद्देनजर सरकार ईंधन पर टैक्स का इस्तेमाल अपने राजस्व घाटे की भरपाई के लिए कर रही है. इसका मतलब है कि विपक्ष की तरफ से ईंधन की कीमतों पर एक बड़ा प्रदर्शन उसे आसानी से थोड़ी राजनीतिक सफलता दिला सकता है. विपक्ष ऐसा क्यों नहीं करता, यह बात समझ से परे है और इसे वही समझा सकता है.
(लेखक कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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