इन पंक्तियों को जब आप पढ़ रहे होंगे तो बिहार विधानसभा के चुनाव के पहले चरण के लिए मतदान समाप्त हो चला होगा. अब अचरज कहिए कि इस बार बिहार के चुनाव को लेकर अपने मन में मैं पहले जैसी तरंग महसूस नहीं कर पा रहा और, मुझ जैसे चुनाव-आसक्त आदमी के लिए जिसने जिंदगी के तीन दशक चुनावों को पूरे दिल-ओ-जान से पेशेवर और सियासी तौर पर परखने-समझने में बिताये हैं. यह बड़ा अजीब सा अहसास है.
चुनावी चर्चा से मेरा जी उकता गया हो, ऐसा भी नहीं. वजह ये भी नहीं कि शुरु-शुरु में लगा कि नतीजे से पहले से ही अपना पता दे रहे हैं तो फिर इसमें क्या दिल लगाना! दरअसल, आज की घड़ी में जब बिहार में चुनावी लड़ाई कांटे की टक्कर में बदलती जान पड़ रही है, तब भी उसे लेकर मेरे दिल में कोई उमंग नहीं जाग रही. अब ये बात तो मैं समझता ही हूं कि इस चुनाव का एक ना एक नतीजा निकलना ही है. कोरोनाबंदी के बाद का यह पहला चुनाव है और अगले कुछ वक्तों के लिए मोदी सरकार किस तर्ज पर चलेगी यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि बिहार विधानसभा के इस चुनाव में एनडीए सरकार बना पाती है या नहीं. चुनाव के नतीजों को जानने की उत्सुकता तो मैं अपने अंदर महसूस कर पा रहा हूं लेकिन चुनाव के रंग-ढंग परखने की तरफ जी जरा भी नहीं जा रहा.
और, जो जी की हालत ऐसी है तो उसकी वजह भी है. बिहार विधानसभा का यह चुनाव अगर पहले की तुलना में खास अहमियत नहीं रखता तो इसकी तीन वजहें दिख रही हैं : एक तो राष्ट्रीय जीवन-जगत में बिहार की अहमियत पहले की तुलना में कम हुई है. दूसरे, सूबों की सियासत भी अभी राष्ट्रीय राजनीति में पहले जितनी महत्वपूर्ण नहीं रही और तीसरी बात ये कि देश की दशा-दिशा तय करने के ऐतबार से अब चुनाव पहले जैसे अहम नहीं रह गये हैं.
बिहार अब मुख्यकेंद्र नहीं रहा
हिन्दी-पट्टी के राज्यों में बिहार का एक खास मुकाम हुआ करता था. हिन्दीपट्टी के राज्यों मे बिहार अपनी अनूठी सांस्कृतिक, भाषायी और सियासी पहचान के कारण खास नजर आता था. माना जाता था कि उत्तर भारत की राजनीति की नब्ज और धड़कन बिहार से तय होती है. जेपी के आंदोलन के दिनों से ही बिहारियों की साख-धाक बनी चली आयी है. एक दौर वह भी गुजरा है जब बिहारवासी गर्वभाव से कहा करते थे कि अगर देश के मन-मिजाज और सियासत को बदल देने वाला कोई आंदोलन होता है तो समझिए उसकी शुरुआत बिहार में हुई है.
हिन्दीपट्टी के राज्यों की सियासत में क्या कुछ होने जा रहा है, वह बिहार के चुनावों के सहारे बहुत पहले पता चल जाया करता था. साल 1990 तथा 1995 में बिहार विधानसभा के चुनाव एक तरह से देश में ‘मंडल’ राजनीति के उभार की पूर्वपीठिका कहे जायेंगे. साल 2005 और 2010 के चुनावों में नीतीश कुमार की जीत ने संकेत दिया कि ‘गवर्नेंस’ को तिलांजलि देते हुए सामाजिक न्याय की जो राजनीति चल रही है, उससे लोग उकता चुके हैं और चुनावी राजनीति में अब एक नये मुहावरे ‘बिजली, पानी, सड़क’ ने अपनी पैठ बना ली है.
लेकिन बीते एक दशक से बिहार सियासत के मोर्चे में अग्रणी भूमिका में नहीं बल्कि उत्तर भारत में बह रही हिन्दुत्व की लहर का वह एक तरह से पिछलग्गू बना हुआ है. अगड़ी जातियों के साथ ओबीसी में शामिल कुछ ‘पिछड़ी’ जातियों का सियासी जोड़ बैठाने का फार्मूला बीजेपी ने सबसे पहले उत्तरप्रदेश में आजमाया. इस आजमाइश के साथ पुराने तर्ज की मंडल-राजनीति मंद पड़ गई लेकिन मंद पड़ने से जो जगह खाली हुई उसकी भरपायी किसी और सुसंगत समाजी समीकरण से ना हो सकी. आरजेडी ने इस बार कोशिश की है कि मुस्लिम-यादव के अपने पुराने समाजी आधार में कुछ अगड़ी जातियों को नत्थी कर ले लेकिन उसका यह मॉडल ना तो नया है और ना ही पायेदार ही जान पड़ता है. क्या बेरोजगारी इस बार चुनाव का मुख्य मुद्दा बन पायेगी ? क्या इसे दूसरे राज्यों में भी आजमाया जा सकेगा ? जबतक ऐसा नहीं होता, मैं बिहार के अपने दोस्तों को किसी खुशफहमी में नहीं रखना चाहता. मुझे ये बात कहनी ही होगी कि बिहार अब उत्तर भारत की राजनीति का अग्रदूत नहीं रहा. इस बार के चुनाव से बिहार की राजनीति के बारे में पता चलेगा, उससे उत्तर भारत की राजनीति के बारे में निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते.
राज्य की राजनीति अब ‘मुख्य रणक्षेत्र’ नहीं रही
वजह बताते हुए ऊपर जो मैंने दूसरी बात दर्ज की है अब सिर्फ बिहार पर ही नहीं बल्कि बाकी राज्यों के चुनाव पर भी लागू होती है. बिहार विधानसभा के चुनाव के नतीजे चाहे जो भी रहें, मुझे पक्का यकीन है कि टेलीविजन पर चलने वाली बहसों में उन्हें देश के मन-मानस के एक प्रतिबिम्ब के रुप में देखा-समझा जायेगा. लेकिन इसकी वजह है हमारे राजनीतिक विश्लेषण की भाषा का पुराना पड़ जाना. सच्चाइयां बदल गई हैं, विचार-विश्लेषण की भाषा वही रह गई हैं. पच्चीस साल पहले, ठीक- ठीक कहें तो 1990 से लेकर 2013 तक राष्ट्रीय फलक की राजनीति को समझने की कुंजी थी राज्यों की राजनीति को समझना. राज्यों की विधानसभा के लिए हुए चुनावों का कुल जोड़-जमा ही उस वक्त लोकसभा के चुनावों के भी परिणाम बता देता था. सन् 1970 और 1880 के दशक के विपरीत, जब लोग अपने राज्यों में यों वोट डालते थे मानो प्रधानमंत्री का चुनाव कर रहे हों, 1990 से 2013 की अवधि में हुए लोकसभा के चुनावों में लोगों ने लोकसभा के लिए कुछ यों वोट डाला मानो अपने सूबे के मुख्यमंत्री का चुनाव कर रहे हों. प्रोफेसर पऴशीकर और मैंने इस परिघटना को नाम देते हुए कहा था कि यह राजनीति के ‘मुख्य रणक्षेत्र’ के रुप में राज्यों के उभार का दौर है.
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लेकिन यह कहानी 2014 से बदल गई. राज्यों की विधानसभा के लिए होने वाले चुनाव के रंग-ढंग से अब आप लोकसभा के चुनावों की सूरत-सीरत नहीं पता कर सकते. अभी का दौर ‘टिकट स्पिलिटिग’ का है. इस दौर में मतदाता अपने राज्य में दो अलग-अलग स्तर के चुनावों के लिए अलग-अलग पसंद जाहिर करता है, भले ही ये चुनाव एक ही दिन क्यों ना करवाये जा रहे हों. साल 2019 के आम चुनावों में ओड़िशा के मतदाताओं ने लोकसभा के लिए बीजेपी को पसंद किया लेकिन अपने राज्य में सरकार बनाने के लिए उनके वोट बीजेडी के पक्ष में पड़े जबकि दोनों चुनाव एक ही दिन कराये गये थे. आम आदमी पार्टी को लोकसभा के चुनावों में तो दिल्ली के मतदाताओं ने सिरे से खारिज कर दिया लेकिन कुछ माह बाद दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए तो राज्य में आम आदमी पार्टी ही सत्तासीन हुई. यही बात बिहार पर लागू होती है. अगर बिहार विधानसभा के चुनाव में बीजेपी अच्छा प्रदर्शन करती है तो बड़े जोर-शोर से कहा जायेगा कि लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट दिया है. कहा जायेगा कि कोरोना-काल में मोदी जी ने देश और अर्थव्यवस्था को जिस तरह संभाला उसे ध्यान में रखते हुए लोगों ने बीजेपी की तरफ वोट डाला है. और, जो बिहार विधानसभा के चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहता तो टेलीविजन की बहसों में ठीक इसके उलटा कहा जायेगा. लेकिन, ऐसा कहने में अब तुक क्या है, अब यह खाली मुहावरा भर तो रह गया है. इस चुनाव से हमें सिर्फ बिहार का पता चलेगा, इतना भर पता चलेगा कि बिहार का मतदाता अपने सूबे की राजनीति के एतबार से किस तरफ होकर सोच रहा है लेकिन राष्ट्रीय स्तर की राजनीति को लेकर बिहार के मतदाताओं का रुझान इस चुनाव से नहीं जाना जा सकता जबकि अभी राष्ट्रीय स्तर की राजनीति ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है.
चुनाव का अब उतना महत्त्व नहीं रहा
ऊपर दर्ज तीन वजहों में आखिरी के बारे में सोचना-बोलना शायद सबसे ज्यादा तकलीफदेह है. चुनाव चाहे विधानसभा के हों या फिर लोकसभा के, वे अब हमारे राजनीतिक जीवन के एतबार से निर्णायक नहीं रह गये. हमारे देश के लोकतंत्र में चुनावों ने अन्य देशों की तुलना में कहीं ज्यादा अहम भूमिका निभायी है. चूंकि हमारे लोकतंत्र की मुहाफिज अन्य संस्थाएं बहुत कमजोर रही हैं, सो चुनाव ही लोगों को सत्ता से जोड़ने का एकमात्र जरिया रहता आया है. यही वजह है जो हमारे लोकतंत्र में चुनाव इतने ज्यादा घटना-प्रधान हैं, यानि लंबे इंतजार के बाद आने वाला एक ऐसा मौका जब जनता सचमुच अपनी संप्रभुता का ऐलान करती है. इस सिलसिले में साल 1977, 1980 और 1984 के चुनावों को हमें याद रखना चाहिए. या फिर, याद कीजिए साल 1990 का दशक जब राज्य और केंद्र दोनों ही मुकाम पर सरकारें जल्दी-जल्दी बन-गिर रही थीं. तब चुनाव नेताओं, पार्टियों और सरकारों का भविष्य ही नहीं बल्कि सामाजिक पदानुक्रम और स्थानीय रिश्तों के स्वरुप के भी निर्धारक हुआ करते थे. चुनाव किसी महा-उत्सव से कम नहीं था और उससे यही पता चलता था कि लोकतंत्र की एक जरुरी रस्म के रुप में उसपर दारोमदार बहुत ज्यादा है. और, ठीक इसी कारण मतगणना के दिन लोग-बाग झुंड के झुंड टीवी सेटस् के आगे एकदम से आंख गड़ाये घंटों बैठे रहते थे.
इस मंजर में तब्दीली आती है 2004 के बाद से. चुनाव अब आये दिन के कर्मकांड में बदल जाते हैं, उनका महत्व उम्मीदवारों और पार्टियों के लिए तो रहता है लेकिन उनसे किसी गहरे रुझान का पता नहीं चलता. धीरे-धीरे चुनाव धनबल, मीडिया और मैनेजमेंट का रचा खेल बनकर रह जाते हैं, लोगों से उनका नाता-रिश्ता ना के बराबर रह जाता है. सरकार और मुख्य राजनेता को लेकर लोगों की धारणा अब भी मायने रखती है लेकिन चुनावों का मतलब बस इतना भर ही रह जाता है, उससे ज्यादा नहीं. यह प्रवृत्ति साल 2014 के बाद से और ज्यादा प्रबल हुई है. जैसे-जैसे बीजेपी हर कीमत पर चुनाव जीतने के लिए बज़िद होती गई, चुनावों से उनका महत्तर अर्थ गायब होता गया है. चुनाव अब किसी मशीन को चलाये रखने और मीडिया प्रबंधन करते जाने की आदत में तब्दील होकर रह गये हैं. चुनावों से अब जनमत और लोक-प्रवृत्ति की गहरी धाराओं का उतना ही भर पता चलता है जितना कि सीबीएसई के इम्तहान में बैठने वाले छात्र से उसकी सहज प्रतिभा और सीखने की क्षमता का.
इससे भी ज्यादा अहम बात ये कि अब चुनाव सत्ता से प्रतिरोध जताने का औजार नहीं रहे. लगातार असंभव होते जा रहा है कि चुनावों के जरिये बीजेपी के दबदबे के खिलाफ कोई राह-ए-निजात निकले. जैसे 1971 के बाद के समय में इंदिरा गांधी की निरंकुशता को गुजरात और बिहार के आंदोलन से चुनौती मिली, उसी तर्ज पर आज शासन में बढ़ती जा रही निरंकुशता की प्रवृत्ति को चुनावी अखाड़े में चुनौती मिलेगी- ऐसा नहीं मान सकते. हमें ध्यान सड़कों-चौबारों पर होने वाले विरोध-प्रदर्शन और आंदोलनों पर देना होगा, प्रतिरोध को अगर शक्ल अख्तियार करना है तो अब वह यहीं होगा. अगर आप मौजूदा सत्ता के लिए किसी विरोध की तलाश में हैं तो मानकर चलिए कि उसकी शुरुआत इस बार बिहार से नहीं होने जा रही.
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बिहार विधानसभा के चुनाव भारतीय लोकतंत्र के दिशा-सूचक हुआ करते थे. सामाजिक रुप से वंचित-जन के लोकतांत्रिक उभार का पता देते थे बिहार विधानसभा के चुनाव. इस बार का चुनाव सिर्फ ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ तक सिमट कर रह गया है.. अगर आपकी नजर अर्जुन की तरह सिर्फ इसी सवाल पर नहीं टिकी है तो फिर आपको 10 नवंबर को आने वाले अंतिम नतीजों का इंतजार करना चाहिए. मैंने यही करने का सोचा है !
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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“धीरे-धीरे चुनाव धनबल, मीडिया और मैनेजमेंट का रचा खेल बनकर रह जाते हैं, लोगों से उनका नाता-रिश्ता ना के बराबर रह जाता है.” This is the truth. There is no concern for the common man, mazdoor/kisan. everybody is making noise by speaking as loud as possible, dividing people along caste and creed lines and then enticing them with all kind of offerings/freebies and false promises.