एक तरफ जहां मोदी सरकार 2019 में महात्मा गांधी का 150वां जन्मदिन मनाने की तैयारी जोरो शोरो से कर रही है, वहीं दूसरी ओर प्रतिष्ठित घाना विश्वविद्यालय के छात्रों और प्रोफेसरों ने इस हफ्ते आधी रात को कैंपस में लगी स्वतंत्रता सेनानी की मूर्ति को हटा दिया है.
वे गांधी को नस्लभेदी मानते हैं और उनका कहना हैं कि गांधी ने अपने साउथ अफ्रीका के दिनों में अश्वेतों को लेकर जो कथित बयान दिए थे, उससे उनके आत्मसम्मान और उपनिवेशवाद एंव भेदभाव के खिलाफ लड़ाई को ठेस पहुंचा है.
गांधी अक्सर अश्वेत अफ्रीकी लोगों को ‘बर्बर’ और ‘अप्रशिक्षित’ समझते थे और उन्होंने लिखा था ,अफ्रीका में श्वेत नस्ल वाले लोगों को सर्वोच्च नस्ल का माना जाए.
इनमें से बहुत सारी टिका-टिप्पणियों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है. वह भी तब जब गांधी की किताबें,पत्र-पत्रिकाएं लंबे समय से अभिलेखागार में मौजूद हैं. बीसवीं सदी में किसी नेता के बारे में सबसे ज्यादा लिखा गया है तो वह गांधी है.
तो यह सब अभी क्यों हो रहा है? नए शोध, छात्रवृत्ति और इंटरनेट से मिलकर ये सब निकाल रहें.
लंबे समय तक विश्व शांति दूत के अश्वेत अफ्रीकी लोगों को लेकर दिए विवादित बयान को कई विद्वानों द्वारा छिपाया गया था. मिथक बनाने वाले प्रोजेक्ट में नस्लभेदी गांधी बहुत ही असहज थे और गांधी खुद इन प्रोजेक्टस में अपनी भागदारी दे चुके हैं.
Gandhi was not alone. Almost all South Asian people believe they are "infinitely superior" to black Africans and use the racist pejorative negro, habsi, kallu, kailla to describe them.
— taslima nasreen (@taslimanasreen) December 14, 2018
2013 में दि गार्डियन में छपे एक लेख में पैट्रिक फ्रेंच लिखते हैं कि किस तरह रामचंद्र गुहा कि किताब गांधी बिफोर इंडिया में बहुत सारी चीजों को छुपाया गया है.
‘इसमें केवल गांधी के अधिकृत और रूढ़िवादी रूप को ही मुख्यत अनुगमन किया गया है. जहां भी संदेह है, वहां इन्हें इसका लाभ दिया गया है.’
दशकों से दक्षिण अफ्रीका में एक वाक्य चला आ रहा है कि “भारत से वह मोहनदास के रूप में आए थे, यहां से वह महात्मा बनकर लौटें”
लेकिन इतिहासकार रानोको रशीदी और लेखक जीबी सिंह(गांधी बिहाइंड द मास्क ऑफ डिविनिटी) पिछले कुछ सालों से गांधी के नस्लवाद को रेखांकित कर रहे हैं.
2015 में दो दक्षिण अफ्रीकी शोधार्थी जिनमें से एक जोहानासबर्ग के प्रोफेसर अश्विन देसाई हैं और दूसरे काजुलू नटाल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गुलाम वाहेद ने अपनी किताब के माध्यम से गांधी के महिमांडन से पर्दा हटाया है. उन्होंने सरकारी दस्तावेजों और कुछ लेखों के आधार पर दक्षिण अफ्रीका में गांधी के जीवन का सूक्ष्म रूप से अध्यन करते हुए पाया है कि इस नेता ने अपनी आत्मकथा में अपने कुछ पुराने हिस्सो को सही करने का प्रयास किया है. यह सब बातें इन दोनों लोगों ने अपनी किताब द साउथ अफ्रीकन गांधी: स्ट्रेचर बियरर ऑफ एंपायर’)
भारतीयों को बताया जाता है कि गांधी महात्मा भारत आकर बनें, जबकि उनके ‘साधुतत्व’ की नींव 1893 से लेकर 1914 के बीच उनके दक्षिण अफ्रीकी प्रवास के दौरान रखी गई. पीटर्सबर्ग में गांधी को एक अश्वेत होने के कारण ट्रेन से बाहर फेंके जाने की घटना को भारतीय स्कूलों में एक बदलाव और आदर्शवादी तरीका बता कर पढ़ाया जाता है कि किस तरह वह दमन के खिलाफ उठ खड़े हुए. यहां कि किताबों, संग्रहालयो और पुराने इतिहास में है, लेकिन हाल में कुछ शोध से इस बात का खुलासा हुआ है कि जो बात छिपाई जाती है वह है कि गांधी खुद अश्वेत अफ्रीकी लोगों के साथ बैठना नहीं चाहते थे और इसीलिए वह इसके खिलाफ अपनी आवाज उठाए थे.
वास्तव में गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के हक की लड़ाई का आधार यही था जिस तरह से उन्होंने भारतीयों को अश्वेत के ऊपर माना था.
डरबन पोस्ट ऑफिस के अंदर प्रवेश को लेकर अश्वेतों और श्वेतों के बीच चली लड़ाई में गांधी ने प्रमुख रूप से इस बात का विरोध किया था कि भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका के पूर्वजों के साथ रखा गया है. उन्होंने तीसरे प्रवेश द्वार की मांग की थी. उन्होंने 1895 में एक याचिका में लिखा था कि भारतीयों को अश्वेतों के साथ रखने पर वह और भी ‘अपमानित’ हो जाएंगे. उनके अपने विचार में श्वेत और भारतीय इंडो आर्यन की समान पृष्ठभूमि से आए हैं.
बाद में 1904 में गांधी ने जोहान्सबर्ग के नगरपालिका प्राधिकरण को लिखा कि भारतीयों को अश्वेतों के नजदीक बसाना गलत है क्योंकि हमारे देशवासियों पर यह बिना कहे एक तरह का भार हो जाएगा. भारत में गांधी की रूढ़िवादी सोच को बाबा साहब अंबेडकर, कई दलित और अजातीय शोधार्थियो ने चुनौती दी थी. गांधी ने छुआछुत के बारे में तो लिखा है लेकिन हिंदू रीति रिवाज,जिसके प्रभुत्व के कारण जाति व्यवस्था मजबूत हुई है, उसपर कभी सवाल नहीं उठाया.
लेकिन इतने दिनों तक गांधी की नस्लवादी विचार परिदृश्य से गायब रहें. यह भी एक कारण हो सकता है कि किस तरह गांधी की विरासत मध्य भारत द्वारा दुनिया भर में दबदबे का कारण बनी.
वह तो भला हो दुनियाभर में आपस में जुड़े एक दुसरे के विचारों और विचारधाराओं का जिसमें हम रहते हैं, जहां कितना भी बड़ा ऐतिहासिक शख्सियत हो उसके बारे में कुछ भी छिपाना मुश्किल है. सच अपना रास्ता ढूंढ़ ही लेता है.
दक्षिण अफ्रीका के कुछ प्रदर्शनकारी मानते हैं कि जबतक गांधी की मूर्ति को हटाया नहीं जाएगा तब तक विश्व अफ्रीकी और अन्य लोगों की बातें नहीं सुनेगा.
दिसंबर 2017 में घाना विश्वविद्यालय के अफ्रीकन स्टडीज के एक प्रोफेसर ने एक पत्र में कैंपस से गांधी की प्रतिमा को हटाने का समय मांगा था. जवाब में विश्वविद्यालय ने विदेश मंत्रालय विभाग को पत्र लिख दिया, वहां से कहा गया कि इसे दूसरी जगह ले जाया जाएगा. घाना में गांधी की प्रतिमा का अनावरण पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने दो साल पहले किया था. यही एक कारण था कि घाना सरकार इसे प्रदर्शनकारियों द्वारा गिराए जाने की जगह दूसरी जगह ले जाने के बारे में सोच रही थी.
यह केवल घाना की बात नहीं है. मालावी में भी इसी तरह की एक मुहिम चल रही है जिसमें कुछ समुदाय ब्लांटायर में गांधी की प्रतिमा को बनने से पहले ही रोक देना चाहती हैं.
नस्लभेदी से संत अपने आप में एक अलग तरह का चित्रण है. क्या गांधी समय के साथ विकसित हुए हैं? या फिर वह बाकी हाड़ मांस के बने इंसानों की तरह ही विरोधाभास का एक ढ़ेर मात्र हैं. या फिर वह एक चतुर रणनीतिकार है जो इस बात में भरोसा नहीं रखते कि अंत में आपका कर्म ही आपको न्याय दिलाता है.?
खैर, सच जो कुछ भी हो. गांधी की 150वीं जंयती मनाने का सबसे अच्छा तरीका है कि उन्हें ठीक से अधय्यन किया जाए न कि केवल फूल-माला लेकर उनको पूजा जाए.
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